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हिंसा पर एक वैज्ञानिक नजरिया

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आज जो नक्सली हैं वो एक दिन मर जायेंगे. आज जो पुलिस हैं वो भी मर जायेंगे. आज जो अमीर हैं वो भी मर जायेंगे. आज जो गरीब हैं वो भी मर जायेंगे. फिर से नए बच्चे जन्म लेंगे. उनमें से फिर कुछ बच्चे जन्म से ही गरीब होंगे. उनमें से कुछ बच्चे जन्म से ही अमीर होंगे. उनमें से कुछ बच्चे नक्सली बनेंगे. कुछ बच्चे पुलिस बनेंगे और ये हिंसा इसी तरह चलती रहेगी क्या आप इस हिंसा को समाप्त करना चाहते हैं ?

तो क्या आपने एक वैज्ञानिक की तरह इन हिंसा के कारणों की खोज करने की कोशिश की है ? क्योंकि अगर आप हिंसा के कारणों को हीं नहीं जानते तो उसका इलाज कैसे जानेंगे ?

हो सकता है हिंसा के कारणों के विश्लेषण के परिणाम आपकी पसंद के ना हों लेकिन वैज्ञानिक तो ये नहीं सोचता कि मैं अपनी शोध के किसी निष्कर्ष को तब स्वीकार करूंगा जब वो मेरी पसंद का होगा. इसी तरह सच खोजते समय आपकी पसंद और नापसंद का कोई महत्व ही नहीं है, जैसे अगर आप बड़ी जात के हैं, पैसे वाले हैं और शहर में रहते हैं तो आप पुलिस के पक्ष में ही बात सुनना चाहते हैं लेकिन अगर आपका जन्म बस्तर के एक गांंव में हुआ है और आपका घर पुलिस द्वारा जला दिया गया है, आपकी बहन से पुलिस द्वारा बलात्कार किया गया है, आपके भाई को पुलिस ने मार दिया है तो आप पुलिस के खिलाफ ही सोचने को मजबूर होंगे.

आपका जन्म हिंदू के घर में होगा तो आप हिन्दु धर्म को सबसे अच्छा मानेंगे. आपका जन्म मुसलमान के घर में होगा तो आप इस्लाम को सबसे अच्छा मानेंगे. ध्यान से देखिये हमारी सोच हमारी परिस्थिति में से निकल रही है इसलिए आप भी अब ध्यान दीजिए कि कहीं आप की भी सोच पर तो आपकी जाति, सम्प्रदाय और आर्थिक वर्ग का प्रभाव तो नहीं है ?

क्योंकि इन सबसे आजाद होकर एक वैज्ञानिक की तरह सोचना ही आपको सच्चा चिंतक और विश्लेषक बना सकता है सच को भी आप तभी समझ सकेंगे इसलिए अगर आप को हिंसा की समस्या का समाधान करना है तो अपनी जाति, सम्प्रदाय और आर्थिक वर्ग के खोल से बाहर आकर सोचना शुरू कीजिये.

हिंसा की समस्या की सच्ची समझ ही हमें सच्चे समाधान तक पहुंचा सकती है. नेताओं के पिछलग्गू मत बनिए. उनके विश्लेषण स्वीकार मत कीजिये. अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कीजिये. जागरूक नागरिक बनिए. समाज को हिंसा मुक्त बनाइये. आने वाली पीढ़ियों को एक अच्छी दुनिया देकर जाईए.

हिमांशु कुमार की वाल से साभार

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