पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
‘खा लेती भूसा चोकर ..
देती दूध हमें खुश होकर …
मरने पर भी आती काम … ‘
चमड़े से है जूते बनते …
जिन्हे पहनकर हम खुश होते … !’
ये कविता मुझे मेरी 100 वर्षीय नानी सुनाती थी. उन्हें ये बचपन में सिखाई गई थी.
आजकल गाय की राजनीति फिर जोरों पर है. वैसे तो ये मुद्दा नया नहीं है बल्कि बहुत पुराना है. असल में ब्राह्मणों के गाय के इस कृत्रिम प्रेम के पीछे बहुत से कारण है. इसका खुलासा डॉ. अम्बेडकर ने भी किया और इतिहास में भी स्पष्ट है. शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बी. आर. अंबेडकर बहुत अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया ? यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने ?’ में है.
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित किया और बताया कि अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है. अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.
उनके मुताबिक, ‘गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था.’ उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पी. वी. काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ‘ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.’ (मराठी में धर्मशास्त्र विचार, पृष्ठ-180). अंबेडकर ने लिखा है, ‘ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है. ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, ‘उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि ‘अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई.’ ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि ‘गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.’ अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है, जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.
अंबेडकर ने लिखा, ‘तैतरीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.’ वो लिखते हैं, ‘विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.’ तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान. अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार, ‘मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए-
(1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण,
(2) आचार्य-शिक्षक
(3) दूल्हे
(4) राजा
(5) स्नातक और
(6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति. कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.
मधुपर्क में ‘मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.’ इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे, जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है. अंबेडकर ने लिखा है, ‘कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है, जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.’ अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय (111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है, जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है. संयुक्त निकाय में लिखा है, ‘पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.’ अंत में अंबेडकर लिखते हैं, ‘इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.’
पांचवीं, छठी, सातवीं शताब्दी तक दलितों की संख्या काफी बढ़ गयी थी और लगभग इसी समय कागज बनाने की खोज हुई. तब ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों में ये लिखना शुरू कर दिया कि ‘जो भी गाय का मांस खायेगा, वो दलित है !’ इस तरह धर्मशास्त्रों में गो-हत्या कोई बड़ा अपराध नहीं है, ये लिखा और प्रचारित किया गया. कालांतर में मुग़ल बादशाहों के दौर में राज दरबार में जैनियों का प्रवेश था और जैनी चूंंकि पूर्ण शाकाहारी थे इसलिए कुछ ख़ास ख़ास मौक़ों पर मांसाहार पर पाबंदी रही. 9वीं सदी में मांस खाने के खिलाफ आदि शंकराचार्य की मुहिम शुरू होने तक जैनियों को छोड़कर द्विज (ब्राह्मण) भी गो-मांस खाते थे. ये सारा विवाद 19वी सदी में शुरू हुआ था. यह विवाद तब शुरु हुआ जब आर्य समाज की स्थापना के बाद दयानन्द सरस्वती ने गौरक्षा के लिए अभियान चलाया था और ऐसा तय कर दिया गया कि ‘जो भी बीफ खाता या बेचता है, वो मुसलमान है’ (अर्थात ये हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति विवाद की दीवार आर्य समाज की देन है).
आज भारत में बीफ निर्यात का बिजनेस नंबर वन है और भारत के 71 % हिन्दू मांस खाते है, जिनमें ब्राह्मण भी शामिल है. उदहारण के लिए ऋषि कपूर से लेकर काटजू तक (दोनों ब्राह्मण हैं) सैकड़ों हिन्दुओं के बयानों को ले लीजिये, जिन्होंने स्वीकार किया कि वे हिन्दू ही नहीं ब्राह्मण भी हैं लेकिन गाय का मांस खाते हैं. दक्षिण में तो आज भी श्राद्ध अमावस्या को पितरों के निमित्त गाय की बलि चढ़ाते हैं और प्रसाद के रूप में ब्राह्मणों से लेकर सभी घर वाले भी खाते हैं और पड़ोसियों और रिश्तेदारों को भी भिजवाते हैं (जैसे मुस्लिम बकरीद पर बकरा भिजवाते हैं) ताकि पितर 12 महीने तुष्ट रहे. ऐसी ही अंधी मान्यताओं और अंध-रूढ़ियों के चलते न जाने कितने पशुओं को गुड़ीमाइ के पर्व में कुर्बान कर दिया जाता है. लेकिन तब किसी के मन में अहिंसा या जीव-प्रेम की भावना जागृत नहीं होती. गाय एक जानवर है और उसे जानवर की तरह ही समझे, तो बेहतर रहेगा.
हम तो जैन हैं और अहिंसक भी. हम तो कहते हैं कि मांस खाना ही क्यों ? तुम्हारे खाने के लिए प्रकृति ने इतनी सारी वनस्पती दी है फिर क्यों सिर्फ जिह्वा के स्वाद के लिए किसी भी जानवर को मारना ? मारना पाप है, उसे खाना तो महापाप है, फिर गाय क्या और बकरा क्या ! दोगली मानसिकता को त्यागों. मांस तो मांस ही होता है, चाहे वह गाय का हो या इंसान का. तुम कहते हो कि गाय के मांस खाने में पाप है परन्तु चिकन, बकरा या दूसरे जानवरों और पक्षियों का खा सकते हो, तो ये तुम्हारी दोगली मानसिकता है. आज तुम किसी भी पशु-पक्षी का मांस खाओ, कालांतर में तुम इंसानी मांस की चाह करोगे और नरभक्षी बनोगे, ये पक्का है (चीनियों का उदाहरण परिप्रेक्ष्य है. बच्चों के भ्रूण का सुप पीने का मामला कुछ समय पहले सुर्खियों में था).
भारत में सबसे पहले जिन लोगों ने गो-मांस खाना शुरू किया था, वे न तो ईसाई थे और न ही मुसलमान, वे आर्य लोग थे ! मांस खाने के खिलाफ ब्राह्मणों के आदि शंकराचार्य की मुहिम शुरू होने तक सिर्फ जैनियों को छोड़कर सभी जाति के लोग बौद्ध और द्विज (ब्राह्मण) भी गो-मांस खाते थे. इसी के बाद से ब्राह्मणों और अन्य बनियों के वर्ग ने गो-मांस खाना छोड़ा था. हालांकि कई दलित जातियां, आदिवासी समुदाय और कई अन्य पिछड़ी जातियां अभी भी गो-मांस खाती हैं. कई कश्मीरी पंडित आज भी मांसाहारी हैं. कई बंगाली ब्राह्मण भी मांस खाते हैं ! बीजेपी का ये एजेंडा सांप्रदायिक प्रोपगेंडा के अलावा कुछ नहीं.
क्या बीजेपी बांंकि जानवरों के मांस पर बेन लगा सकती है ? क्योंकि भेड़, बकरियां, मुर्गे-मुर्गियां और मछलियों की तो बात छोड़िये, अन्डों तक में जीवन शामिल हैं ? मनुष्यों के खान-पान की संस्कृति के संबंध में वे हिंसा और अहिंसा के बीच की लकीर कहां खींचेंगे ?
क्या सरकार सरकारी कत्लखाने बंद करेगी ? मांस का निर्यात बंद करेगी ?
एक तरह से देखा जाए तो वे जो कुछ कर रहे हैं, मानो सरकार ने एक शाकाहारी ब्राह्मण की जिम्मेदारी ले ली हो और वह अपने खान-पान की संस्कृति पूरे समाज पर थोप रही हो. या साफ शब्दों में कहुंं तो बीजेपी, संघ के साथ मिलकर दुसरों पर अपना धर्म थोपने का प्रयास कर रही है और लोगों की खान-पान की आज़ादी को बाधित कर सांप्रदायिकता को उग्रता की ओर धकेल रही है ! संघ परिवार जो बात समझ नहीं पा रहा या फिर समझ कर भी जान-बूझकर नासमझ बना हुआ है, वो ये कि आज भी पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में गो-मांस को एक प्रमुख भोजन के तौर पर देखा जाता है. अगर एक राष्ट्रीय कानून बना दिया जाए तो कई राज्यों को भारत में बने रहने में मुश्किल आ सकती है. वे विद्रोह करेंगे और भारतीय गणराज्य से अलग होने के लिए बगावत करेंगे. क्या संघ और बीजेपी यही चाहती है कि भारत के टुकड़े हो जाये ? (आखिरकार हज़ारों सालो में अखंड भारत का राग अलापकर पहले ही ब्राह्मणों ने देश के सैकड़ों-हज़ारों टुकड़े करवा दिए हैं. और आज भी संघ बीजेपी परिवार इसी कोशिश में लगा है कि आज का भारत गणराज्य टूटकर बिखर जाए ताकि कमजोर भारत पर काबिज होकर अपनी सत्ता कायम करें).
इस देश में खान-पान की संस्कृति अलग-अलग राज्यों और क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न है. यहां तक कि अलग-अलग लोगों की खान-पान की आदतें अलग हैं. कोई भी सरकार अगर लोगों की खान-पान की आदतों पर प्रतिबंध लगाती है तो उसे न केवल एक मजहबी सरकार के तौर पर देखा जाएगा बल्कि उसे फासीवादी भी करार दिया जाएगा.
हिंदुत्व की ताकतें खान-पान की संस्कृति को नहीं समझती हैं, जो मानव सभ्यताओं से होकर पनपी हैं. वे खान-पान की संस्कृति के धार्मिक पहलू को भी नहीं समझते हैं. अगर कोई ब्राह्मण या बनिया शाकाहारी है तो उसे ऐसा होने का पूरा अधिकार है. लेकिन किसी भी मांसाहारी या विशेष भक्षी को इसके लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. और अगर उन्हें लगता है कि ईश्वर ने उन्हें ऐसा करने के लिए आदेश दिया है तो उन्हें इसके लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए क्योंकि दूसरे धर्म के ईश्वर ने भी उन्हें मांसाहारी होने का आदेश दिया है, और इस टकराव के लिए सरकार तैयार रहे. इसके लिए एक बहुत बड़ा युद्ध हो सकता है. जंग लड़ी जा सकती है और इसमें नुकसान उन आम लोगों का होगा, जो मारे जायेंगे इस लड़ाई में. उनका कोई लेना देना नहीं होगा लेकिन वे मरेंगे, इसमें कोई दोराय नहीं. और इस लड़ाई में हिंदुत्व जड़ से खत्म हो जायेगा इस दुनिया से, शायद इस सच को संघ अभी समझ नहीं पाया क्योंकि 15 करोड़ ब्राह्मण दुनिया की 700 करोड़ मांसाहारी जनसंख्या के सामने किसी भी तरह नहीं बच पाएंगे. 15 करोड़ ब्राह्मण ही क्यूंं ? 80 करोड़ हिन्दुओं का भी सफाया हो जायेगा इस दुनिया से, इस बात को सरकार समझ ले तो बेहतर है !
मेरी आदत है कि हर मुद्दे पर पहले मैं सोचता हूंं, उसके परिणाम और परिणीति ही नहीं बल्कि हरेक एंगल से सोचता हूंं क्योंकि जैन धर्म ने जहांं हमें अनेकान्त का सिद्धांत दिया, वही तितिक्षा का भी सिद्धांत दिया है. इसलिए मैं सोचता हूंं और कट्टरपंथी संघियों और भाजपाइयों को भी सांप्रदायिकता की राजनीति छोड़कर सोचना चाहिए ! क्योंकि वे सभी धर्मों, राज्यों और पूरे देश के लोगों से ऐसा नहीं कह सकते हैं कि बाकी सब उनकी संस्कृति और उनके हिंदू ईश्वरों के आदेश का पालन करें !
किसी भी ईश्वरवादी धर्म ने लोगों से केवल शाकाहारी हो जाने के लिए नहीं कहा है. दुनिया में एक मात्र अनीश्वरवादी धर्म जैन तीर्थंकरों ने ही सभी को शाकाहारी बन जाने के लिए कहा और मांसाहार को त्यागने के लिए कहा ( ज्ञात रहे सिर्फ कहा, मजबूर नहीं किया क्योंकि हरेक व्यक्ति खुद की समझ से अपना खान-पान निर्धारित करता है, कोई सरकार नहीं). हिन्दू-मुस्लिमों के साथ-साथ बौद्ध, क्रिश्चियन मांस खाते हैं और शाकाहारी खाना भी. भारत के दलित बहुजन और आदिवासी भी इन्हीं की तरह खान-पान की आदतें रखते हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी इस तरह की नीतियों के रास्ते देश को खाद्य संकट और ऊर्जा की कमी की ओर धकेल रही है. और बीफ़ पर प्रतिबंध लगाकार बीजेपी भारतीयों के मानसिक विकास को प्रतिबंधित कर उन्हें बगावत की ओर धकेल रही है !
साल 2013-14 में भारत सरकार से 26,457.79 करोड़ रुपए के बीफ़ का निर्यात हुआ जबकि भेड़ और बकरी के मांस का निर्यात 694.10 करोड़ रुपए रहा. भारत पूरे विश्व में बीफ के मांस का सबसे बड़ा निर्यातक है, मगर भारत में बीफ़़ की खपत 3.89 प्रतिशत ही है. जबकि अमरीका, ब्राज़ील, यूरोपीय संघ और चीन में पूरे विश्व का क़रीब 58 प्रतिशत बीफ़ खाया जाता है.
इंटरनेशनल मीट सेकेट्रियट के अनुसार पुरे विश्व में 5.783 करोड़ मीट्रिक टन बीफ का उत्पादन होता है, जिसमें भारत की हिस्सेदारी 55 लाख मीट्रिक टन है और ये सारा उत्पादन सरकारी कत्लखानों में होता है. क्या बीजेपी इसे बंद करेगी ? या सिर्फ देश में धार्मिक भावनाएंं भड़काकर ओछी राजनीति करती रहेगी ?
भारत से बीफ़ का निर्यात करने वाले कारोबारी और ‘ऑल इंडिया मीट एंड लाइवस्टॉक एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन’ के महासचिव डी. बी. सभरवाल के अनुसार मांस के कारोबार से जुड़े इस धंधे में सिर्फ एक ही समुदाय के लोग नहीं हैं. लगभग 14 हज़ार करोड़ रुपए के इस व्यवसाय में मुनाफे के एक बड़े हिस्सेदार ग़ैर-मुसलमान व्यापारी ही हैं. फिर मुस्लिमों का नाम लेकर राजनीति क्यों की जा रही है ? क्यों लोगों की धार्मिक भावनाएंं भड़काई जा रही है ? जबकि इसका धर्म से कोई नाता ही नहीं क्योंकि प्राचीन काल से लेकर अब तक गौवध से लेकर गौमांस खाने तक में हिन्दू और ब्राह्मण शामिल है ! सिर्फ कम्पनी का नाम मुस्लिम या इस्लामिक रख लेने से क्या हिन्दू और ब्राह्मण जो इस धंधे से जुड़े हैं, वो बच जायेंगे ?
अतुल सभरवाल की अल कबीर एक्सपोर्ट्स अजय सूद की अल नूर एक्सपोर्ट महेश जगदाले एंड कंपनी बीफ़ एक्सपोर्ट जैसे इन नामों से ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह व्यसाय किसी एक धर्म से जुड़ा हुआ नहीं है. भारत में कुल 3600 बूचड़खाने सिर्फ नगरपालिकाओं द्वारा चलाये जाते हैं. इनके अलावा 42 बूचड़खाने ‘ऑल इंडिया मीट एंड लाइवस्टॉक एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन’ के द्वारा संचालित किये जाते हैं जहां से सिर्फ निर्यात किया जाता है. 32 ऐसे बूचड़खाने हैं जो भारत सरकार के एक विभाग के अधीन हैं. महाराष्ट्र, पंजाब और उत्तर प्रदेश तीन ऐसे प्रमुख राज्य हैं जहाँ से सबसे ज़्यादा बीफ के मांस का निर्यात होता है. अकेले उत्तर प्रदेश में 317 पंजीकृत बूचड़खाने हैं.ग़ाज़ीपुर स्थित बूचड़खाने में तैनात पशु-चिकित्सक सेंथिल कुमार के अनुसार सरकार का नियंत्रण सिर्फ जानवरों के काटे जाने तक ही नही बल्कि सरकार का नियंत्रण तो इसकी बिक्री पर भी है. बूचड़खानों से लेकर खुदरा व्यापारियों तक ऐसा सिस्टम बनाया गया है कि सारा कार्य कानून के मुताबिक सरकार के अधीन ही होता है !
अंत में आप ये भी जान लीजिये आखिर भारत में बीफ के मांस का व्यापार किया क्यों जाता है ? इसका कारण एक गाय-भैंस-बैल के कटने पर लगभग 350 किलोग्राम मांस निकलता है. चमड़े और हड्डियों की अलग से कीमत मिलती है. औसतन 8000- 9000 में गाय, भैंस, बैल आदि मिल जाते हैं. गांवों में और सुखा वाले प्रदेशों में तो यह 3000/- में ही मिल जाते है. औसतन एक पशु की कीमत 8000/-, उसे काटने से मिला मांस 350 किलोग्राम और बीफ के मांस की भारत में औसतन कीमत 120/- रुपये किलो. तो 350 x 120/- = 42,000/- रुपये, चमड़े का दाम = 1000/- और हड्डियांं और बांंकि जंक 2000/- रूपये में यानि कुल 45000/- अर्थात फायदा (भारत में ही लगभग 6 गुना). विदेशों में निर्यात करने पर यही मांस 3 से 4 गुना दाम में (यानि कुल फायदा 25 गुना ) बिकता है. और यह निर्भर इस बात पर भी करता है कि किस देश में भेजा जा रहा हैं. किसान को मिला सिर्फ 8000/- रुपया और कत्लखाने चलाने वाले को मिला 45000/-रुपये.
भारत में हरेक कत्लखाने में 10,000 से 15,000 पशु रोजाना कट रहे हैं. औसत 12,000 पशु रोज का मानिए तो – यानी एक कत्लखाने को एक दिन में 45000/- x 12000 = 54,00,00,000/- (चौवन करोड़) रुपया. यदि साल में 320 दिन यह काम चले तो 54 करोड़ x 320= 17,280 करोड़ रुपये. इसमें ग्रॉस प्रॉफिट 14,208 करोड़. इसमें सालाना खर्च सेलेरी, मेंटिनेंस इत्यादि के 208 करोड़ और बाद करते हैं यानि सालाना नेट प्रॉफिट 14000 करोड़ का. तो सोचिये गाय का कत्लखाना चलाने वाला इसे क्यों बंद करेगा ? चाहे फिर वो हिन्दू हो या मुसलमान या फिर सरकार. सरकार खुद ही कत्लखाने खोल रही है और लाइंसेस दे रही है, तो फिर ये कैसे रुकेगा ?
ये वैध-अवैध कानून का ढकोसला बनाकर सांप्रदायिकता फैलाना और सरकारी कत्लखानों का टारगेट बढाकर निर्यात बढ़ाना, वर्तमान सरकार की चाल है ताकि वोट बैंक की राजनीति भी की जा सके !
किसी भी कानून को लाने से पहले सरकारी कत्लखाने बंद हो या फिर कानून के मुताबिक सरकारी कत्लखानों के लिए सरकारी प्रतिनिधि के रूप में प्रधानमंत्री को जिम्मेदार माना जाए और मोदी को फांसी दी जाए, बाद में ये कानून सर्वसाधारण के लिए लागू किया जाए !
गोवा में तो खुद बीजेपी बीफ का मांस उपलब्ध करवा रही है. इसके लिए राज्य के लोग गोवा की भारतीय जनता पार्टी सरकार को शुक्रिया कह रहे हैं. गोवा में हर दिन बीफ की खपत 30 से 50 टन तक है. इस वक्त गोवा सरकार अपने खुद के चेन के जरिए राज्य में बीफ बेच रही है. गोवा की कुल आबादी में ईसाई 26 पर्सेंट हैं. इनके किचन के लिए बीफ अहम है. 2013 में अखिल विश्व जय श्रीराम गो-संवर्धन केंद्र द्वारा राज्य में बीफ को बैन करने की मांग के बाद से यहां सप्लाई प्रभावित है. इसने 2013 में बॉम्बे हाई कोर्ट में एक पिटिशन दाखिल कर बीफ बैन करने की मांग की थी. संयोग से तब के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर इस केंद्र के सलाहकार थे. जब बीफ बैन के लिए कोर्ट में पिटिशन दाखिल की गई तब पर्रिकर ने इस संगठन से खुद को अलग कर लिया था. ये है इस संघी भाजपाइयों की दोगली नीति !
अब आपको कुछ संदर्भ बताते हैं –
महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है, जो गो-मांस परोसने के कारण यशस्वी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है कि –
‘राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्य वै द्विज
द्वे सहस्रे तु वध्येते पशूनामन्वहं तदा
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्रे गवां तथा
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः
अतुला कीर्तिरभवन्नृप्स्य द्विजसत्तम’
(महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10)
अर्थात — राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थी. मांस सहित अन्न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई.
इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि गो-मांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गो-वध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय. रंतिदेव का उल्लेख महाभारत में अन्यत्र भी आता है. शांति पर्व, अध्याय 29, श्लोक 123 में आता है कि राजा रंतिदेव ने गौओं की जो खालें उतारीं, उन से रक्त चू-चू कर एक महानदी बह निकली थी. वह नदी चर्मण्वती (चंचल) कहलाई.
‘चर्मराशेरूत्क्लेदात् संसृजे यतः
ततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता सा महानदी’
कुछ लोग इस सीधे सादे श्लोक का अर्थ बदलने से भी बाज नहीं आते. वे इस का अर्थ यह कहते हैं कि चर्मण्वती नदी जीवित गौओं के चमडे पर दान के समय छिड़के गए पानी की बूंदों से बह निकली. इस कपोलकल्पित अर्थ को शायद कोई स्वीकार कर ही लेता, यदि कालिदास का ‘मेघदूत’ नामक प्रसिद्ध खंडकाव्य पास न होता. ‘मेघदूत’ में कालिदास ने एक जगह लिखा है –
‘व्यालंबेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन्
स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रंतिदेवस्य कीर्तिम’
यह पद्य पूर्वमेघ में आता है. विभिन्न संस्करणों में इसकी संख्या 45 या 48 या 49 है. इस का अर्थ हैः ‘हे मेघ, तुम गौओं के आलंभन (कत्ल) से धरती पर नदी के रूप में बह निकली राजा रंतिदेव की कीर्ति पर अवश्य झुकना.’ अन्यत्र भी कहा है कि – ‘गौगव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्यते’ –अनुशासन पर्व, 88/5 अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है.
पंडित पांडुरंग वामन काणे ने लिखा है: ‘ऐसा नहीं था कि वैदिक समय में गौ पवित्र नहीं थी. उसकी पवित्रता के ही कारण वाजसनेयी संहिता (अर्थात यजूर्वेद) में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिए.’ –धर्मशास्त्र विचार, मराठी, पृ 180). ‘उष्ट्रवर्जिता एकतो दतो गोव्यजमृगा भक्ष्याः’ –मनुस्मृति 5/18 मेधातिथि भाष्य अर्थात – ऊंंट को छोडकर एक ओर दांवालों में गाय, भेड़, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात खाने योग्य है.
सिर्फ साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए अब गाय का इस्तेमाल करने वाले ये जर्मन और युरेशियन आर्यन लोग आज अपनी मांं को तो पूछते नहीं, मानव को मानव नहीं समझते, मगर गाय को माता कहकर ढिंढोरा पीटते हैं !
(उपरोक्त नोट्स लिखने में अनेक स्रोतों से जानकारिया ली गई है ).
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