क्लारा एक कुशल लेखिका, वक्ता और महिला मज़दूर संगठनकर्ता थी. वे उस समय जर्मनी में सरगर्म रोज़ा लक्जेमबर्ग, कार्ल लिबनेख़्त और फ़्रांज मेहरिंग की समकालीन थी. उन्हें समाजवादी आंदोलन से जोड़ने का श्रेय ओसिप जेटकिन नामक एक रुसी मार्क्सवादी को जाता है. मार्क्सवाद से प्रारंभिक परिचय होने के कुछ समय पश्चात क्लारा जेटकिन ने मीटिंगों, अध्ययन चक्रों में शामिल होना शुरू कर दिया था, लेकिन समाजवादी आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से डरकर उस समय के चांसलर बिस्मार्क ने जर्मनी में समाजवाद विरोधी क़ानून लागू कर दिया, जिसकी वजह से 1880 में क्लारा को जर्मनी छोड़कर फ़्रांस और स्विट्ज़रलैंड में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा.
लगभग एक दशक बाद वह वापिस जर्मनी आईं और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के महिला अख़बार के संपादक के तौर पर काम करने लग गईं. बौद्धिक कार्यों के साथ-साथ उन्होंने जर्मनी में काम करने वाले मज़दूरों को संगठित करने का काम भी जारी रखा. इस दौरान उन्होंने महिला मज़दूरों को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई.
उस समय राजशाही के दौरान जर्मनी में महिलाओं, छात्रों और मज़दूरों को राजनीतिक संगठन बनाने का कोई अधिकार नहीं था और राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने की भी मनाही थी. हालांकि 1902 में यह क़ानून समाप्त हो गया और महिलाओं को संगठन बनाने की आज़ादी तो मिल गई, लेकिन उन्हें पुरुषों के साथ एक साझा संगठन बनाने पर अब भी रोक थी. इसीलिए जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने महिला मज़दूरों को संगठित करने के उद्देश्य से अलग से एक संगठन का निर्माण किया, जिसका प्रमुख क्लारा जेटकिन को बनाया गया.
क्लारा ने पूंजीवादी व्यवस्था में महिलाओं पर होने वाले शोषण का डटकर विरोध किया और समान काम के लिए समान वेतन की मांग उठाई. इसके अलावा महिलाओं के राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने पर लगे प्रतिबंधों के विरोध के साथ-साथ पाखंडपूर्ण वैवाहिक संबंधों का भी खुलकर विरोध किया. इसी के साथ औरतों के गर्भपात करवाने और बच्चा पैदा न करने जैसे अधिकारों का भी समर्थन किया. उन्होंने महिलाओं के वोट देने के अधिकार की भी मांग उठाई.
1907 में अमरीका के न्यूयार्क शहर में वहां के कारख़ाने में काम करने वाली महिला मज़दूरों ने वेतन बढ़ाने, काम के घंटे कम करने और यूनियन बनाने जैसी मांगों को लेकर कई प्रदर्शन किए. 1909 में न्यूयार्क में महिला कपड़ा मज़दूरों ने अपनी जायज़ मांगों को हासिल करने के लिए 13 हफ़्तों की लंबी हड़ताल कर दी. 1910 में अंतरराष्ट्रीय महिला मज़दूरों की दूसरी कॉन्फ्रेंस में क्लारा जेटकिन ने इन सब संघर्षों से प्रेरणा लेकर प्रस्ताव रखा कि हर साल 8 मार्च का दिन ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाए. लेकिन इस दिन की जो क्रांतिकारी विरासत है, उसे पूंजीपति वर्ग द्वारा लगातार जनता से छुपाकर रखा गया.
इसी के बाद पूरे विश्व में 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत हुई. हर वर्ष 8 मार्च के दिन महिला मज़दूरों के बड़े-बड़े प्रदर्शन और मार्च आयोजित किए जाने लगे. ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान 1917 में रूस में महिलाओं ने युद्ध को बंद करने और रोटी देने जैसे नारों को बुलंद किया, जिसने बाद में अक्टूबर क्रांति को जन्म दिया.
जब कुछ नेता प्रथम विश्व युद्ध का समर्थन कर रहे थे, तो जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के वामपंथी साथियों के साथ क्लारा ने इसका डटकर विरोध किया. लेनिन ने भी क्लारा की युद्ध विरोधी नीति का समर्थन किया. क्लारा ने मज़दूरों से अपनी बंदूक़ें अपने-अपने देश के पूंजीपति वर्ग की तरफ़ मोड़ देने का आह्वान किया, जिसकी वजह से उन्हें और रोज़ा को कारावास और निर्वासन की सज़ा झेलनी पड़ी.
1914 में वे उस अल्पसंख्यक समूह की सदस्य थीं, जो प्रथम विश्वयुद्ध के ख़िलाफ़ था. 1915 में उन्होंने पूरे विश्व में मेहनतकशों के बीच एकता स्थापित करने के उद्देश्य से स्विट्ज़रलैंड में अंतरराष्ट्रीय महिला शांति सम्मलेन का आयोजन किया. इस सम्मलेन में बात रखते हुए उन्होंने कहा – ‘इस युद्ध से केवल बंदूक़ों, तोपों और युद्धपोतों का निर्माण करने वाले पूंजीपतियों को फ़ायदा होगा. अपने मुनाफ़े को बढ़ाने की अंधी हवस में उन्होंने पूरी दुनिया को युद्ध की आग में झोंक दिया है. मज़दूरों को इस युद्ध से कुछ भी हासिल नहीं होगा, बल्कि अब तक जो कुछ भी हासिल किया था, उसे भी वे गंवा देंगे.’
इस सम्मलेन के बाद क्लारा ने रोज़ा लक्जेमबर्ग, कार्ल लिबनेख़्त और अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ‘स्पार्टकस लीग’ का गठन किया, जो बाद में दिसम्बर 1918 में जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी बनी.
क्लारा की सांगठनिक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए लेनिन ने उन्हें एक दस्तावेज़ लिखने की जि़म्मेदारी दी, जिसका विषय था ‘महिला मज़दूरों के बीच राजनीतिक कार्यों का संचालन किस प्रकार किया जाए’. बाद में यह दस्तावेज़ तीसरे इंटरनेशनल के तीसरे कांग्रेस में पारित किया गया.
क्लारा जेटकिन महिला मुक्ति के प्रश्न पर हमेशा एक सही मार्क्सवादी अवस्थिति अपनाने की पक्षधर थी. वे इस बात को लेकर एकदम साफ़ थी कि महिलाओं की ग़ुलामी का असली कारण मुनाफ़े पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था है, इसलिए उनकी आज़ादी मज़दूर वर्ग की मुक्ति के बिना असंभव है.
हालांकि जर्मनी में उस समय मौजूद समाजवादियों और महिला मोर्चे पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं के बीच इस प्रश्न को लेकर लंबे समय से मतभेद मौजूद थे. जहां लासाल ने इस आधार पर महिलाओं के कारख़ानों में काम करने का विरोध किया था कि इससे पुरुष मज़दूरों के रोज़गार के अवसरों और उनके वेतन पर असर पड़ेगा, वहीं दूसरी तरफ़ अगस्त बेबेल, कार्ल लिबनेख़्त, रोज़ा लक्जेम्बर्ग और क्लारा ने महिलाओं के कारख़ानों में काम करने को उनकी आर्थिक आज़ादी और पुरुषों के साथ बराबरी की तरफ़ एक आगे बढ़े हुए क़दम के रूप में देखा था.
लासाल के अनुयायियों ने कहा कि इसके द्वारा वे महिलाओं के पतन और परिवार को टूटने से रोकना चाहते हैं. यहीं से महिला मुक्ति के प्रश्न को लेकर जर्मनी के समाजवादी आंदोलन में दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारों के बीज पड़ गए थे.
लासाल के अनुयायियों ने तो महिलाओं के मताधिकार और राजनीतिक अधिकार दिए जाने का भी विरोध किया, लेकिन क्लारा सहित तमाम मार्क्सवादियों ने इस मांग का खुलकर समर्थन किया. बाद में 1879 में बेबेल की किताब ‘महिलाएं और समाजवाद’ तथा 1884 में एंगेल्स की किताब ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति’ छपने के बाद महिला मुक्ति के प्रश्न को लेकर लासाल के विचारों का स्थान मार्क्सवादी विचारों ले लिया.
इसी समय मज़दूर महिलाओं के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ-साथ बुर्जुआ वर्ग के दायरे में महिलाओं को कुछ अधिकार हासिल कराने वाली एक और धारा ने जन्म लिया. सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदर भी बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन से जुड़े प्रश्नों को लेकर गंभीर मतभेद पैदा हो गए. पार्टी के संशोधनवादी धड़े ने नारीवादियों के साथ समझौता करने का रुख़ अपनाया, वहीं क्लारा के साथ पार्टी में मौजूद वामपंथी धड़े ने अलग से एक क्रांतिकारी महिला मज़दूर आंदोलन खड़ा करने का समर्थन किया.
आगे चलकर कई महत्वपूर्ण प्रश्नों जैसे महिलाओं की सुरक्षा, काम के घंटे कम करने आदि को लेकर नारीवादियों और महिला मज़दूर संगठनकर्ताओं के बीच मतभेद पैदा हो गए. नारीवादियों ने अपने आंदोलन को केवल मताधिकार की मांग तक सीमित रखा.
अक्सर क्लारा जेटकिन और उनके समकालीन अन्य मार्क्सवादियों पर मध्यम वर्ग की महिलाओं पर होने शोषण को नज़रअंदाज करने का आरोप लगाया जाता है. जबकि हक़ीक़त में उन्होंने मध्यम वर्ग समेत शासक वर्ग से संबंध रखने वाली महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के बारे में भी लिखा है.
हां ,यह ज़रूर सच है कि क्लारा ने मध्यम वर्ग की महिलाओं की कुछ मांगों को भले ही उठाया, उनका समर्थन किया, लेकिन अपने समय के अन्य मार्क्सवादियों की तरह उनका मुख्य ज़ोर मज़दूर महिलाओं को संगठित करने पर था. उन्होंने इस पर ज़ोर देकर कहा कि –
मज़दूर महिलाओं को अपने पुरुष साथियों के साथ इस पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने की आवश्यकता है. इसके अलावा उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से भागीदारी करने के कारण मज़दूर महिलाएं अपने साथ-साथ हर वर्ग की महिलाओं की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम हैं. मुनाफ़े पर आधारित इस पूंजीवादी व्यवस्था को मज़दूर वर्ग की क्रांति द्वारा पलटकर ही सही मायने में महिलाओं की आज़ादी संभव है.
क्लारा अनवरत आजीवन मार्क्सवादी बनी रही. आंदोलन के तमाम उतार-चढ़ाओं को देखने के बाद भी वे अपने विचारों पर अडिग रही. आने वाली पीढ़ियां उन्हें महिला मज़दूरों को संगठित करने वाली एक महान क्रांतिकारी योद्धा के रूप में हमेशा याद रखेंगी.
- नमिता
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