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हिन्दुत्व की भागवत कथा और हिन्दुस्तान का सच

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हिन्दुत्व की भागवत कथा और हिन्दुस्तान का सच

हिन्दुत्व के भीतर इस जातिगत बंटवारे का सबसे बड़ा फायदा कुछ अगड़ी जातियों को मिलता है. संसाधनों पर इनका कब्ज़ा है. ये वे लोग हैं, जो बराबरी लाने के दूसरे उपक्रमों के ख़िलाफ़ हैं. आरक्षण को ये सबसे बड़ी बुराई मानते हैं. मोहन भागवत की हिन्दुत्व वाली थीसिस इस पर चुप है. सच तो यह है कि आज के भारत का झगड़ा अगड़े हिन्दू बनाम पिछ़ड़े, दलित, आदिवासी, स्त्री, अल्पसंख्यकों सबका झगड़ा है. इस अगड़ा वर्चस्व को जब तक नहीं तोड़ेंगे, मोहन भागवत का हिन्दुत्व सहज, स्वस्थ और सामाजिक नहीं हो पाएगा.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सर-संघचालक मोहन भागवत का यह वक्तव्य निश्चय ही स्वागतयोग्य है कि अगर भारत में मुस्लिम नहीं रहेंगे, तो हिन्दुत्व नहीं रहेगा, लेकिन कई वाक्यों की तरह यह एक आदर्श वाक्य भर है – या संघ परिवार के दर्शन और व्यवहार में इसकी कोई वास्तविक-लोकतांत्रिक झलक भी मिलती है…? यह सवाल इसलिए अहम है कि पिछले 50 वर्षों में संघ परिवार और उसके संगठनों ने मध्यवर्गीय भारत के बड़े हिस्से में मुस्लिम-घृणा के जो बीज बोए हैं, उसकी फसल हम अब काटने को मजबूर हैं. मोहन भागवत अगर वाकई मानते हैं कि उनका हिन्दुत्व भारत में इस्लामी उपस्थिति के बिना अधूरा है, तो उन्हें यह बात अपने उन संगठनों और सहयोगियों को कहीं ज़्यादा संजीदगी से समझानी चाहिए, जो हर मौके पर मुस्लिम समुदाय को पाकिस्तान जाने की सलाह देने में हिचकते नहीं, उनको बस उनकी टोपी और दाढ़ी के आधार पर देशद्रोही से लेकर आतंकवादी तक ठहरा देते हैं.




वैसे हिन्दुत्व और इस्लाम के इस रिश्ते पर मोहन भागवत की टिप्पणी को कुछ और सावधानी से देखने की ज़रूरत है. उनके वक्तव्य से कम से कम दो भ्रम पैदा होते हैं. पहला तो यह कि हिन्दुस्तान का मसला बस दो पहचानों – हिन्दुत्व और इस्लाम का मसला है. हिन्दुत्व इतना सहनशील है कि उसकी वजह से इस्लाम को भी यहां जगह मिल गई है. लेकिन क्या हिन्दुत्व के भीतर अपनी समस्याएं नहीं हैं…? क्या धर्म के भीतर सवर्ण हिन्दू के जो अधिकार हैं, क्या वही पिछड़ों के भी हैं…? क्या हिन्दुत्व को जातियों ने इस बुरी तरह विभाजित नहीं कर रखा है कि उसकी अलग से कोई पहचान ही नहीं बची है…? हिन्दुत्व और संविधान की बात करते हुए मोहन भागवत जिस अम्बेडकर को याद कर रहे थे, हिन्दुत्व के बारे में उन्हीं की राय पढ़ लेते, तो अपने समाज के अंतर्विरोध को पहचानने में उन्हें कुछ आसानी होती. अम्बेडकर ने साफ कहा था कि जातियों के बिना हिन्दुत्व कुछ नहीं है – हिन्दू तभी एक होता है, जब उसे मुसलमान का विरोध करना होता है.

RSS का गठन भी इसी मुस्लिम विरोध और हिन्दू बचाव के नाम पर हुआ था. यह बात माननी होगी कि सैद्धान्तिक तौर पर संघ हमेशा से जाति-प्रथा को तोड़ने के बदले स्वर्ण जाति के बर्चश के हक़ में रहा है. लेकिन दिलचस्प यह है कि जाति तोड़ने की जो कोशिश सामाजिक स्तर पर की जानी चाहिए, उसमें संघ ने कभी दिलचस्पी नहीं ली. लोहिया कहा करते थे कि जाति तब टूटेगी, जब जातियों के बीच रोटी और बेटी का नाता जुड़ेगा. अब भी हिन्दू समाज अपनी 90 फ़ीसदी से ज़्यादा शादियां जातियां ही नहीं, उपजातियां तक देखकर करता है. शादी में जो बात बहुत प्रत्यक्ष है, वह दूसरे क्षेत्रों में परोक्ष तौर पर लागू है – मसलन, नौकरी, रोज़गार या बाकी सामाजिक संबंधों में जातिगत पहचान अब भी एक अहम भूमिका अदा करती है.




हिन्दुत्व के भीतर इस जातिगत बंटवारे का सबसे बड़ा फायदा कुछ अगड़ी जातियों को मिलता है. संसाधनों पर इनका कब्ज़ा है. ये वे लोग हैं, जो बराबरी लाने के दूसरे उपक्रमों के ख़िलाफ़ हैं. आरक्षण को ये सबसे बड़ी बुराई मानते हैं. मोहन भागवत की हिन्दुत्व वाली थीसिस इस पर चुप है. सच तो यह है कि आज के भारत का झगड़ा अगड़े हिन्दू बनाम पिछ़ड़े, दलित, आदिवासी, स्त्री, अल्पसंख्यकों सबका झगड़ा है. इस अगड़ा वर्चस्व को जब तक नहीं तोड़ेंगे, मोहन भागवत का हिन्दुत्व सहज, स्वस्थ और सामाजिक नहीं हो पाएगा.

मोहन भागवत के हिन्दू राष्ट्र में एक अवधारणात्मक समस्या भी है. यह सच है कि भारत हिन्दू बहुल देश है. सदियों से हिन्दू परंपराओं के बीच इसका अपना एक सामाजिक संस्कार विकसित हुआ है. लेकिन इस हिन्दू परंपरा के बीच एक हज़ार साल से इस्लामी संस्कृति का पानी भी मिलता रहा है. आज का हिन्दुस्तान अपने खाने-पीने, बोली-बानी-रहने-पहनने के ढंग में इस साझा संस्कृति की देन है. संघ परिवार चाहता है कि भारत के इतिहास से इन हज़ार वर्षों को निकाल दिया जाए – या अगर रखा जाए, तो इस इतिहास के इस्लामी प्रतिनिधियों को दुश्मन या आततायी या बाहरी लोगों की तरह पेश किया जाए. यही वजह है कि अकबर का महान होना उसे चुभता है, वह चाहता है कि राणा प्रताप को ही महान बताया जाए और यही वजह है कि हिन्दुस्तान के इतिहास में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले औरंगज़ेब के नाम पर सड़क उसे मंज़ूर नहीं होती. संघ की इस धारणा को दरअसल उन टकरावों से बल मिलता रहा है, जो स्वाभाविक रूप से दो साथ रहने वाले समुदायों में बीच-बीच पर संभव हो सकते हैं. अयोध्या का झगड़ा दरअसल इसी सांस्कृतिक वर्चस्व को रेखांकित करने वाला झगड़ा भी है.




लेकिन मूल बात यह है कि जो लोग हज़ार साल से किसी देश का हिस्सा होते हैं, वे बाहरी नहीं होते. उन्हें कोई उदारता से रहने की इजाज़त नहीं देता. वे घर का हिस्सा होते हैं और उनके साथ रहना सीखना होता है, इसलिए जब मोहन भागवत यह कहते हैं कि हिन्दुत्व वाले भारत के भीतर मुसलमानों की भी जगह है, तो यह उदारता भी अतिरिक्त वर्चस्ववादी लगती है, उस मानसिकता का सुराग देती है, जो मुसलमानों को बाहरी मानती है. क्या मोहन भागवत यह कह सकते हैं कि वे सिखों या बौद्धों या जैनियों को भारत में साथ रहने देने को तैयार हैं…? यह उनका देश है – यह समझ मुसलमानों के बारे में भी संघ को पक्की करनी होगी.

इस समझ के लिए इतिहास पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, बस आंख और कान खोलकर अपने चारों तरफ देखने-सुनने की ज़रूरत है. आज हम जो हिन्दी बोलते हैं, उसमें अरबी-फ़ारसी के शब्दों को हटा दें तो इसे बोलना मुश्किल हो जाएगा और समझना असंभव. जो बहुत सारे कपड़े हम पहनते हैं, वे भी इसी साझा सभ्यता की देन हैं. जिसे हम भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य कहते हैं, उसमें बहुत सारा कुछ इन हज़ार वर्षों में ही जुड़ा है. आप अमीर खुसरो को हटा कर भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते. सिनेमा भले पश्चिम से आया है, लेकिन गीत-नृत्य से सजी जो हिन्दी फिल्में देखने के हम आदी हो चुके हैं, उसकी परंपरा वाजिद अली शाह की इन्नरसभा और बाद के दौर के पारसी थिएटर की कोख से ही निकली है. बेशक, इसका उल्टा भी सच है. जिसे भारत का इस्लाम कहते हैं, उसमें भारत की हिन्दू संस्कृति ने भी बहुत कुछ जोड़ा है. इस्लामी त्योहारों की जो रंगीनी है, उसमें भारत की अपनी ख़ुशबू है.




लेकिन असली बात इस भारत को पहचानना और इसे स्वाभाविक ढंग से विकसित होने देना है. आप गोरक्षा के नाम पर एक समुदाय को निशाना बनाते रहें, लव जेहाद के नाम पर युवा जोड़ों को पीटते रहें, स्त्रियों की बराबरी के लिए पूरे भारतीय समाज में जो ज़रूरी सुधार हैं, उनकी अनदेखी कर तीन तलाक को राजनीतिक मुद्दा बनाते रहें, समान नागरिक संहिता के नाम पर अल्पसंख्यक पहचानों को निशाना बनाने की कोशिश करते रहें और इन सबके बाद हिन्दुत्व की उदारता का बखान करें, तो दरअसल आप हिन्दुत्व की राजनीति के नाम पर हिन्दुस्तान के साथ खेल करते हैं. असल में संघ को यह समझ में आता है कि हिन्दुत्व उसकी दी हुई परिभाषाओं से काफ़ी बड़ा है – वह अपनी संकीर्णताओं को इस हिन्दुत्व की ओट में छिपाना और चुपचाप हिन्दुत्व का अपना भाष्य थोपना चाहता है. अगर नहीं, तो मोहन भागवत को हिन्दुत्व की विचारधारा की परिभाषा बताने से पहले अपने लोगों को समझाना होगा कि वे इसके अनुरूप आचरण करें, ताकि न हिन्दुत्व किसी को छोटा लगे और न राम किसी को पराए लगें.

  • प्रियदर्शन, एनडीटीवी में सिनियर एडीटर हैं, से साभार





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