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उर्दू को बदरंग करता हिन्दी मीडिया और शायरी

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उर्दू को बदरंग करता हिन्दी मीडिया और शायरी

राजीव कुमार मनोचा

हिन्दी विजुअल मीडिया ने केवल समाचारिक विश्वसनीयता को ही गहरी चोट नहीं पहुंचाई बल्कि वह अन्य कई चीज़ों को भी आघात पहुंचाने में लिप्त है, इनमें से एक है ‘उर्दू’ भाषा का शब्द सौष्ठव व उसकी अर्थशीलता.

कुछ तो मुसलमानों को अपने चैनलों की ओर आकृष्ट करने और कुछ पत्रकारों के अपने उर्दू आकर्षण के चलते ऐसा हुआ है. अल्फ़ाज़ के ग़लत तलफ़्फ़ुज़ या उच्चारण से लेकर उनके नये अर्थ गढ़ने तक, तमाम तरह की मूढ़ताएं परिलक्षित होती आई हैं हिन्दी समाचार चैनलों पर. यह सब इतने लम्बे समय से और इतनी बार हो चुका है कि आजकल मीडिया से ज्ञान लेने वाला आम हिन्दुस्तानी इन नए गढ़े अर्थों और जाने कितने ही अल्फ़ाज़ के ग़लत तलफ़्फ़ुज़ का आदी-सा होता जा रहा है.

सबसे पहले ‘दरकार’ लफ़्ज़ को उठाया जाए क्योंकि मेरे एक पड़ोसी को इसकी लगभग लत-सी लग गई है. वह ‘ज़रूरत’ शब्द का प्रयोग जैसे भूल-सा गया है. आज उसी की बदौलत मन हुआ कि ज़रा ऐसे साहिबान की खिंचाई की जाए क्योंकि ये बंदा अकेला नहीं, पूरा हिन्दी मीडिया दरकार शब्द के प्रेम में डूबा इसे ख़ूब इस्तेमाल करता है और वह भी बिल्कुल ग़लत रूप में.

‘दरकार’ का मतलब ज़रूरत होता ही नहीं. फ़ारसी से उर्दू में आए इस शब्द का अर्थ ज़रूरत नहीं बल्कि ‘ज़रूरी’ या ‘अपेक्षित’ है और यह हर जगह नहीं अपितु किसी बड़ी अपेक्षा के साथ प्रयोग होता है. मसलन इन्सान को सब्र दरकार है, न कि सब्र की दरकार है. देश को आज एक सुलझी हुई लीडरशिप दरकार है, न कि लीडरशिप की दरकार है लेकिन मूढ़ हिन्दी मीडिया ने तो दरकार को आवश्यकता का समानार्थी बना छोड़ा है.

दूसरा लफ़्ज़ जो मैं उठा रहा हूं उसका तो बंटाधार कर डाला गया है. उसका न केवल मतलब बदल दिया है मीडिया ने बल्कि ठीक उलट कर छोड़ा है उसे. यह शब्द आज मीडिया की बदौलत हर बच्चे बूढ़े, अनपढ़ और शिक्षित की ज़बान पर है. ख़बरों में तो दिन में शायद दस बार प्रयुक्त होता है. यह अभागा शब्द है ‘खुलासा.’

इसका हिन्दी मीडियाई मतलब है रहस्योदघाटन, किसी बात अथवा राज़ का खुलना या विस्तार से सामने रखा जाना. हद हो गई !! जाने किस कम्बख़्त ने इस शब्द को उर्दू ख़बरों में सुना, और फिर अपनी कमसमझी से ‘खुलने’ की sense में लेते हुए इसे एक नया ही अर्थ दे दिया.

रेडियो पर उर्दू ख़बरों के अंत में कहने का चलन है ‘ख़बरों का ख़ुलासा एक बार फिर सुनिए.’ क्या समझे ?? ख़ुलासा यानी summary या संक्षेप. और हिन्दी मीडिया ने इस संक्षेप को रोज़ रोज़ गा गा कर ठीक उलट ‘विस्तार’ बना दिया.

आप कहेंगे कि भाषा तो ऐसे ही बनती बिगड़ती है. तो ठीक है साहब, बेचारे उर्दू वालों से कह दीजिए कि अपने लिए ख़ुलासे summary की जगह कोई नया लफ़्ज़ तलाश लें क्योंकि ख़ुलासे का हाईजैक हो चुका है, उसके ठीक विपरीतार्थी रूप में. वैसे हो सकता है बीस साल बाद कोई पंडित कहता मिले, हमारे देश से खुलासा उठा कर फ़ारस वालों ने ख़ुलासा बना लिया ! और कमबख़्तों ने जान बूझ कर उसे उलटा अर्थ दे दिया.

तीसरा कॉमन ग़लत प्रयोग है, ‘जज़्बातों’. भाई अगर तुम्हें उर्दू ग्रामर का मुंह सर नहीं पता तो क्या डॉक्टर ने कहा है उर्दू अल्फ़ाज़ की टांगें मरोड़ने के लिए ? तुम इसकी जगह हिन्दी-संस्कृत का ‘भावनाओं’ भी तो प्रयोग कर सकते हो. सबको समझ आता है वह. दरअसल ‘जज़्बातों’ कोई लफ़्ज़ बनता ही नहीं क्योंकि जो पहले ही से बहुवचन है उसका फिर से plural या बहुवचनी इस्तेमाल कैसे हो सकता है ? जज़्बात ‘जज़्बा’ शब्द का बहुवचन है. जज़्बा अर्थात भावना और जज़्बात यानी भावनाएं. अब ये जज़्बातों क्या हुआ भई ?? भावनाओं+ओं !!

ऐसा ही एक अन्य बेजा इस्तेमाल है ‘मुजाहिदीनों.’ फिर वही ग़लती. मुजाहिदीन ख़ुद बहुवचन है और आप बहुवचन का बहुवचन बना रहे हैं !! मुजाहिद यानी धर्मयोद्धा और मुजाहिदीन उसकी जमा यानी बहुवचन. आप कहते हैं, इतने मुजाहिदीनों को मार गिराया जबकि कहना चाहिए, इतने मुजाहिदीन मार गिराए या इतने मुजाहिदों को मार गिराया. पत्रकारिता की शिक्षा के दौरान किसी ने आपको वर्तनी और उच्चारण के नियम नहीं सिखाए ??

इसके उलट अरबी से उर्दू में आये ‘अल्फ़ाज़’ को जो कि लफ़्ज़ का बहुवचन है, आप धड़ल्ले से एकवचन बना कर बोलते हैं. उदाहरणार्थ ‘उनके भाषण का हर अल्फ़ाज़ राजनीति से भरा था. यहां ‘लफ़्ज़’ यानी एकवचन का प्रयोग होना चाहिए था. इतना ही नहीं लफ़्ज़ के बहुवचन अल्फ़ाज़ का भी बहुवचन बनाया जाता है, ‘मेरे अल्फ़ाज़ों को वे समझ ही न पाए’ बिल्कुल ग़लत प्रयोग है यह. यहां ‘लफ़्ज़ों’ या ‘अल्फ़ाज़’ कहना चाहिए था. अल्फ़ाज़ (alfaaz) को अल्फाज (alphaaj) बोला जाता है, सो अलग.

अब आते हैं ख़िलाफ़त पर. विरोध या protest के समानार्थी के लिए इस्तेमाल कर रहा है हिन्दी मीडिया इसे. हालत यह है कि खुलासे और जज़्बातों की तरह यह फ़िल्मों, टीवी धारावाहिकों ही नहीं वरन छोटे-मोटे लेखन में भी इसी तौर पर मुस्तमिल हो चला है. भई कहां ख़िलाफ़त और कहां विरोध !

ख़िलाफ़त का अर्थ है ख़लीफ़ाई, ख़लीफ़ा से बना है यह. और ख़िलाफ़ जाने को ले कर जो शब्द है वह ख़िलाफ़वर्ज़ी या मुख़ालिफ़त है. इनके कच्चे ज़हन ने कहीं ख़िलाफ़त सुना और मतलब में उतरे बिना ही उसे ख़िलाफ़ का भाववाचक बना कर आगे पेल दिया. किसी लफ़्ज़ का इससे वाहियात इस्तेमाल और क्या हो सकता है भला ? इसे सिर्फ़ ग़लत प्रयोग नहीं कहा जा सकता.

उर्दू अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल का कुछ लोगों को बीमारी की हद तक शौक़ है. फ़ेसबुक पर मैं कुछ कविताओं को केवल इसलिए ‘Like’ नहीं कर पाता कि उनमें उर्दू शब्द पकड़ पकड़ कर ठूंसे गए होते हैं, बिना उनके भावों की गहराई तक गए. कहीं किसी बड़े शायर के देवनागरी में लिखे उर्दू संस्करण को पढ़ा. उसके नीचे लिखे आधे सही आधे ग़लत अर्थ को रटा और फिर झोंक दिया अपनी कविता में. अक्सर बिल्कुल ज़बरदस्ती, या तो उर्दू व्यामोह में या फिर उर्दू ज्ञान बखारने हित.

मीडिया के चंद पत्रकारों को भी यही लत है. उच्चारण का तो फ़ालूदा ही बना छोड़ा है. अच्छे भले हिन्दी शब्द उपलब्ध हैं मगर उर्दू ज़रूर बोलनी है, वह भी बिना उच्चारण पे मेहनत किये. उर्दू के ज़बरदस्त (zabardast) को जबरदस्त ( jabardast), हज़ार (hazaar) को हज्जार ( hajjar), ज़हीन (zaheen) को जहीन (jaheen), जहालत (jahalat) को ज़हालत (zahalat), मुनहसिर (munahsir) को मुनस्सर (munassar), फ़िज़ूल (fizool) को फिजूल (phijool) और कभी कभी तो बेफजूल, और भी जाने कितने शब्दों को उलटा सीधा बोलने का चलन आम है इनके यहां.

ज़्यादातर ग़लतियां ‘ज’ ( j ) को ‘ज़’ ( z ) और ‘ज़’ को ‘ज’ बोलने से जुड़ी हैं. कुछ तो हर जगह ज़ ( z ) ही ठोक देते हैं. इन्हें लगता है कि उर्दू में केवल ‘ज़’ ही होता है, ज होता ही नहीं. ये महाज्ञानी जबरन ( jabran) को ज़बरन (zabran), जाफ़र ( jaafar) को ज़ाफ़र (zaafar), इजाज़त (ijazat) को इज़ाज़त (izazat), मिज़ाज (mizaj) को मिज़ाज़ (mizaz) और ज़ंजीर (zanjeer) को ज़ंज़ीर (zanzeer) बोल कर अपना उर्दू ज्ञान बखारते हैं.

कोई मनाही नहीं उर्दू को हिन्दी के बीच इस्तेमाल करने की. इससे एक मख़सूस अन्दाज़ तो सृजित होता ही है, एक अलग तरह की रवानी भी पैदा होती है. लेकिन किसी भी भाषा को सतही तौर पर लेना बुरी बात हैः बग़ैर उसके शब्दों के गहन भाव, सही उच्चारण और सबसे बढ़ कर usage को जाने, उनका जबरी इस्तेमाल, बहुत शोचनीय अमल है.

जहां तक मैंने समझा, ऐसा केवल दूसरों को मुतास्सिर करने के लिए किया जाता है, पर होता ठीक उलट है. आप दूसरों को impress करने की बजाय depress कर जाते हैं. ऐसा विचित्र प्रयोग आपके लहजे को अनगढ़ तो बनाता ही है, साथ ही आप द्वारा प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को भी बड़ा अटपटा रूप दे डालता है.

भाषाओं से खेलिए, ख़ूब खेलिए. भाषा से खेलना बहुत दिलचस्प होता है पर याद रहे, हर खेल के कुछ नियम होते हैं और ‘फ़ाउल’ किसी खेल में सहनीय नहीं होता.

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