बुधवार को राज्यसभा में सपा सांसद नरेश अग्रवाल ने एक बार फिर सांसदों के वेतन-भत्ते मुख्य सचिव के बराबर करने की मांग को जोरदार तरीके से उठाया तो वहीं दूसरी तरफ तमिलनाडु में खराब फसल और कर्जे से त्रस्त होकर मौत को गले लगाने पर मजबूर हो रहे तथा आत्महत्या कर चुके किसानों के कंकालों को लेकर दिल्ली में किसान प्रदर्शन कर रहे थे. वहीं तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ई. पलानीस्वामी ने विधायकों की सैलरी 55000 से बढ़ाकर 1,05,000 रूपये कर पूरे देश की जनता को चौंका दिया कि वह भले ही जनहित की बात करते हों लेकिन उनके निजी लाभ देश और जनता से बढ़कर हैं.
चुनावों में राजनैतिक दलों के नेेता एक-दूसरे को भले ही गालियां देते हों और लोकसभा-विधानसभा में भले ही जनहित के मुद्दों को लेकर तोड़फोड़ करते हों लेकिन अपने निजी लाभ के लिये वह एक मंच पर एक साथ खड़े नजर आते हैं.
ये जनप्रतिनिधि किस तरह अपनी सुविधाओं के प्रति चिंतित नजर आते हैं, इसके दो उदाहरण 19 जुलाई को राज्यसभा दिल्ली तथा तमिलनाडु विधानसभा में सामने आये, जब राज्यसभा में सपा सांसद नरेश अग्रवाल ने सांसदों के वेतन भत्ते प्रमुख सचिव के बराबर करने की मांग उठाई तो दूसरी तरफ तमिलनाडु विधान सभा में किसानों की मौत और प्रदर्शनों के बीच मुख्यमंत्री ने राज्य के विधायकों के वेतन में 100 प्रतिशत की एक साथ वृद्धि कर दी.
दोनों जगह नेताओं ने जता दिया कि वह जनता की समस्याओं के प्रति नहीं अपने निजी लाभों के लिए ज्यादा चिंतित है. सांसद-विधायकों की सुख-सुविधा बढ़ें इससे मुझे या किसी देशवासी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन क्या ये जनप्रतिनिधि जनता-लोकसभा-राज्यसभा-विधान सभा के प्रति जवाब-देह हैं ?
जनता चुनने के बाद सांसद-विधायकों को 5 साल तक तलाशती रहती है तो संसद-विधान सभाएं भी सूनी-सूनी नजर आती हैं. हां, मगर अविश्वास प्रस्ताव या विशेष मौके पर हंगामा होने के समय इनकी चीखें और नंगापन कभी-कभी अवश्य नजर आता है.
एक तरफ जनता सांसदों-विधायकों से विकास की बात करती है, तो वह धन ना होने का रोना रोते हैं और दूसरी तरफ विकास कार्यों के प्रस्ताव के लिए फुर्सत ना मिलने पर सांसद-विधायक निधि की राशि वापिस लौट जाती है. जबकि एक सांसद को प्रतिमाह 50 हजार के वेतन सहित 1.40 लाख के वेतन भत्ते, आलीशान बंगला, प्लेन, एसी ट्रेन सफर, टेलीफोन सहित अन्य सुख-सुविधाएं भी मिलती हैं, लेकिन इस सबके बावजूद भी इस देश के सांसद देश की सर्वोच्च सस्था संसद भवन और जनता के बीच से गायब रहते हैं.
जिन सांसदों को सबसे बेहतर इलाज मिलता है वह बीमारी के बहाने से अवकाश लेकर ऐश-मौज की जिंदगी जीते हैं. इसका खुलासा पिछले दिनों हुआ जिसमें 26 प्रतिशत बीमारी तथा 20 प्रतिशत सांसद अन्य कारणों से गायब रहे, जो कुल 46 प्रतिशत था. कहने को तो प्रधानमंत्री मोदी और योगगुरु रामदेव स्वस्थ रहने के लिए योग का संदेश दे रहे हैं, इसके बावजूद 16वीं लोकसभा में भाजपा के ही सबसे अधिक सांसद ऐसे हैं, जो अक्सर बीमार रहते हैं. यही वजह है कि वे रोग का इलाज कराने के लिए अवकाश लेकर अक्सर संसद कार्यवाही से अनुपस्थित रहते हैं. हालांकि, संसद से अवकाश लेकर कार्यवाही से गायब रहने वाले सांसदों में अन्य दलों के सांसद भी शामिल हैं, लेकिन इनमें भाजपा के नेता टाॅप पर हैं.
पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ पांच सांसदों की हाजिरी 100 प्रतिशत है. जबकि 16वीं लोकसभा के 46 ऐसे सांसद हैं, जो सबसे अधिक अवकाश का आवेदन दिये हैं. इन सांसदों में से 34 सांसदों ने सबसे अधिक छुट्टी ली हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार 16वें लोकसभा के 230 दिनों के कार्य दिवस में सांसदों की उपस्थिति 80 फीसदी दर्ज हुई है. इस दौरान 34 सांसदों द्वारा छुट्टियों के 46 आवेदन भी आये.
जारी आंकड़ों के अनुसार, सबसे ज्यादा छुट्टियों के लिए आवेदन बीमारी से संबंधित थी. और सबसे ज्यादा भाजपा से 18 छुट्टियों के आवेदन आये हैं. इतना ही नहीं, भाजपा के 18 सांसदों की ओर से बीमारी के नाम पर छुट्टी लेने के अलावा तृणमूल कांग्रेस के 09, कांग्रेस के 04, बीजू जनता दल के 04, एनसीपी के 03, पीडीपी के 02, वाइएसआर कांग्रेस के 02, पीएमके के 01, लोजपा के 01 झामुमो के 01 और सीपीआइ (एम) के 01 सांसद हैं, जिन्होंने सबसे अधिक छुट्टी ली हैं.
करीब 25 सांसदों ने ही 90 फीसदी से ज्यादा बैठकों में भाग लिया. ऐसे सांसदों की संख्या 133 है. पिछले तीन साल के दौरान लोकसभा के 22 सदस्यों ने आधे से भी कम बैठकों में भाग लिया. बुंदेलखंड के बांदा से सांसद भैरो प्रसाद मिश्रा की उपस्थिति का रिकाॅर्ड 100 प्रतिशत है. उन्होंने 1468 बहसों और चर्चाओं में भाग लिया, जो लोकसभा में सर्वाधिक है.
पीएम और कुछ मंत्रियों के रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि उनके लिए उपस्थिति रजिस्टर पर हस्ताक्षर करना जरूरी नहीं है. पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह दिसंबर 2016 तक सदन के सदस्य थे. उन्होंने छः प्रतिशत बैठकों में भाग लिया, जबकि वर्तमान उ.प्र. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 72 प्रतिशत बैठकों में भाग लिया. मजे की बात यह भी है कि 16वीं लोकसभा के कई सांसद ऐसे हैं, जो बिना सूचना के ही संसद की कार्यवाही से दो-दो महीने तक गायब रहे हैं, जिस वजह से लोकसभा में उनकी सीटें खाली रहीं.
यह आलम तब है, जब संविधान के अनुच्छेद 101 के अनुसार सांसदों को छुट्टी के लिए एक कमेटी को आवेदन देना होता है. उस कमेटी की अनुशंसा पर ही सांसदों को छुट्टी मिलती है. अगर बिना बताये कोई सांसद 60 दिनों तक अनुपस्थित रहे, तो सदन उस सीट को खाली घोषित कर देती है. लेकिन देश का भाग्य-विधाता कहे जाने वाली संसद के सर्वे-सर्वा कहे जाने वाले सांसदों पर कोई नियम-कानून लागू नहीं होता है.
इसी तरह राज्य विधानसभाओं की स्थिति है, जहां माननीय जनप्रतिनिधि अपना भाग्य और किस्मत स्वयं तय करते हैं, जिसमें ईमानदारी और पारदर्शिता का ढिंढोरा पीटने वाले अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालते ही अपने विधायकों को मालामाल बनाने के लिये एक साथ 1.20 लाख से बढ़ाकर 3.67 लाख करने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा दिया है, जो अभी मंजूर नहीं हुआ है. जबकि उ.प्र. के तत्कालीन अखिलेश सरकार ने विधायक-मंत्रियों पर मेहरबानियों की बौछार करते हुए मुख्यमंत्री और मंत्रियों के वेतन में 300 प्रतिशत वृद्धि कर दी.
सरकारें अपनों पर किस तरह मेहरबान है, ये इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के तेलंगाना में सबसे ज्यादा 2,50000, दिल्ली में 2,35000, हरियाणा 2,20,000, महाराष्ट्र में 1,70000, बिहार में 1,41000 के वेतन भत्ते विधायक हासिल कर रहे हैं, जबकि उन्हें स्वास्थ्य, आवास जैसी अनेक अन्य सुविधाएं भी सरकार की ओर से उपलब्ध कराई जाती हैं.
सबसे दिलचस्प पहलू हरियाणा में भाजपा की खट्टर सरकार का है, जिसने वर्तमान विधायक-मंत्रियों के वेतन भत्तों में तो जबरदस्त वृद्धि की ही बल्कि पूर्व मंत्री-विधायकों को भी वर्तमानों की तरह वेतन भत्ते भी उपलब्ध कराने शुरू कर दिये, जिसे लेकर हाईकोर्ट ने खट्टर सरकार को कड़ी लताड़ लगाई है. लेकिन राजनीति की मलाई को खाने के लिये हमाम में सब नंगे नजर आ रहे हैं और वह ‘हम सब एक हैं’ के नारे के सपने को साकार करते हुए जनप्रतिनिधि कम अब स्वार्थ-प्रतिनिधि बनकर रह गये हैं. यही इनके लिये सच्चा लोकतंत्र है.
(दो वर्ष पुराना एक आलेख, लेखक का नाम मालूम नहीं हो सका.)
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