रामचन्द्र शुक्ल
इंसान के भीतर के शैतान को जगाना बहुत आसान है, पर इंसान के भीतर इंसानियत को जगाना बहुत मुश्किल से भरा काम होता है. यह काम साहित्य करता है, कलाएं करती हैं, फिल्में करती हैं तथा शिक्षा करती है.
पिछले 6 सालों से देश के सत्ताधारी दल तथा उसके जाए संपोले संगठनों द्वारा देश के बहुसंख्यक समुदाय के दिलों में तमाम माध्यमों से शैतान को जगाने की कोशिश की जा रही है.
ऐसे में देश की इंसानियत की पक्षधर व धर्मनिरपेक्ष ताकतों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी है. साम्प्रदायिक सद्भाव कायम करने के लिए देश के तमाम सपूतों ने अपने जान की बाजी लगा दी थी. गणेश शंकर विद्यार्थी, महात्मा गांंधी तथा इंदिरा गांधी का जीवन साम्प्रदायिक ज़हनियत वालों ने ले लिया.
कमलेश्वर के ‘सारिका’ के संपादन काल में ‘गर्दिश के दिन’ शीर्षक से हिंदी, उर्दू, मलयालम, उड़िया तथा गुजराती के कुछ लेखक के संक्षिप्त आत्मकथ्य प्रकाशित हुए थे, इनमें हिंदी के मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, शिव प्रसाद सिंह, कृष्णा सोबती, भीष्म साहनी, हरि शंकर परसाई, राही मासूम रजा तथा खुद कमलेश्वर के आत्मकथ्य थे. इन्हें पढ़कर यह जाना जा सकता है कि जिंदगी की किन गर्दिशों ने किसी संवेदनशील इंसान को कलम उठाने के लिए मजबूर कर दिया था ? कुछ ने तो यहांं तक लिखा कि अगर वे लेखन के माध्यम से अपने भावों व विचारों को शब्द न दे पाते तो उनके लिए अपने जीवन की रक्षा करना बेहद मुश्किल हो जाता.
मोहन राकेश के सारिका के संपादन काल में प्रकाशित ‘आइने के सामने’ धारावाहिक रचनाओं की श्रृंखला के अंतर्गत मुझे अमृतलाल नागर तथा राजेन्द्र सिंह बेदी के लेख आज तक याद हैं. बेदी ने लिखा था कि एक ही इंसान के भीतर देवता भी मौजूद होता है तथा शैतान भी. वह बहुत दानी भी हो सकता है तथा बहुत कंजूस भी. उसकी शख्सियत इकहरी नहीं होती बल्कि मिली-जुली भावनाओं व विचारों से बनी होती है. हालात उसे जान बचाने वाला तथा किसी की जान ले लेने वाला, दोनों ही बना सकते हैं.
बेगम अनीस किदवई की किताब ‘आजादी की छांंव में’ के एक-एक पृष्ठ को पढ़ना एक बहुत त्रासद मानसिक यातना से गुजरना है. बेगम अनीस किदवई, जिनके पति 15 अगस्त, 1947 के दो महीनों के भीतर ही साम्प्रदायिक दंगों में अपना बलिदान दे चुके थे, के द्वारा दिल्ली के दंगा पीड़ितों के लिए कई महीनों तक के लिए बेटी सहित राहत कार्य में लग जाना बहुत बड़े इंसानी जज्बे की दरकार रखता है. इस किताब का एक-एक सफा पढ़ते हुए दिल खून के आंसू रोता रहता है.
इस किताब को पढ़ते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि 1947 की तथाकथित आजादी की कितनी बड़ी कीमत दोनों नये मुल्कों के आम लोगों को चुकानी पड़ी थी. जो सामर्थ्य वाले थे वे सकुशल भारत आए या पाकिस्तान चले गये और नयी जगहों पर जाकर अपनी जड़ें जमा लीं, किंतु दोनों नये मुल्कों का जो मेहनतकश व मजलूम तबका था उनके लिए तो जिंदगी मौत से भी बदतर बनकर रह गयी थी.
आज देश में साम्प्रदायिक सद्भाव को बनाए रखने में मदद करने वालों की फिर से बेहद जरूरत है क्योंकि यह आज फिर दांव पर लगा हुआ है. बेगम अनीस किदवई की किताब ‘आजादी की छांंव में’ पढ़ते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि भारत विभाजन के बाद अपने आबाए मुल्क हिंदुस्तान में रुकने का फैसला करने वाले देश के कई करोड़ मुसलमान किस तरह से साम्प्रदायिक ताकतों के निशाने पर थे, पर हालात को संभाला गया. लोगों को समझा-बुझाकर फिर साथ रहने के लिए राजी किया गया.
इसी समझाने-बुझाने तथा हिंदुओं व मुसलमानों को साथ-साथ रहने के लिए राजी करने की कोशिशों की दास्तान है ‘आजादी की छांंव में.’ यह दास्तान पढ़ना तथा उन कोशिशों को, जो हिंदुओं तथा मुसलमानों को साथ-साथ अमन व भाई-चारे से रहने के लिए की गयी, के बारे में जानना आज की तारीख में पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि 1947 में तो यह काम अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने अपने निहित स्वार्थ के लिए किया था, परंतु आज तो 1947 के लगभग 73 साल बाद देश का सत्ताधारी दल तथा उसके चट्टे-बट्टे यह कार्य योजना बनाकर अपने छिपे एजेंडे के तहत कर रहे हैं.
हमारे पुरखे अपने समाज व देश के आर्थिक पक्ष तथा कर्ज व देश के लोगों की मेहनत की कमाई के विदेश चले जाने के प्रति अपने लेखों/कविताओं में चिंता लगातार जाहिर करते रहे.
भारतेंदु हरिश्चंद्र (अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी, पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी), बाल मुकुंद गुप्त (शिव शम्भु के चिट्ठे), प्रताप नारायण मिश्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी (सम्पत्ति शास्त्र), आचार्य रामचंद्र शुक्ल (‘मोटे आदमियों, तुम अंदेशे से ही थोड़े दुबले हो जाते तो जाने कितनी ठठरियों पर ठाठ चढ़ जाता) ने समाज के आर्थिक समस्याओं की अनदेखी कभी नहीं की.
प्रेमचंद (जिनका पूरा कथा साहित्य सूदखोर महाजनों से परेशान किसानों व मजदूरों की व्यथा कथा कहता है) व निराला (सरोज स्मृति,बादल राग- ‘चूस लिया है उसका सार, हाड़ मात्र ही है आधार, राजे ने अपनी रखवाली की तथा कुकुरमुत्ता (डाल पर इतरा रहा है कैपीटलिस्ट) तथा गणेश शंकर विद्यार्थी आदि समाज की आर्थिक व्यवस्था व कर्ज की समस्या पर निरंतर लिखा.
बाद में हिंदी के प्रगतिशील कवियों व कथाकारों- मुक्ति बोध, नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल, फणीश्वर नाथ रेणु तथा राम विलास शर्मा आदि ने भी बहुसंख्यक मेहनतकश जनता-मजदूरों व किसानों की आर्थिक बदहाली व उनके शोषण पर निरंतर लिखा.
1990 के बाद देश में नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह तथा प्रणव मुखर्जी की चांडाल तिकड़ी ने विश्व व्यापार संगठन की शर्तों को मानकर देश की अर्थव्यवस्था को विश्व बैंक तथा आइएमएफ के हाथ गिरवी रख दिया. अब तो आर्थिक मामलों पर लिखना आउट आफ फैशन माना जाने लगा है हिंदी में.
हमारे वर्तमान हिंदी के रचनाकार देश के बहुसंख्यक समाज के सामने मौजूद गरीबी शोषण व कर्ज की समस्या व पूंजी के देश के कुछ एक कारपोरेट के हाथ में केंद्रीकृत होते जाने की साहित्य में अनदेखी कर रहे हैं. हिंदी का साहित्य जितना देश के आम लोगों की समस्याओं से आज कटा हुआ है, उतना इसके पहले कभी नहीं रहा.
आज वह अमन, भाईचारा और वह आपसी मोहब्बत जो कभी हिंदुस्तानी तहजीब की खूबसूरती तथा उसकी जान हुआ करता थी – दांव पर लगी हुई है. कुछ जहरीले दिमाग वाले उस कश्ती को फिर से मझधार की ओर ढकेल रहे हैं, जो बहुत ही मुश्किलों के बाद किनारे आकर लगी थी. इस कश्ती को डूबने से बचाना ही होगा – अन्यथा हम जितना आगे बढे हैं, उतना ही पीछे लौट जाएंगे.
1947 के भारत विभाजन के लिए मुख्य रूप से ‘बांटो और राज करो की नीति’ की बदौलत शासन करने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासक जिम्मेदार थे परंतु इसके लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ ही मोहनदास करमचंद गांंधी भी उतने ही जिम्मेदार थे, जितनी कि मुस्लिम लीग आरएसएस तथा हिंदू महासभा था. खैरात में मिलने वाली हर चीज के साथ देने वाले का कोई न कोई स्वार्थ या छिपा हुआ एजेंडा अवश्य जुड़ा होता है. यही बात हिंदुस्तान को मिली आजादी पर भी पूरी तरह लागू होती है.
इस सत्ता हस्तांतरण से जुड़े कई सवाल आज भी जेहन में अक्सर गूंजते रहते हैं जिनका जबाब काफी कोशिशों के बाद भी हासिल नही हो पाता. कुछ बिंदु निम्नलिखित हैं :
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मोहनदास करमचंद गांंधी द्वारा देश के नस्ल के आधार पर विभाजन के साथ ब्रिटिश उपनिवेशवाद के साथ आजादी की शर्त क्योंकर मानी गयी ?
- अगर यह करना ही था तो पहले ऐलान कर दिया जाता कि हिंदुस्तान का बंटवारा नस्ली आधार पर होने जा रहा है इसलिए देश के जिस हिंदू या मुसलमान को जहांं जाकर बसना हो, वह पहले ही जाकर बस जाए, तब आजादी की घोषणा की जाएगी. ऐसा न करके 15 अगस्त, 1947 की आधी रात को आजादी की घोषणा की गयी. आखिर यह काम आधी रात को क्यों किया गया ?
- विभाजन के बाद भारत के हिस्से में रहने का निर्णय करने वाले मुसलमानों की तथा पाकिस्तान में रूकने का निर्णय करने वाले हिंदुओं की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किया गया ? क्यों साम्प्रदायिक उन्मादियों को खुलकर खेलने दिया गया, जिसमें लाखों बेगुनाह मुसलमान तथा हिंदू मारे गये ? औरतों को लूट कर उनका धर्म परिवर्तन किया गया तथा हजारों बच्चों की जान ले ली गयी ?
- इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि कांग्रेस में भी उतने ही साम्प्रदायिक ज़हनियत के लोग भरे हुए थे जैसे कि वर्तमान समय में सत्ताधारी दल में दिख रहे हैं.
- क्या सार्वजनिक तौर पर हिंदू कर्मकांड तथा पूजा प्रार्थना करने व कराने वाले मोहनदास करमचंद गांंधी तथा कांग्रेसी नेताओं के जेहन में यह बात पहले से ही थी कि भारत में रहने रहने का निर्णय करने वाले मुसलमानों तथा पाकिस्तान में रहने का निर्णय करने वाले लोगों के संबंध में यह मत स्थिर हो चुका था कि भारत में मुसलमान तथा पाकिस्तान में हिंदू दोयम दर्जे के नागरिक बन कर रहेंगे-जैसा कि बाद के परिदृश्य से सच साबित हो रहा है ?
ये सवाल यद्यपि बेहद तल्ख सवाल हैं पर इनके उत्तर आज तक दोनों मुल्कों के हुक्मरान जनता को दे नही सके हैं.
नस्लवादी सोच पर आधारित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एन आर सी) के जिन्न को फिर से डिबिया से बाहर निकाला जा रहा है, देश के वर्तमान दक्षिणपंथी शासकों द्वारा. यह बहुत चिंताजनक है. इसके अंतर्गत 1971 में बंगला देश मुक्ति युद्ध के समय बंगलादेश से असम में आकर बस गए लगभग 40 लाख लोगों को भारत से निकाल कर बंगलादेश वापस भेजने की बात की जा रही है, इसमें हिन्दू व मुसलमान दोनों हैं पर 90% से ज्यादा संख्या मुसलमानों की है.
पर सवाल यह उठता है कि असम से ही क्यों ? त्रिपुरा व पश्चिम बंगाल से क्यों नही, जहांं 1971 में तमाम बंगलादेशी शरणार्थी आकर बस गए ? यह इतिहास की गति को पीछे ढकेलने की कोशिश है. इस तर्क के आधार पर तो पिछले 50 सालों में दुनिया के दूसरे देशों में जाकर बसे भारतीयों को भी उन देशों द्वारा अपने देश से निकालकर भारत वापस भेज देना चाहिए. इन आप्रवासी भारतीयों में कई लाख लोग ऐसे भी हैं जो अरब व अफ्रीकी देशों में जाकर बस गए हैं.
अभी पिछले दो तीन सालों से सीरिया में चल रहे गृह युद्ध के कारण कई लाख लोग विस्थापित होकर यूरोपीय देशों में जाकर बसे हैं, जिन्हें जर्मनी जैसे देशों ने मानवीयता के आधार पर शरण दी है. इस तर्क के आधार पर तो फिर जो भारतीय पिछले 50 सालों में यूरोप, आस्ट्रेलिया, कनाडा व अमेरिकी देशों में जाकर बसे हैं व अपनी रोज़ी रोटी कमा रहे हैं, उन्हें भी संबंधित देशों द्वारा निकालकर भारत वापस भेज देना चाहिए.
1947 में भारत विभाजन की त्रासदी के समय कितने लोग विस्थापित होकर भारत से पाकिस्तान व बंगला देश को गए तथा कितने इन देशों से भारत को आए इसका कोई आंकड़ा या हिसाब किताब नहीं है. जैसी त्रासदी 1947 का भारत विभाजन था, वैसी ही त्रासदी 1971 में पाकिस्तान का विभाजन था, जिसके फलस्वरूप एक नया देश बंगला देश बना. इस विभाजन में भारत सरकार व उसकी सेना की मुख्य भूमिका थी. युद्धों के कारण दुनिया में अन्य देशों में भी विस्थापन हुए हैं. प्रथम विश्व युद्ध व दूसरे विश्व युद्ध के फलस्वरूप दुनिया के करोड़ों लोग विस्थापित होकर जहां व जिस देश में जगह व ठौर ठिकाना मिला, वहां जाकर बस गए और उस देश के नागरिक बन गए.
यह खेल यूरोप के कुछ देश व अमेरिका पहले खेल चुके हैं, जिसमें नस्ल के आधार पर इजरायल जैसे देश का निर्माण हुआ और यहूदियों को वहां ले जाकर बसाया गया, पर क्या यूरोप व अमेरिका में रह रहे सभी यहूदी इजरायल में आकर बस चुके हैं ? नस्ल व धर्म के आधार पर मनुष्यता व मनुष्यों का विभाजन हमेशा विनाशकारी रहा है. जाने कितने युद्ध धर्म ध्वजारोहण के नाम पर अब तक लड़े जा चुके हैं तथा जाने कितने इंसानों की बलि ले ली है इन युद्धों ने. इसलिए बेहतर यही होगा कि इतिहास की गति को पीछे की ओर मोड़ने की कोशिश न हो तथा मनुष्य व मनुष्यता को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जाए.
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