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हाथ से फिसलता यह मुखौटा लोकतंत्र भी

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हाथ से फिसलता यह मुखौटा लोकतंत्र भी

देश में शासन व्यवस्था के तौर पर समाजवादी व्यवस्था को सबसे बेहतर माना गया है, जो सर्वहारा अधिनायकत्व में रहकर धीरे-धीरे साम्यवाद में बदल जाता है. परन्तु अब जब सर्वहारा अधिनायकत्व वाली समाजवादी व्यवस्था पूंजीवादी पददलितों का शिकार होकर सर्वहारा के बजाय पूंजीपतियों के अधिनायकत्व में चला गया तब वह समाजवादी व्यवस्था भी पीछे हटकर पूंजीवादी समाज व्यवस्था में पतित हो गया. अतः यह माना जा सकता है कि आज की तारीख में लोगों के पास पूंजीवादी व्यवस्था ही बची है, जो तमाम व्यवस्था में आज बेहतरीन है.

भारत में, जैसा कि स्पष्ट है, पूंजीवादी व्यवस्था भी मौजूद नहीं है. यहां सामंतवादी व्यवस्था के सड़ांध पर फर्जी पूंजीवादी व्यवस्था थोपी गई है, जिसका असर इस रूप में मौजूद है कि न तो सामंती व्यवस्था की अच्छाई बची रह पाई है और न ही पूंजीवादी व्यवस्था की अच्छाइयों को ही अपना पाये हैंं. इसका बेहतरीन उदाहरण विवेक रस्तोगी के शब्दों में कहे हैं, तो इस प्रकार से समझा जा सकता है.




सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली कुआन यू ने कहा था कि उनके पास दो ही ऑप्शन थे – पहला – ‘या तो मैं खुद भी भ्रष्ट हो जाऊंं और अपने पूरे परिवार को फोर्ब्स की सबसे अमीर व्यक्तियों की सूचि में नाम लिखवा लूंं और सिंगापुरवासियों को कंगाल कर दूंं.’ दूसरा – ‘या फिर मैं अपने राष्ट्र, जनता के बारे में सोचूंं और अपने सिंगापुर को दुनिया की सबसे बेहतरीन 10 अर्थव्यवस्थाओं में खड़ा करूंं.’ ‘मैंने दूसरा ऑप्शन चुना.’ भारतीय राजनेता ने कहा, ‘हमारे पास भी 2 ही ऑप्शन थे, पर दूसरा ऑप्शन पहले ही सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने ले लिया, तो अब हमारे पास कोई ओर चारा ही नहीं है.’

उपरोक्त पंक्तियों में सिंगापुर पूंजीवादी व्यवस्था के प्रधानमंत्री का चित्रण है, वहीं अगली पंक्तियों में भारतीय राजनेताओं, प्रधानमंत्रियों (ठीक है, भारत में भी एक ही प्रधानमंत्री होता है, पर वह पूंजीपतियों, खासकर अंबानी-अदानी का दलाल बन गया है, जो प्रधानमंत्री को अपना चाकर से अधिक कुछ भी नहीं समझता है) की निर्लज्जता को रेखांकित करता है. भारतीय राजनेताओं की निर्लज्जता का घृणास्पद रूप अभी कर्नाटक में विश्वासमत के खेल में चल रही नंगई सारी दुनिया देख रही है.




विश्वासमत पर चल रहे इस निर्लज्जता पर सामाजिक कार्यकर्ता रविन्द्र पटवाल बताते हैं बिहार गोवा के बाद कर्नाटक में coup के बाद स्पष्ट है कि वर्तमान संसदीय लोकतंत्र की मियाद ख़त्म हो चली है. किसी भी तरह अगर धन, बल और मीडिया के भयानक खिलाफ होने के बावजूद भी आप जीत गये तो भी कुछ विधायक सांसद को तोड़कर जर्जर सरकार को गिराया जा सकता है. इसलिए संसदीय संघर्ष अब बहुत छिछला और बेमानी हो गया है.

कर्नाटक में कुल 223 सदस्यों की विधानसभा थी. भाजपा को 105 वोट तो वहीं कांग्रेस और कुमारस्वामीको 99 वोट मिले. सरकार विश्वास मत हार गई और गिर गई.

इसे गिराने में विधानसभा के अंदर का संख्याबल नहीं बल्कि मुंबई में बैठे 18 विधायक, जो कांग्रेस और कुमारस्वामी की पार्टी की बदौलत विधायक बने थे, लेकिन उनकी लॉयल्टी न अपने विधानसभा और न कर्नाटक की जनता से थी, बल्कि करोड़ों की डील से थी, के कारण गिर गई. इन विधायकों को जो कि अपने ही थे, ऐसा नहीं कि कांग्रेस और कुमारस्वामी ने बदले में करोड़ों का ऑफ़र न दिया हो, लेकिन उनकी डील तो हो चुकी थी और उन्हें फ़ाइव स्टार होटल में दो हफ़्ते से सेवा-पानी और स्वीमिंग पूल की आदत लग गई थी.




अगर भारतीय लोकतंत्र में जनता के वोट पर ग़द्दारी करने की सज़ा करोड़ों की डील के बजाय जेल की सलाखें होती और घर ज़मीन की कुर्की तो मजाल है कि एक भी विधायक इस्तीफ़ा देता ? अभी पिछले हफ़्ते सोनभद्र में एक IAS के कारण 10 लोग मार डाले गए, एक भी विधायक ने इस्तीफ़ा नहीं दिया. आपको कर्नाटक का देश का लोकतंत्र मुबारक हो.

अगर लगता है कि बिहार की तरह कर्नाटक, गोवा की जनता का mandate ख़रीदना लोकतंत्र का मज़ाक़ है, विश्वासघात है तो इस सिस्टम को जनता के हिसाब से बदलने के बारे में गम्भीरता से सोचना होगा. समाजवादी व्यवस्था तो दूर की बात है, अभी तो इसी मौजूदा सड़ी अर्द्ध सामंती व्यवस्था को ही बचाने का दायित्व कंधे पर लेना होगा, जो इस मुखौटा लोकतंत्र के शक्ल में हमारे सामने मौजूद है, अन्यथा हम इतिहास के गटर (सामंती व्यवस्था) में ही फेक दिये जाने के लिए अभिशप्त होंगे.




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ROHIT SHARMA

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