गुजरात का अमरेली जिला. सावरकुंडला कस्बे में एक थे भीखू कुरैशी. उनके दोस्त का नाम था भानुशंकर पांड्या. दोनों की दोस्ती आज से करीब 40 साल पहले हुई थी. जीवन की गाड़ी आगे बढ़ी. दोनों का वक्त एक जैसा नहीं रहा. भीखू का अपना परिवार हुआ, पत्नी और तीन बेटे. भानू का अपना कोई नहीं था. दोनों की दोस्ती बहुत गाढ़ी थी. बिल्कुल परिवारिक. आपस में निभाते निभाते दोनों दोस्तों ने उम्र काट दी.
कुछ साल पहले बुजुर्ग भानु का पैर टूट गया. चूंकि उनका कोई परिवार नहीं था सो भीखू ने उन्हें अपने घर बुला लिया, वरना देखभाल कौन करता ? भानुशंकर अब भीखू के घर ही रहने लगे. यहां भरा पूरा परिवार उनकी देखरेख करता था.
भीखू के तीनों बेटों का नाम है अबू, नसीर और जुबैर कुरैशी. सभी दिहाड़ी मजदूर हैं. तीनों पांच वक्त के नमाजी और घनघोर आस्तिक जैसे आम आदमी होता है. भानु, भीखू के घर में अजनबी नहीं थे. वे तीनों बेटों के चाचा थे. करीब तो वे पहले से थे, लेकिन अब वे घर के बुजुर्ग हो गए थे. भानु के लिए दोस्त का यह परिवार ही अब उनका संसार था. जाहिर है कि भानु घर के बुजुर्ग थे तो घर के बच्चों के दादा थे. परिवार घर के बुजुर्ग का पैर छूता और दादा सबको फलने-फूलने का आशीर्वाद देते.
दोनों ही बुजुर्गों की उम्र हो चली थी तो फिर वही विधि का विधान. एक दिन भीखू मियां का टिकट कट गया और वे निकल लिए भगवान के घर. अब भानुशंकर अकेले हो गए. दोस्त के जाने के बाद भानु बुझे-बुझे से रहने लगे.
भीखू के बाद कुछ तीन साल बीते. एक दिन परवरदिगार के दरबार से भानुशंकर का भी बुलावा आ गया. वे आखिरी हिंचकियां लेने लगे. परिवार ने सुन रखा था कि हिंदुओं को अंतिम समय गंगाजल पिलाते हैं. उन्होंने भागकर पड़ोसी के यहां से गंगाजल मांगा और अंत समय भानुशंकर के मुंह में गंगाजल डाला ताकि चाचा को मुक्ति मिले.
मौत के बाद गांव वाले एकत्र हुए तो भाइयों ने कहा कि हम हिंदू विधि विधान से चाचा का अंतिम संस्कार करना चाहते हैं, क्योंकि वे तो हिंदू थे. इस पर गांव वालों ने कहा कि कंधा देने और दाह देने के लिए तो जनेऊ पहनना जरूरी है. तीनों भाइयों ने कहा कि आप जैसा बताएंगे, हम वैसा ही करेंगे, जैसा बेटे पिता के लिए करते हैं. पांच वक्त के नमाजी मुस्लिम का कब जनेऊ संस्कार होने लगा? लेकिन वे जनेऊ पहनने को तैयार हैं तो रोकेगा भी कौन?
तीनों भाइयों ने जनेऊ और धोती पहनी और हिंदू रीति-रिवाज से अपने ब्राह्मण चाचा का अंतिम संस्कार किया. नसीर के बेटे ने भानुशंकर को मुखाग्नि दी. पूरे 13 दिनों तक सभी पारंपरिक कर्मकांड किए गए, तीनों भाइयों ने सिर मुंडवाया, दान दिया, जो बन पड़ा, वह सब किया.
ऐसा होने में न भानुशंकर पांड्या का धरम भ्रष्ट हुआ, न ही भीखू कुरैशी का इस्लाम खतरे में आया. अब बच्चे मुतमइन हैं कि अब्बू जन्नत गए होंगे और चाचा की आत्मा को मुक्ति मिल गई होगी. नफरत, सियासत का कारोबार है. दुनिया मोहब्बत से चलती है.
- कृष्णकांत
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