जगदीश्वर चतुर्वेदी
आज (13 अप्रैल) फिल्म अभिनेता बलराज साहनी की पुण्यतिथि है. साम्यवादी विचारधारा के मुखर समर्थक साहनी जनमानस के अभिनेता थे जो अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों को पर्दे के पात्र से भावनात्मक रूप से जोड़ देते. जब पर्दे पर वह अपनी ‘दो बीघा ज़मीन’ फ़िल्म में ज़मीन गंवा चुके मज़दूर, रिक्शाचालक की भूमिका में नज़र आए तो कहीं से नहीं महसूस हुआ कि कोलकाता की सड़कों पर रिक्शा खींच रहा रिक्शाचालक शंभु नहीं बल्कि कोई स्थापित अभिनेता है.
दरअसल पात्रों में पूरी तरह डूब जाना उनकी खूबी थी. यह काबुली वाला, लाजवंती, हकीकत, दो बीघा ज़मीन, धरती के लाल, गरम हवा, वक्त, दो रास्ते सहित उनकी किसी भी फ़िल्म में महसूस किया जा सकता है. भारतीय सिनेमा में बलराज सहानी को सामाजिक फिल्मों का पितामाह माना जाता है. पत्रकारिता से लेकर रंगमंच और अभिनय तक उन्होंने जिंदगी में कई किरदारों को बखूबी निभाया है. अभिनय के साथ-साथ उन्होंने जिंदगी में पत्रकार, एक्टिविस्ट, रंगकर्मी जैसे कई असल किरदार निभाए. 25 साल के अपने अभिनय की दुनिया में 125 से अधिक फिल्मों में काम किये हैं.
साहित्यकार के रुप में
बलराज साहनी बेहतरीन साहित्यकार भी थे जिन्होंने ‘पाकिस्तान का सफ़र’ और ‘रूसी सफरनामा’ जैसे चर्चित यात्रा वृतांतों की रचना की, जिनमें उन देशों की राजनीतिक, भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थतियों का शानदार चित्रण किया गया है.
स्त्री संबंधी दृष्टिकोण
बलराज साहनी के अभिनय और अभिनय में व्यक्त कलाकौशल और भाव-भंगिमा पर अनेक बार बातें हुई हैं. आज भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो उनकी फिल्मों के प्रशंसक हैं. लेकिन बलराज साहनी के लेखन पर हिंदी में कोई चर्चा नहीं मिलती, जबकि उनके समग्र में उनका समूचा लेखन मौजूद है. साथ ही उनकी पत्नी संतोष साहनी का भी समग्र लेखन मौजूद है. इस समग्र को ‘बलराज-संतोष साहनी समग्र´ (1994) हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, ने छापा और इसका संपादन किया डा. बलदेवराज गुप्त ने.
स्त्री संबंधी उनके नजरिए की सबसे अच्छी बात यह है कि वे आदर्श स्त्री के मानक को नहीं मानते. ´नारी और दृष्टिकोण´(1965) नामक निबंध में वे परंपरागत स्त्री की धारणा को भी नहीं मानते. उन्होंने स्त्री संबंधी अनेक पहलुओं पर विचार करने बाद यह लिखा ‘अब तक आदर्श भारतीय नारी की कल्पना करना असंभव है.’ (पृ.263).
इस प्रसंग में साहनी ने लिखा, ‘पुरूष ने स्त्री को अपनी शारीरिक, मानसिक और कलात्मक भूख मिटाने का साधन समझ रखा है. सदियों से पुरुष को रिझाना ही स्त्री का लक्ष्य बना हुआ है – कभी मां के रुप में, कभी बहन के रुप में, कभी पत्नी के रुप में.’
सुंदरता के जन प्रचलित रूपों को चुनौती देते हुए लिखा, ‘आदर्श भारतीय नारी का सुन्दर और सुडौल होना हर हालत में जरूरी है. भला असुन्दर होकर वह ‘आदर्श’ नारी कैसे कहला सकती है ! सुन्दरता को मापने का मेरे पास कोई निजी पैमाना नहीं है.’
इसी लेख में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही, उन्होंने लिखा, ‘अगर हमारा दृष्टिकोण प्रजातंत्रवादी है तो इस बात की ओर से आंखें नहीं मूंदी जा सकती कि स्त्री की सुन्दरता तभी निखर सकती है, जब उसे खाने के लिए खुराक मिले, पहनने के लिए अच्छे कपड़े मिलें और साफ-सुथरा रहने की सहूलियतें मिलें. भारतीय स्त्रियों की बहुसंख्या इन बुनियादी जरूरतों से वंचित है.’
उन्होंने यह भी लिखा, ‘शारीरिक दृष्टिकोण से अगर मैं किसी आदर्श स्त्री का चुनाव करना चाहूं तो यह अल्पसंख्यक वर्ग की स्त्री होगी. ऐसी स्त्री पूरे भारत की स्त्रियों की प्रतिनिधि कैसे हो सकती है ?’
धर्म और ईश्वर
बलराज साहनी उन चंद अभिनेताओं में हैं जो खुलकर कहते हैं कि मैं ईश्वर की सत्ता नहीं मानता. आजकल हालात यह हैं कि फिल्म रिलीज के दिन या पहले अभिनेता-अभिनेत्रियां मंदिरों और दरगाहों पर मत्था टेकते रहते हैं, हिंदी फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्रियां सार्वजनिक मसलों पर बोलने से डरते हैं. कलाकार की इस समाज-विमुखता को किसी भी तर्क से स्वीकृति नहीं दी जा सकती.
हमारे यहां हालात इतने खराब हैं कि अभिनेता-अभिनेत्री हमेशा पापुलिज्म के दवाब में रहते हैं. ऐसा करके वे कला की कितनी सेवा करते हैं यह हम नहीं जानते लेकिन उनका सामाजिक-राजनीतिक सवालों से किनाराकशी करना अपने आपमें नागरिक की भूमिका से पलायन है.
बलराज साहनी का एक निबंध है – मेरा दृष्टिकोण. इसमें उन्होंने साफ लिखा है – ‘मैं ईश्वर को बिलकुल नहीं मानता.’ जो लोग आए दिन धर्म और ईश्वर के नाम पर समझौते करते रहते हैं और धर्म की भूमिका की अनदेखी करते हैं, उनके लिए यह निबंध जरूर पढ़ना चाहिए. साहनी ने लिखा, ‘एक नास्तिक के लिए आस्तिकता के साथ जरा-सा भी समझौता करना खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि आज के जमाने में धर्म एक ऐसी व्यापारिक संस्था बन गया है कि उसके ‘सेल्ज़मैन’ हर तरफ भागे-दौड़े फिर रहे हैं, जिनसे अपने-आपको बचाये रखने के लिए हर समय चौकन्ना रहने की जरूररत है.’
बलराज साहनी घोषित मार्क्सवादी थे और मार्क्सवाद के प्रति अपनी आस्थाओं को उन्होंने कभी नहीं छिपाया उन्होंने लिखा – ‘मैं मार्क्सवाद को दर्शनशास्त्र की सर्वोच्च उपलब्धि मानता हूं. मार्क्सवाद के अनुसार सृष्टि ही वास्तविक सत्य है और उसे अपने विकास के लिए किसी बाह्य आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है. और सृष्टि को समझने–बूझने के लिए विज्ञान ही सबसे अधिक सार्थक साधन है, धर्म या अध्यात्म नहीं.’
आजकल जो लोग प्राचीनकाल में इंटरनेट और विज्ञान आदि की नई-नई खोजें पेश कर रहे हैं, उस तरह के विचारकों को केन्द्र में रखकर लिखा, ‘अध्यात्मवादियों, योगियों, ज्योतिषियों और दर्शनशास्त्रियों ने सृष्टि को लेकर पूर्ण रुप से समझने के जो दावे किए हैं, वे मुझे हास्यजनक प्रतीत होते हैं.’
इन दिनों भारत के मध्यवर्ग से लेकर साधारण जनता तक में संतों- महंतों के पीछे भागने की प्रवृत्ति नजर आ रही है।इन संस्थाओं के बारे में साहनी ने लिखा ´मैं संस्थापित धर्मों और मत-मतान्तरों का विरोधी हूँ,और मेरा ख्याल है कि इन धर्मों के जन्मदाता भी संस्थापित धर्मों के उतने ही विरोधी थे। महापुरुषों के विशाल चिन्तन को किसी सीमित घेरे में बांधकर लोगों को पथभ्रष्ट करना प्राचीन काल से शासकवर्ग की साजिश चली आ रही है।´
‘संस्थापित धर्मों से स्वतंत्र रहने वाले मनुष्य के विचारों में स्वतंत्रता आ जाती है और वह बुद्ध, ईसा, मुहम्मद और नानक जैसे धार्मिक महापुरुषों को भी प्लेटो, सुकरात, अरस्तू, शंकर, नागार्जुन, महावीर, कांट, शोपनहॉवर, हीगेल आदि की तरह उच्चकोटि के चिन्तक और दार्शनिक मानने लगता है, जिन्होंने कि मानव विकास के विभिन्न पड़ावों पर मनुष्य के चिन्तन को आगे बढाया है. इसी प्रकार, वह उनके अमूल्य विचारों का पूरा लाभ उठा सकता है, जो कि मानव सभ्यता का बहुत बड़ा विरसा है.’
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