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जाति परिवर्तन का अधिकार, तोड़ सकता है दलित और गैर दलित के बीच खड़ी दीवार

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बिना इतिहास को समझे और बहुत गहराई में गए, वर्तमान में ही रुकें, तो क्या आपको नहीं लगता कि जाति की समस्या हमारे समाज में, उस लेबल से बाहर आने की तड़प से भी जुडी है, जो जन्म से उसके मांथे पर चिपका दिया जाता है कि तुम्हारे माता-पिता दलित थे, इसलिए तुम भी दलित ही माने और कहे जाओगे. माता-पिता दलित थे, इसमें जन्म लेने वाले के पास, जन्म लेने से पूर्व, ऐसा कोई रास्ता था क्या कि  वो जन्म लेने से मना कर दे ? दलित होना पीड़ाजनक नहीं है. मर्मान्तक कष्टकारी होता है जब तथाकथित ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनियांं वर्ग में जन्मे लोग शूद्रों (दलित वर्ग) को हीन होने का एहसास कराते हैं. यही एहसास दलितों के मन में सवर्णों के प्रति ईर्षा, द्वेष, और घृणा को जन्म देता है.

ये एहसास कराने की तमाम परम्पराएं कितनी पुरानी हैं इसकी खोज और जांच-पड़ताल का काम समाज शास्त्रियों को करने दीजिये. मैं तो समस्या की वर्तमान शक्ल की बात कर रहा हूंं. पीने के पानी का पात्र और खाने की चीजें, एक बड़े वर्ग की मान्यता के अनुसार, दलित के छूने मात्र से आज भी अपवित्र हो गयी, मानी जाती है. जब तक समाज में दलित, दलित के रूप में पहचाना जाता रहेगा, इस पीड़ा को झेलता रहेगा.

एक घटना विशेष ने सवर्ण समाज के मन मस्तिष्क में यह विकृति कितनी गहरी पैठ बना चुकी है, इसका बोध मुझे कराया. मेरे एक मित्र का काम किसी अधिकारी की स्वीकृति के लिए उसके पास लंबित पड़ा था. एक दिन बातों के चलते मेरी जानकारी में बात आई. मैंने अपने मित्र से कहा कि उस अधिकारी से मेरी जान-पहचान है, किसी दिन आप मेरे साथ चलें और अपनी परेशानी उनको बताएं. एक दिन वो दिन भी आ गया. हम दोनों नोयडा में उस अधिकारी के ड्राईंग रूम में थे. मित्र ने अपनी बात कही. इसी दौरान चाय-नाश्ता आ गया. सब ने चाय-नाश्ता का आनंद लिया और लौट आये. अधिकारी के रहन-सहन और परिजनों के हाव-भाव से मित्र के दिमाग में छबि बनी कि अधिकारी ठाकुर वर्ग का होगा. लौटते हुए रास्ते में मुझ से बोले, ठाकुर बच्चा है, दबंगई  पूरे  परिवार के चेहरे-मोहरे और बातचीत से ही झलक रही थी. सुनते ही मुझे अपने मित्र की बातों पर हंसी आ गई. चूंंकि मेरे मित्र ब्राह्मण हैंं, और वो भी जरा-जरा सी बातों पर जनेऊ के अपवित्र हो जाने पर उसे बदलने वाले. मैं कुछ बोला नहीं पर हंसी उनके मन पर भारी पड़ गयी थी, इस बात का एहसास मुझे हो गया था. कुछ दिनों बाद जब उनका काम हो चुका था, बोले किसी दिन आपको नोयडा जाना हो तो मुझे भी साथ ले लेना, उनको मिठाई खिलानी है. दिन बीते. मेरा नोएडा जाना नहीं हुआ. इसी बीच उन्हें जाने कहांं से पता चल गया कि अधिकारी दलित वर्ग का है. दनदनाते हुए मेरे पास आये और मुझसे बोले – “ओसवाल जी, ये ठीक नहीं किया आपने. मेरा धर्म भ्रष्ट करा दिया. मुझे पहले बता दिया होता तो मैं उस दिन कह देता कि आज मेरा व्रत है.” मैं एक दम सन्न रह गया. उनके चेहरे पर गुस्से के भाव से ज्यादा गहरा, उनके दिल-दिमाग पर छाया नफ़रत का ग्रहण स्पष्ट नजर आ रहा था. उस दिन से सोंच रहा हूंं, क्या है यह ? बीजगणित के सवाल की तरह, दीवाल पर स्पष्ट लिखी इस सामाजिक विकृति का निदान मै आज तक ढूंंढ़ रहा हूंं.  

लगभग 40 साल बाद भी समाज कुछ बदला क्या ? हांं, एक बदलाव जरूर नजर आ रहा है, वोटों के लुटेरे राजनेता, साधू का भेष धारणकर और कटोरा हाथ में थाम, दलितों की बस्तियों में घूम-घूमकर, धुआंं रहित चूल्हे पर एहसान की गैस जला, रोटियांं पकाने और खाने का दिखावा करने को मजबूर हैं. नंगी सच्चाई ये है कि देश के हर गांंव में “दलित प्रेम” फिल्म की शूटिंग जोरों पर चल रही है. बड़े पद-नामधारी नेताओं की पूरी व्यवस्था स्थानीय प्रशासन सम्भालता है. जो पद-नामधारी नेता बिना कड़ी सुरक्षा जांच के किसी का दिया, एक घूंंट पानी नहीं पी सकता, वो दलित की बनायी रोटी खायेगा ? सब झूठ है, दिखावा है, छलावा है, धोखा है, मक्कारी है, राजनैतिक ड्रामेबाजी है, सिर्फ और सिर्फ फोटोशूट है.

खैर, अपना विषय ये नही है. इंसान के मन में, इंसान के प्रति घृणा अनायास पैदा नहीं होती. घृणा पैदा होने के पीछे कुछ न कुछ कारण होता है. कारण जाहिर हो या छुपा हुआ, होता जरूर है. घृणा, दलितों के माथे पर जन्म के साथ चिपका दिए जाने वाले लेबल से बनी, उसकी जाति की पहचान होने के बाद पैदा होती है, जिस पर लिखा है – “ये दलित है ?”

मेरा संशय है, संशय इसलिए कि तय करने वाला अकेला मै कौन हूंं ? मैंने तो समाज के सामने एक मुद्दा रखा है. एक समस्या रखा है.  हम, आप, सब मिलकर उसका समाधान करें. उससे पहले एक और तथ्य पर गौर करें – ये समस्या गांंव के मुकाबले शहरों में बहुत कम है. एक दलित गांंव में परचून की दूकान खोले. ज्यादातर दलित ही उसकी दूकान से सामान खरीदेगा, सभी वर्ग के क्यों नही खरीदते ? वही दलित किसी बड़े शहर की बढती आबादी वाले इलाके (शहर के विस्तार हो रहे इलाके) में परचून की दूकान खोले तो सभी वर्ग के लोग उसकी दुकान से सामान खरीदते मिलेंगे. यानी समस्या इंसान से नहीं है, दलित के रूप में उसकी पहचान के जाहिर होने के बाद पैदा होती है. जिस इलाके में लोग उसकी पहचान से वाकिफ है, समस्या वहीं है. यानी इसकी व्यापकता उसकी पहचान के साथ जुडी हुई है. होटल, रेस्टोरेंट, टी-स्टॉल में कहीं कोई पूछता है क्या कि खाना बनानेवाला किस “जाति” का है ? जाता है, अपनी फरमाईश रखता है या उस मोटे कागज़ में से अपनी पसंद वेटर को बताता है, सामान आता है, खाता है, भुगतान करता है, चला आता है. जब आप तीर्थाटन/पर्यटन पर निकलते हैं तो पूजा की सामग्री खरीदते समय इस बात की जांच करते हैं क्या कि विक्रेता किस “जाति” का है ? नहीं करते न्.

यानी समस्या आज उतनी जटिल नहीं रही, जितनी आज से एक शताब्दी पूर्व रही होगी. पर पहचान जाहिर होने के बाद आपके दिल-दिमाग और पेट में जो ऐंठन शुरू हो जाती है वो तो एक शताब्दी पूर्व उठाने वाली ऐंठन जैसी ही है. जरूरत, उसी ऐंठन के कारणों की पहचान/निदान कर उचित इलाज करने की है. समस्या उस पहचान को मिटाने की है. उस लेबल को चिपकाने की व्यवस्था को ख़तम करने की है. जो धर्म परिवर्तन करने के अधिकार की तरह जाति परिवर्तन करने के अवसर को, जीवन में कम से कम एक बार उपयोग करने के अधिकार से ख़तम हो सकता है. सवर्णों की यह मांग कि आरक्षण के मूलभूत जातिगत आधार को बदल कर, आर्थिक करो, उपयुक्त नहीं है. दलित और सवर्ण दोनों मिल कर जाति-परिवर्तन की मांग करें. इससे दोनों को फायदा होगा.

जो दलित आरक्षण का लाभ लेकर आज इस स्थिति में पहुंंच गए हैं कि उन्हें अब अपने माथे पर चिपका दलित का लेबल, सुख से ज्यादा मानसिक पीड़ादायक बन गया है, वे उस पहचान से बाहर आकर समाज की सामान्य धारा में शरीक हो सकेंगे. दलितों को जिन सामाजिक परिस्थितियों से बाहर निकालने और समाज की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था को लागू किया था और अब जिन दलितों को लगता है कि वो उन परिस्थितियों से उबर चुके हैं और समाज की मुख्य धारा में शामिल होना चाहते हैं, उन दलितों के माथे पर चिपका ये लेबल, उन्हें समाज की मुख्य धारा में शामिल होने देने में बहुत बड़ी बाधा बन खड़ा है. जिन सवर्णों को लगता है कि आज वो लगभग उन्ही परिस्थितियों में जी रहे है जिनमें दलित जी रहे हैं, तो वो ख़ुशी-ख़ुशी दलित बनकर उन्हीं लाभों को प्राप्त करें जिन्हें दलित प्राप्त कर रहे हैं. मोदी सरकार के स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ने के आवाहन की तर्ज पर ही जाति छोड़ने की यह मांग है.

आरक्षण की यह व्यवस्था शुरू-शुरू में केवल दस वर्षों की समय अवधि के लिए ही लागू की गयी थी. इस अवधि को हर बार दस वर्षों के लिए बढ़ाया जाने लगा है. बदनामी की इस टोकरी को शुरू में कांंग्रेस ने ढोया. जनसंघ जिसने अब भाजपा का अवतार ले लिया है, एक समय तक बनियों की पार्टी के रूप में जानी जाती थी. उस वक्त जनसंघी/भाजपाई, कांग्रेस को भंगी, चमारों और मुल्लों की पार्टी के नाम से नवाजते थे. भाजपा के सत्ता में आने के बाद अधिसंख्य सवर्णों ने अपने मन में ये मंसूबा पाल लिया था कि अब आरक्षण का आधार जातिगत न रह कर आर्थिक हो जाएगा क्योंकि आरक्षण का आधार आर्थिक बनाने की मांग करने वाले आंदोलनों को तब हवा भाजपा देती थी.

कुछ चितपावन राष्ट्रवादी यह मानने लगे हैं कि सत्ताधारियों का धर्म-ईमान सिर्फ और सिर्फ सत्ता पाना, और सत्ता मिल जाने के बाद उसकी लगाम अपने ही हाथों में रखना हो गया है. अपनी विरोधी पार्टियों से हिन्दू वोटों की खेती की सुरक्षा के लिए एक धर्म विशेष के अनुयायियों को बूझका बना खड़ा कर दिया गया है. क्या उसी तरह दलित वोटों की खेती की सुरक्षा के लिए आरक्षण को बूझका बना खड़ा कर दिया गया है ? लगता तो यही है. मन ही मन सवर्ण कितने भी रुष्ट हों पर सत्ता की लगाम वर्तमान सत्ताधारियों के हाथ से फिसल जाना उन्हें भी गवारा नहीं होगा.

दलितों के नये युवा नेतृत्व के उभरने के खतरों के प्रति वर्तमान में स्थापित दलित नेताओं और सत्ताधारियों की चिंताएं साझा है. दोनों मिलकर नए नेतृत्व को उभरने से रोकने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं. उ०प्र० में भीम आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेखर रावण, द ग्रेट चमार, की सहारनपुर दंगों के मामलों में इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत के उपरान्त उन पर रासुका लगा दी गयी. वो जेल में निरुद्ध हैं. गुजरात के युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी सहारनपुर जेल में उनसे मिलने गए थे, उन्हें मिलने नहीं दिया गया. भाजपा जिन दलित नेताओं को अपना विरोधी समझती है, किसी को सर उठाने नहींं दिया जा रहा. इन उभरते नए युवा दलित नेतायों के पाऊंं पसारने से चिंतित मायावती ने एक समय अपने कट्टर विरोधी सपा से चुनावी गठजोड़ किया है. अन्य कारणों के अलावा इस गठजोड़ की मजबूरी के पीछे एक कारण यह भी माना जाता है.             

परन्तु इस सामाजिक रोग ने भाजपा के सत्ता में आने के बाद आज राजनैतिक कैंसर का रूप धारण कर लिया है. वो अपनी डूबती नैया को आरक्षण के चप्पू के सहारे पार लगाना चाहती है इसीलिए सदियों पुरानी इस सामाजिक समस्या का समाधान करने में उसकी कोई रूचि नहीं है. वहीं यह भी उतना ही सच है कि भाजपा शासन में दलितों और गैर-दलितों के बीच खड़ी दीवार, कमजोर होने के बजाय और मजबूत हो गयी है. जाति परिवर्तन का अधिकार, तोड़ सकता है दलित और गैर दलित के बीच खड़ी दीवार.

-विनय ओसवाल
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विशेषज्ञ
सम्पर्क नं. 7017339966

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2 Comments

  1. Sakal Thakur

    April 30, 2018 at 9:45 am

    अभी जाति टूटने में और लम्बा समय लगेगा ब्राह्मणवाद सबसे बड़ा रोडा है खत्म किये बिना नही

    Reply

  2. Manoj Bhushan Singh

    April 30, 2018 at 9:48 am

    तब की हालात में तमाम अगड़ी जातियों के दलित बनते देर न लगेगी ा

    Reply

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