पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
किसी भी धर्म की कुरीतियों का विरोध हमारा कर्तव्य है लेकिन उसका मखौल उड़ाना विरोध का तरीका नहीं है. मखौल उड़ाने से उद्देश्य सफल नहीं होगा. दूरियां बढ़ेंगी, समझ घटेगी. ये बात दोनों पक्षों को समझनी चाहिए. न हिन्दू अपनी देवी की उच्चता साबित करने के लिए महिसासुर को नीचा दिखाए और न ही दलित देवी को नीचा दिखाने के लिए अपशब्दों का प्रयोग करें. सबकी अपनी-अपनी मान्यता है. एक और जहां देवी के अवतार के रूप में दुर्गा को पूजा जाता है, वहीं दूसरी ओर महिषासुर या भैंसासुर के मंदिर भी भारत सरकार द्वारा संरक्षित किये गए हैं. इस शाब्दिक युद्ध में दोनों पक्षों की भावनाएं ही आहत होगी. बल्कि दुर्गा को देवी मानने वालों की ज्यादा होगी क्योंकि इतिहास के आधिकारिक पन्नों में दर्ज आलेख दलितों का पक्ष ज्यादा लेता है (नीचे संदर्भित आलेख के कुछ पहलु दे रहा हूं).
शक्ति के विविध रूपों, यथा योग्यता, बल, पराक्रम, सामर्थ्य व ऊर्जा की पूजा सभ्यता के आदिकालों से होती रही है. न केवल भारत में बल्कि दुनिया के तमाम इलाकों में. दुनिया की पूरी मिथॉलॉजी के प्रतीक देवी-देवताओं के तानों-बानों से ही बुनी गयी है. आज भी शक्ति का महत्व निर्विवाद है. अमेरिका की दादागीरी पूरी दुनिया में चल रही है, तो इसलिए कि उसके पास सबसे अधिक सामरिक शक्ति और संपदा है. जिसके पास एटम बम नहीं हैं, उसकी बात कोई नहीं सुनता, उसकी आवाज का कोई मूल्य नहीं है. गीता उसकी सुनी जाती है, जिसके हाथ में सुदर्शन हो. उसी के धौंस का मतलब है और उसी की विनम्रता का भी. कवि दिनकर ने लिखा है : ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो.’ दंतहीन और विषहीन सांप सभ्यता का स्वांग भी नहीं कर सकता. उसकी विनम्रता, उसका क्षमाभाव अर्थहीन हैं. बुद्ध ने कहा है – ‘जो कमजोर है, वह ठीक रास्ते पर नहीं चल सकता. उनकी अहिसंक सभ्यता में भी फुफकारने की छूट मिली हुई थी. जातक के एक कथा में एक उत्पाती सांप के बुद्धानुयायी हो जाने की चर्चा है. बुद्ध का अनुयायी हो जाने पर उसने लोगों को काटना-डंसना छोड़ दिया. लोगों को जब यह पता चल गया कि इसने काटना-डंसना छोड़ दिया है, तो उसे ईंट-पत्थरों से मारने लगे. इस पर भी उसने कुछ नहीं किया. ऐसे लहूलुहान घायल अनुयायी से बुद्ध जब फिर मिले तो द्रवित हो गये और कहा, ‘मैंने काटने के लिए मना किया था मित्र, फुफकारने के लिए नहीं. तुम्हारी फुफकार से ही लोग भाग जाते.’
भारत में भी शक्ति की आराधना का पुराना इतिहास रहा है लेकिन यह इतिहास बहुत सरल नहीं है. अनेक जटिलताएं और उलझाव हैं. सिंधु घाटी की सभ्यता के समय शक्ति का जो प्रतीक था, वही आर्यों के आने के बाद नहीं रहा. पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में शक्ति के केंद्र अथवा प्रतीक बदलते रहे. आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा, उसके विविध रूप हमारे सामने आये इसीलिए आज का हिंदू यदि शक्ति के प्रतीक रूप में दुर्गा या किसी देवी को आदि और अंतिम मानकर चलता है, तब वह बचपना करता है. सिंधु घाटी की जो अनार्य अथवा द्रविड़ सभ्यता थी, उसमें ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’ शक्ति के समन्वित प्रतीक माने जाते थे. शांति का जमाना था. मार्क्सवादियों की भाषा में आदिम साम्यवादी समाज के ठीक बाद का समय.
सभ्यता का इतना विकास तो हो ही गया था कि पकी ईंटों के घरों में लोग रहने लगे थे और स्नानागार से लेकर बाजार तक बन गये थे. तांबई रंग और अपेक्षाकृत छोटी नासिका वाले इन द्रविड़ों का नेता ही शिव रहा होगा. अल्हड़-अलमस्त किस्म का नायक. इन द्रविड़ों की सभ्यता में शक्ति की पूजा का कोई माहौल नहीं था. यों भी उन्नत सभ्यताओं में शक्ति पूजा की चीज नहीं होती. शक्ति पूजा का माहौल बना आर्यों के आगमन के बाद. सिंधु सभ्यता के शांत-सभ्य गौ-पालक (ध्यान दीजिए शिव की सवारी बैल और बैल की जननी गाय) द्रविड़ों को अपेक्षाकृत बर्बर अश्वारोही आर्यों ने तहस-नहस कर दिया और पीछे धकेल दिया.
द्रविड़ आसानी से पीछे नहीं आये होंगे. भारतीय मिथकों में जो देवासुर संग्राम है, वह इन द्रविड़ और आर्यों का ही संग्राम है. आर्यों का नेता इंद्र था. शक्ति का प्रतीक भी इंद्र ही था. वैदिक ऋषियों ने इस देवता, इंद्र की भरपूर स्तुति की है. तब आर्यों का सबसे बड़ा देवता, सबसे बड़ा नायक इंद्र था. वह वैदिक आर्यों का हरक्युलस था. तब किसी देवी की पूजा का कोई वर्णन नहीं मिलता. आर्यों का समाज पुरुष प्रधान था. पुरुषों का वर्चस्व था. द्रविड़ जमाने में प्रकृति को जो स्थान मिला था, वह लगभग समाप्त हो गया था. आर्य मातृभूमि का नहीं, पितृभूमि का नमन करने वाले थे. आर्य प्रभुत्व वाले समाज में पुरुषों का महत्व लंबे अरसे तक बना रहा. द्रविड़ों की ओर से इंद्र को लगातार चुनौती मिलती रही.
गौ-पालक कृष्ण का इतिहास से यदि कुछ संबंध बनता है, तो लोकोक्तियों के आधार पर उसके सांवलेपन से द्रविड़ नायक ही की तस्वीर बनती है. इस कृष्ण ने भी इंद्र की पूजा का सार्वजनिक विरोध किया. उसकी जगह अपनी सत्ता स्थापित की. शिव को भी आर्य समाज ने प्रमुख तीन देवताओं में शामिल कर लिया. इंद्र की तो छुट्टी हो ही गयी. भारतीय जनसंघ की कट्टरता से भारतीय जनता पार्टी की सीमित उदारता की ओर और अंततः एनडीए का एक ढांचा, आर्यों का समाज कुछ ऐसे ही बदला. फैलाव के लिए उदारता का वह स्वांग जरूरी होता है. पहले जार्ज और फिर शरद यादव की तरह शिव को संयोजक बनाना जरूरी था, क्योंकि इसके बिना निष्कंटक राज नहीं बनाया जा सकता था.
आर्यों ने अपनी पुत्री पार्वती से शिव का विवाह कर सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की. जब दोनों पक्ष मजबूत हो तो सामंजस्य और समन्वय होता है. जब एक पक्ष कमजोर हो जाता है, तो दूसरा पक्ष संहार करता है. आर्य और द्रविड़ दोनों मजबूत स्थिति में थे. दोनों में सामंजस्य ही संभव था. शक्ति की पूजा का सवाल कहां था ? शक्ति की पूजा तो संहार के बाद होती है. जो जीत जाता है, वह पूज्य बन जाता है. जो हारता है, वह पूजक. हालांकि पूजा का सीमित भाव सभ्य समाजों में भी होता है, लेकिन वह नायकों की होती है, शक्तिमानों की नहीं. शक्तिमानों की पूजा कमजोर, काहिल और पराजित समाज करता है. शिव की पूजा नायक की पूजा है. शक्ति की पूजा वह नहीं है. मिथकों में जो रावण पूजा है, वह शक्ति की पूजा है. ताकत की पूजा, महाबली की वंदना.
लेकिन देवी के रूप में शक्ति की पूजा का क्या अर्थ है ? अर्थ गूढ़ भी है और सामान्य भी. पूरबी समाज में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था थी. पश्चिम के पितृ सत्तात्मक समाज-व्यवस्था के ठीक उलट. पूरब सांस्कृतिक रूप से बंग भूमि है, यही भूमि शक्ति देवी के रूप में उपासक है. शक्ति का एक अर्थ भग अथवा योनि भी है. योनि, प्रजनन शक्ति का केंद्र है. प्राचीन समाजों में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जो यज्ञ होते थे, उसमें स्त्रियों को नग्न करके घुमाया जाता था. पूरब में स्त्री पारंपरिक रूप से शक्ति की प्रतीक मानी जाती रही है. इस परंपरा का इस्तेमाल ब्राह्मणों ने अपने लिए सांस्कृतिक रूप से किया.
गैर-ब्राह्मणों को ब्राह्मण अथवा आर्य संस्कृति में शामिल करने का सोचा-समझा अभियान था. आर्य संस्कृति का इसे पूरब में विस्तार भी कह सकते हैं. विस्तार के लिए यहां की मातृसत्तात्मक संस्कृति से समरस होना जरूरी था. सांस्कृतिक रूप से यह भी समन्वय था, पितृसत्तात्मक संस्कृति से मातृसत्तात्मक संस्कृति का समन्वय. आर्य संस्कृति को स्त्री का महत्त्व स्वीकारना पड़ा, उसकी ताकत रेखांकित करनी पड़ी. देव की जगह देवी महत्वपूर्ण हो गयी. शक्ति का यह पूर्व-रूप (पूरबी रूप) था, जो आर्य संस्कृति के लिए अपूर्व (पहले न हुआ) था.
महिषासुर और दुर्गा के मिथक क्या है ? दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक हमने अभिजात ब्राह्मण नजरिये से ही इस पूरी कथा को देखा है. मुझे स्मरण है 1971 में भारत-पाक युद्ध और बंग्लादेश के निर्माण के बाद तत्कालीन जनसंघ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अभिनव चंडी दुर्गा कहा था. तब तक कम्युनिस्ट नेता डांगे सठियाये नहीं थे. उन्होंने इसका तीखा विरोध करते हुए कहा था कि ‘अटल बिहारी नहीं जान रहे हैं कि वह क्या कह रहे हैं और श्रीमती गांधी नहीं जान रही हैं कि वह क्या सुन रही हैं. दोनों को यह जानना चाहिए कि चंडी दुर्गा दलित और पिछड़े तबकों की संहारक थी.’ डांगे के वक्तव्य के बाद इंदिरा गांधी ने संसद में ही कहा था ‘मैं केवल इंदिरा हूं और यही रहना चाहती हूं.’
महिषासुर और दुर्गा की कथा का शूद्र पाठ (और शायद शुद्ध भी) इस तरह है. ‘महिष’ का मतलब ‘भैंस’ होता है. महिषासुर यानी महिष का असुर. असुर मतलब सुर से अलग. सुर का मतलब देवता. देवता मतलब ब्राह्मण या सवर्ण. सुर कोई काम नहीं करते. असुर मतलब जो काम करते हों. आज के अर्थ में ‘कर्मी’. महिषासुर का अर्थ होगा भैंस पालने वाले लोग अर्थात भैंसपालक. दूध का धंधा करने वाला. ग्वाला. असुर से अहुर फिर अहीर भी बन सकता है.
महिषासुर यानी भैंसपालक, बंग देश के वर्चस्व प्राप्त जन रहे होंगे. नस्ल होगी द्रविड़. आर्य संस्कृति के विरोधी भी रहे होंगे. आर्यों को इन्हें पराजित करना था. इन लोगों ने दुर्गा का इस्तेमाल किया. बंग देश में वेश्याएं, दुर्गा को अपने कुल का बतलाती हैं. दुर्गा की प्रतिमा बनाने में आज भी वेश्या के घर से थोड़ी मिट्टी जरूर मंगायी जाती है. भैंसपालक के नायक महिषासुर को मारने में दुर्गा को नौ रात लग गया. जिन ब्राह्मणों ने उन्हें भेजा था, वे सांस रोक कर नौ रात तक इंतजार करते रहे. यह कठिन साधना थी. बल नहीं तो छल. छल का बल. नौवीं रात को दुर्गा को सफलता मिल गयी, उसने महिषासुर का वध कर दिया. खबर मिलते ही आर्यों (ब्राह्मणों) में उत्साह की लहर दौड़ गयी. महिषासुर के लोगों पर वह टूट पड़े और उनके मुंड (मस्तक) काटकर उन्होंने एक नयी तरह की माला बनायी. यही माला उन्होंने दुर्गा के गले में डाल दी. दुर्गा ने जो काम किया, वह तो इंद्र ने भी नहीं किया था. पार्वती ने भी शिव को पटाया भर था, संहार नहीं किया था. दुर्गा ने तो अजूबा किया था. वह सबसे महत्त्वपूर्ण थीं – सबसे अधिक धन्या शक्ति का साक्षात अवतार ! (प्रेमकुमार मणि. हिंदी के प्रतिनिधि कथाकार, चिंतक व राजनीति कर्मी. जदयू के संस्थापक सदस्यों में रहे. इन दिनों बिहार परिवर्तन मोर्चा के बैनर तले मार्क्सवादियों, आंबेडकरवादियों और समाजवादियों को एक राजनीति मंच पर लाने में जुटे हैं. उनसे manipk25@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)
इस तरह प्रेमकुमार मणि के आलेख में हमने पढ़ा कि महिषासुर को मानने वालों का भी अपना एक मत है इसलिए तो हमने प्रथम पंक्ति में ही कह दिया था कि ‘किसी भी धर्म की कुरीतियों का विरोध हमारा कर्तव्य है लेकिन उसका मखौल उड़ाना, विरोध का तरीका नहीं है. मखौल उड़ाने से उद्देश्य सफल नहीं होगा. दूरियां बढ़ेंगी, समझ घटेगी.’ इसलिए न ही दुर्गा को देवी मानने वाले महिषासुर को नीचा दिखाए और न ही महिषासुर को मानने वाले देवी का मखौल उड़ाए !
अंत में आपको बता दूं कि भारत सरकार द्वारा भैंसासुर या महिषासुर के प्राचीन मंदिरों को संरक्षित करने का सीधा-सा तात्पर्य ये है कि भारत सरकार आधिकारिक तौर पर इस तथ्य से इत्तेफ़ाक़ रखती है और मानती है कि भैंसासुर दलितों के इतिहास में उनके मुखिया थे. मनुस्मृति का संसद में इस तरह खुलेआम दुर्गा का पक्ष लेना साफ दर्शाता है कि भाजपा सरकार देश में हिंदुत्व को थोपने की कोशिश कर रही है. मोदी सरकार निरपेक्ष नहीं है बल्कि योजनाबद्ध तरीके से सभी विरोधियों को या अपने से भिन्न मत मानने वालों को ख़त्म करने की साजिश भी कर रही है. ब्राह्मणों का इतिहास किसी से अब छुपा नहीं है कि समय-समय पर उन्होंने इंद्र, अग्नि, सोम, वरुण, कुबेर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दुर्गा, काली आदि के रूप में अपने ईश्वरीय प्रतिकृतियों में परिवर्तन करते रहे हैं ताकि अपने से भिन्न मत वालों का अपने अधीन समावेश कर सके और इसी क्रम में अनेक बार उन्होंने अपना इतिहास और धार्मिक ग्रन्थ भी बदल-बदल कर लिखे है.
फोटो में भारत सरकार द्वारा संरक्षित भैंसासुर के कुछ मंदिरों के बाहर लगे बोर्ड को दिखाया गया है. इस तरह के सैंकड़ों मंदिर पुरे भारत में है, चाहे वो तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारत का क्षेत्र हो या लखनऊ जैसा उत्तरी भारत का क्षेत्र या फिर इंदौर जैसा मध्य भारत का क्षेत्र. हमें ये समझना चाहिए कि अपनी मान्यता के लिए दूसरे को आहत करना उचित नहीं. न ही हिन्दू या ब्राह्मण होने से आपका धर्म ज्यादा प्रभावित हो जायेगा और न ही दलित या पिछड़े वर्ग के होने से मूल निवासियों का धर्म कमजोर होगा. उच्चता की भावना को त्याग कर अगर समरसता की भावना से चलेंगे तो दूसरे भी आपको इज्जत देंगे लेकिन दूसरे पर आक्षेप करेंगे या उंगली उठाएंगे, तो याद रखिये, एक उंगली दूसरे की तरफ उठती है तो बाकी की तीन अपनी तरफ ही उठती है.
अचानक कहीं पढ़ी एक कहानी याद आ गयी. एक देश था. बड़ा अच्छा सा नाम था. चलिये भारत रख लेते है ! वहां एक जनजाति रहती थी. सीधी-साधी, मेहनतकश पर कबीलों में बंटी हुई. गाय-भैंस पालते थे. नाम ? इनका नाम असुर या राक्षस रख देते हैं. वैसे असुर और राक्षस में जरा अंतर है. असुर कबीलों के आम नागरिक होते थे, जबकि ‘राक्षस’ असुरों का वह समुदाय था, जो रक्षा करता था अर्थात रक्षक दल. यही शब्द अपभ्रंशित होकर राक्षस हो गया. इसी तरह असुर पहले अहुर. फिर अहीर बना. और इस जाति के यौद्धा ही ‘अनार्य’ कहलाये, जब एक बर्बर, हिंसक, कुटिल जाति बाहर से आयी. रंग के गोरे, सुवर्ण अर्थात सवर्ण, सुर ब्राह्मण या आर्य कुछ भी कह लीजिये. इन्होंने एक-एक कर कई कबीलों पर आक्रमण किया और एक बड़े भू-क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया.
ऐसे में असुरों के एक कबीले के एक बलशाली और पराक्रमी सरदार (नाम में क्या रखा है, ‘महिषासुर’ मान लीजिये) ने सभी कबीलों के रक्षक दलों को संगठित कर एक विशाल सेना बनाई, जिसे ‘राक्षस सेना’ कहा गया और सवर्ण जाति पर हमला कर दिया. सवर्ण जातियां इस संगठित रक्षक दल के सामने टिक नहीं पायी और बुरी तरह पराजित हुई. एक ओर जहां असुरों ने महिषासुर के नेतृत्व में अपनी संगठित शक्ति को पहचाना. वहीं दूसरी ओर संघर्ष में बड़ी संख्या में मारे गये अपने सगे-संबंधियों के कारण सवर्णों में श्राद्ध व पिण्डदान का कार्य किया जा रहा था. यही नवरात्रों से पूर्व श्राद्ध के रिवाज में आज भी जीवित है. यह भान होने पर कि असुरों की संगठित शक्ति को बल से जीतना संभव नहीं, छल और कुटिलताओं का सहारा लिया गया.
एक सवर्ण और रूपमती स्त्री को इस्तेमाल किया गया, जिसने महिषासुर को अपने प्रेम में आसक्त कर लिया. जो विषयों में आसक्त कर देने वाली स्त्री समुदाय – ‘विषया’ से थी. यही शब्द अपभ्रंशित होकर ‘वैश्या’ बना. इसी कारण वैश्यालय के आंगन की मिट्टी के बिना देवी की प्रतिमा पूर्ण नहीं मानी जाती.वह 9 दिनों तक महिषासुर के दुर्ग में रही और हर रात उसे मारने का प्रयास करती रही. जैसे-जैसे रात आती ब्राह्मण, सुर, आर्य, सवर्ण उसकी सफलता की कामना करते और उसके लिये प्रार्थना करते, यही नवरात्रों का रात्रि-पूजन है. नौवीं रात्रि को सवर्णों को स्पष्ट संदेश मिल चुका था कि उस रात महिषासुर की हत्या अवसर मिलते ही कर दी जायेगी. सो सवर्ण सारी रात उसकी सफलता की कामना की, प्रार्थना और आक्रमण का इंतजार करते रहे. यही निशा पूजन का मूल है. आखिरकार नवें दिन की देर रात पराक्रमी और न्यायप्रिय महिषासुर की छलपूर्वक उस स्त्री द्वारा हत्या कर दी गई.
महिषासुर की हत्या के समाचार के साथ ही सवर्णों ने असुरों पर रात्रि में ही आक्रमण कर दिया. नेतृत्व के अभाव में असुर पराजित हुये और सवर्ण विजयी.असुरों के दुर्ग को फतह करने में निर्णायक भूमिका निभाने के कारण उस स्त्री को ‘दुर्गा’ कहा गया. चूंकि इससे पूर्व पार्वती नाम की एक अन्य सवर्ण कन्या ने एक शक्तिशाली असुर सरदार ’शिव’ से विवाह कर असुर शक्ति को कमजोर किया था, तो इसे पार्वती का रूप माना गया. सवर्णों की बर्बर कार्रवाहियों में बड़ी संख्या में असुर बस्तियां जला दी गयी. आम असुर नागरिकों को निशाना बनाया गया. औरतों का बलात्कार किया गया और बड़े पैमाने पर बच्चों को भी मौत के घाट उतार दिया गया. इन बर्बर कार्रवाहियों से घृणा और आत्मग्लानि से व्यथित, उस स्त्री ने जिसे दुर्गा कहा गया था, नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली, जिसे विसर्जन का रूप देकर सवर्णों द्वारा महिमामंडित कर दिया गया.
जानिए मैकासुर अर्थात महिषासुर के विषय में – ’महिषासुर मूवमेंट – डीब्राह्मणायजिंग अ मिथ’. कुछ इतिहासकारों ने अपनी किताबों में संकेत दिये हैं कि महिषासुर भारत के बहुजन समुदायों के मिथकीय जननायक थे. डी. डी कोसांबी ने उनका क्षेत्र बुंदेलखंड का महोबा बताया है. महोबा में महिषासुर की स्मृतियां, लोक-परंपराओं में अब भी जीवंत हैं. महिषासुर को वहां मैकासुर, कारस देव, ग्वाल बाबा आदि नामों से जाना जाता है. महोबा क्षेत्र के लगभग हर गांव में उनका पूजा होता है. उनकी मूर्तियां नहीं होतीं, मिट्टी के टीले होते हैं. ब्राह्मण-पंरपरा के विपरीत, महिषासुर मंदिर में नहीं निवास करते, बल्कि खुले आसमान के नीचे उनका चबूतरा होता है. देश के लगभग सभी हिस्सों में महिषासुर से जुडी पंरपराएं मिलती हैं. देखिए महोबा में मौजूद महिषासुर को.
बुंदेलखंड के महोबा से 70 किमीदूर चौका-सोरा गांव स्थित भारतीय पुरात्तव विभाग द्वारा संरक्षित है महिषासुर स्मारक मंदिर. पुरात्तव विभाग ने इसके निर्माण काल का निर्धारित नहीं किया है लेकिन इसकी प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है. पुरातत्व विभाग द्वारा लगाये गये साइनबोर्ड के अनुसार इसी क्षेत्र में स्थित खजुराहो के मंदिर को क्षति पहुंचाने पर जुर्माना है – 5 हजार रूपये अथवा तीन माह का कारावास (अथवा दोनों), जबकि महिषासुर स्मारक मंदिर को क्षति पहुंचाने पर जुर्माना है – 1 लाख रूपये अथवा दो वर्ष की जेल (अथवा दोनों). ध्यातव्य है कि खजुराहो के मंदिर लगभग 1000 वर्ष पुराने हैं.
महोबा के कीरत सागर के निकट स्थित ‘मैकासुर’ (महिषासुर) का एक स्थान है. लोकमान्यता है कि महिषासुर बीमार पशुओं को चंगा कर देते हैं. पशु का पहला दूध भी उन्हें ही अर्पित किया जाता है. महोबा की पशुपालक व कृषक जातियां महिषासुर को अपना पूर्वज मानती हैं. महोबा से लगभग 30 किलोमीटर दूर कुलपहाड क्षेत्र के मोहारी गांव में है मैकासुर मिट्टी का स्थल. इसके ठीक बगल में ग्रामीणों ने उनका एक पक्का चबूतरा भी बना दिया है. परंपरागत रूप से महिषासुर की मूर्तियां नहीं होतीं हैं. मोहारी गांव में नवनिर्मित चबूतरा पर भी उनकी मूर्ति नहीं है. चबूतरा पर उनके संगी भैंस और उनके दूसरे रूप ‘कारस देव’ का संगी मोर मौजूद हैं.
गोखार पहाड (नाथपंथ के प्रसिद्ध कवि गोरखनाथ व उनके शिष्यों की साधना स्थली), महोबा के पास स्थित मैकासुर चबूतरा के पास स्थानीय शंकर मंदिर के पुजारी घनश्याम दास त्यागी से बातचीत करते प्रमोद रंजन त्यागी बताते हैं कि इस क्षेत्र के बहुजन समुदायों में महिषासुर की व्यापक जन मान्यता है. इस क्षेत्र में महज 25-30 वर्ष पहले तक दुर्गोत्सव नहीं मनाया जाता था. यहां भाद्रपद की षष्ठी (छठवें दिन) को महिषासुर की विशेष पूजा हाती है, जिसमें ‘भाव खेला’ जाता है तथा उन्हें दूध से बने पकवान, नारियल आदि अर्पित किये जाते हैं.
डिस्क्लेमर : दुर्गा कथा के शूद्र पाठ को लेकर प्रेमकुमार मणि का यह आलेख काफी उत्तेजक तथ्यों के साथ हमारे सामने रखता है. यह आलेख फारवर्ड प्रेस के नये अंक का आमुख आलेख है. हम वहां से कुछ अंश कॉपी कर रहे हैं. शीर्षक में हमने थोड़ी छूट ले ली है.
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