भारतीय पत्रकारिता को एक साहसिक मुक़ाम पर ले जाने वाले दानिश सिद्दीक़ी आपको सलाम. अलविदा. आपने हमेशा मुश्किल मोर्चा चुना. मोर्चे पर आप शहीद हुए हैं. पुलित्ज़र पुरस्कार प्राप्त करने के बाद भी आपने मोर्चों का चुनाव नहीं छोड़ा. बंदूक़ से निकली उस गोली को हज़ार लानतें भेज रहा हूं जिसने एक बहादुर की ज़िंदगी ले ली. जामिया से मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई कर फ़ोटोग्राफ़ी को अपना करियर बनाया. भारत का मीडिया घर बैठ कर अफ़ग़ानिस्तान की रिपोर्टिंग कर रहा है. किसी को पता भी नहीं होगा कि भारत का एक दानिश दोनों तरफ़ से चल रही गोलियों के बीच खड़ा तस्वीरें ले रहा है – रविश कुमार
पत्रकार दानिश सिद्दीकी के मौत पर प्रधानमंत्री की चुप्पी बहुत कुछ कहती है. भारत के एक पत्रकार की हत्या होती है, जो कल का दिन था. आज सबको पता चलता है. उनके चाहने वाले और पत्रकार साथी श्रंद्धाजलि अर्पित कर रहे हैं और आपको याद होगा लगभग एक महीने पहले एक और पत्रकार की मौत हुई थी, जो कि नेशनल मीडिया का एंकर था. कहा गया था कि मौत कार्डियक अरेस्ट के कारण हुआ। मैं किसी के मौत को जस्टिफाई नहीं कर रहा हूं. मैं बस दोहरा रवैया को आपके सामने रख रहा हूं.
कल जिस पत्रकार की हत्या हुई है वे पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित पत्रकार थे – दानिश सिद्दीकी. उनकी यह हत्या अपने देश में नहीं बल्कि हजारों किलोमीटर दूर अफगानिस्तान के कंधार इलाके में हुआ. दानिश मौत को आगे कर अपने कर्म को निभता गया लेकिन उसके ही मुल्क भारत में कुछ लोग उसके हत्या पर खुशी मना रहे हैं.
और तो और भारत के टीवी चैनलों में उनके हत्या की खबरें गायब है. बस खानापूर्ति के लिए खबरें दिखाई गई. लेकिन आप फिर से वही उस एंकर के मौत के दिन को याद कीजिए प्रधानमंत्री से लेकर कई मंत्री ट्वीट कर शोक जताया. मैं कोई सवाल नहीं खड़ा कर रहा हूं लेकिन आज कहां है प्रधानमंत्री के ट्वीट ? कहां है किसी मंत्री का शोक संदेश ? नहीं, बिल्कुल नहीं है.
क्योंकि इन्होंने अपना पक्ष चुन लिया है. वो है इनका पक्ष जो इनके इतर जाएगा या इनसे सवाल करेगा. उससे इसी तरह का व्यवहार किया जाएगा बल्कि आज पत्रकार के परिवार को सांत्वना देने का दिन होना चाहिए था. उनके परिवार को संबल देने का दिन है. देश के प्रधानमंत्री से इस तरह की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता. आपके नजर में सब एक होना चाहिए था.
दानिश सिद्दीकी की हत्या किसी दूसरे मुल्क में हुई. कैसे हुई, आपको अपने स्तर से देखना चाहिए था. एक गर्व वाली बात है कि किसी दूसरे मुल्क में अपने देश का व्यकि्त अपना कर्म करते हुए शहीद हुआ. दूसरे मुल्क के लोग दु:खी हो रहे हैं. श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं. किस बात का दोहरा मापदंड ?
फर्क तो दिखता है साहेब. आप जितना भी ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा दे दें, रोहित सरदाना ड्यूटी पर नहीं मरे थे. फिर भी आप और आपके गुर्गों ने श्रद्धांजलि देने की होड़ मचा रखी थी. ऐसा लग रहा था जैसे देश का सिपाही चला गया. लेकिन अब जब अपने देश का जांबाज़ और सच्चा सिपाही शहीद हुआ अपनी line of duty पर, आपका एक संदेश नहीं है.
‘गद्दारों को गोली मारने’ वाले I&B minister अनुराग ठाकुर ने एक ट्वीट करके औपचारिकता पूरी कर दी है. तरीके से तो आपको दानिश के परिवार को साहस देना चाहिए था और उनका पार्थिव शरीर लाने के लिए सरकारी व्यवस्था करनी चाहिए थी. लेकिन छोड़िए, आपसे उम्मीद ही क्या रखनी. आज तक कौन-सी उम्मीद पूरी की है आपने !
बहरहाल, इस भेदभाव वाले रवैया के बाद आपके चेले चपाटे किस मुंह से मुसलमानों को देशद्रोही कहते हैं ? जब देश की सरकार ही उनको अपना नहीं मानती तो किस मुंह से उनसे आप देशभक्ति की उम्मीद करते हैं ? वैसे आपके इस तरह के रवैये के बाद भी मुसलमानों ने जो देशभक्ति दिखाई है, वो काबिल ए तारीफ है. अलविदा सर अब वो दिल को चिर देने तस्वीर नहीं देख पाऊंगा, शायद ही कोई आपके तरह तस्वीरों को जिंदा कैद कर पाएगा.
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रॉयटर्स के भारतीय फ़ोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी की मौत इस बात का साफ़ इशारा है कि पाकिस्तान ने जिस विषबेल, यानी तालिबान को 20 साल सींचा, वह जवान हो चुका है. अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने आज पाकिस्तान पर सीधा आरोप लगाया कि 10 हज़ार आतंकी सरहद पार कर घुस आए हैं. तालिबान के मुताबिक अफगानिस्तान के 400 जिलों में से 100 पर उनका कब्ज़ा हो चुका है, इनमें कंधार प्रान्त भी शामिल है।
आज ही अमेरिका के एक सांसद ने ख़ुफ़िया एजेंसियों के हवाले से ख़बर दी है कि राजधानी काबुल पर खतरा मंडरा रहा है. अमेरिकी हवाई हमलों के डर से तालिबानी अभी काबुल पर हमला नहीं कर पा रहे हैं लेकिन जल्द ही राजधानी की घेराबंदी होगी और तब गनी के सामने आत्मसमर्पण या मौत – ये दो ही रास्ते होंगे.
यकीनन, फिर तो तालिबान को रोकना बहुत मुश्किल होगा. पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद इमरान की सरकार पर भी भारी पड़ सकता है.यह भी न भूलें कि तालिबान की फौज में हज़ारों विदेशी मुजाहिदीन हैं, जो भाड़े के सैनिक हैं, पाकिस्तान उन्हें कश्मीर में इस्तेमाल कर सकता है. जैसे 1989-90 में अफगानिस्तान पर सोवियत कब्जे के बाद हुआ. जैश ए मुहम्मद का कैडर फिलहाल अफगानिस्तान में हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ लड़ रहा है.
एक और चिंता इसलिए भी है कि तालिबान कोई एक दल नहीं, बल्कि कई गुटों/कबीलों का मेल है इसलिए आम राय कायम करना काफी मुश्किल है. अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी बाइडेन की सबसे बड़ी भूल हो सकती है और दुनिया को इस्लामिक आतंकवाद और 18वीं सदी की परंपराओं में धकेलने की कोशिश भी.
इस खतरे के बावज़ूद कैमरे के ज़रिए सच्चाई को सामने ला रहे दानिश सिद्दीकी की मौत पर भारत के हिन्दू तालिबानियों का जश्न मुझे चौंका नहीं रहा है. हमने भी अपने भीतर नफ़रत के बीज को सालों तक इसीलिए तो सींचा है कि तालिबानी बन सकें. लेकिन यह वह विषबेल है, जो खुद को भी खा सकती है, खा भी रही है. दानिश के लिए पीएम तो दूर, हमारे विदेश मंत्री ने भी संवेदना का एक शब्द नहीं कहा. शायद मरने वाले का नाम दानिश नहीं, दिनेश होना चाहिए था.
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तालिबान के हाथों दानिश सिद्दीक़ी की हत्या के बाद आईटी सेल भयंकर तरीक़े से सक्रिय है. उसे लगता है कि लोग मूर्ख हैं और जो भी वो फैलाएगा, वही समझेंगे. इस तरह का भ्रम आईटी सेल पाल सकता है. कई मैसेज में देखा कि ‘श्मशान से तस्वीरें लेकर दानिश ने दुनिया भर में भारत की छवि को नुक़सान पहुंचाया. श्मशान से पत्रकारिता नहीं करनी चाहिए.’
पहली बात कि श्मशान से रिपोर्टिंग अकेले दानिश ने नहीं की. कई चैनलों के पत्रकारों ने की. अब ये अलग बात है कि तमाम तस्वीरों में दानिश की तस्वीर ने झूठ के पर्दे को उधेड़ दिया तो इसमें दानिश की ग़लती नहीं थी बल्कि उसकी योग्यता थी कि सारी तस्वीरों में आईटी सेल की सेना को दानिश की तस्वीर याद रही. तो एक तरह से आईटी सेल वाले दानिश के काम की तारीफ़ कर रहे हैं, लोहा मान रहे हैं.
श्मशान से शानदार रिपोर्टिंग गुजराती भाषा के अख़बारों ने की. सरकार अपनी ही जनता के मरने पर उसकी गिनती छिपा रही थी. आप भी मानेंगे कि यह सही काम नहीं था. गुजरात समाचार, संदेश, सौराष्ट्र समाचार और दिव्य भास्कर ने श्मशान से आंकड़ों को निकाल कर सरकारी झूठ की धज्जियां उड़ा दी. दानिश ने दिल्ली से वही काम किया और दूसरे चैनलों के पत्रकारों ने भी रिपोर्टिंग की.
एक बात कही जा रही है कि बाहर के मुल्कों में श्मशान की रिपोर्टिंग नहीं हुई. यह ग़लत है. पहली लहर के दौर में ट्रंप के न्यूयार्क की हालत ख़राब थी. इतने लोग मरे कि क़ब्रिस्तान कम पड़ गए. क़ब्रिस्तान में जगह की कमी और अंतिम संस्कार के लिए इंतज़ार कर रहे परिजनों को लेकर खूब रिपोर्टिंग हुई है. न्यूयार्क में भी शवों की संख्या कम बताने को लेकर सवाल उठे. न्यूयार्क के प्रशासन ने इस गलती के लिए माफ़ी मांगी और संख्या में सुधार किया.
आप सभी सोशल मीडिया पर मदद मांग रहे थे क्योंकि आपके अपने तड़प कर मर रहे थे, तो क्या आप भारत को बदनाम कर रहे थे ? संघ और बीजेपी के नेता अपनों के तड़प कर मर जाने, बिना इलाज के मर जाने की बात लिख रहे थे, क्या वो भारत को बदनाम कर रहे थे ? जो पत्रकार सरकार की झूठ और उसकी बदइंतज़ामी को रिपोर्ट कर रहा था, क्या वो भारत को बदनाम कर रहा था ? इतनी चिन्ता थी तो सरकार ने लोगों की जान क्यों नहीं बचाई ?
सुब्रतो चटर्जी दानिश सिद्दीकी की तालीबानी गोली से शिकार होकर असमय मौत पर श्रद्धांजलि पेश करते हुए लिखते हैं –
क्या मैं किसी
अमानुष के मुंह से
मेरी हत्या पर
शोक संदेश सुनना चाहूंगा
बिल्कुल नहीं.
मेरी असमय मृत्यु को
ज़लील करने के लिए
ये बहुत ज़्यादा होगा
इसलिए बेहतर है कि
वो नीच मुझे याद न करे
जिसके ख़िलाफ़ लड़ते हुए
असमय मारा गया मैं.
- विशाल यादव, सौमित्र राय एवं रविश कुमार
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