[भारत में फासीवाद का उदय आरएसएस जैसी संस्था और उसके द्वारा वर्षों से समाज में जड़ जमाने वाली विभिन्न संगठनों के माध्यमों से हुआ है. इसको बल तब मिला जब हजारों लोगों के खून से सने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा देश की सत्ता पर काबिज हो गई. मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में पिछले चार साल के परिदृश्य पर नजर डाले तो यह साफ हो जाता है कि अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक चरित्र धारण किये भारत में फासीवाद जुमलों से लैस होकर, धर्म का सहारा लेकर, देश की जनता को गुमराह कर फासीवाद के बर्बर दलदल में धकेल दिया है. भारत में फासीवाद के उदय को समझने के लिए जर्मनी में फासीवाद के उदय के कारणों को समझना जरूरी है. शिवानी के द्वारा 2013 ई. में लिखित यह पड़ताल आज भाजपा रूपी फासीवादी ताकतों और संसदीय वामपंथियों की विफलता या कहेें गद्दारी को समझने के लिए प्रसांगिक है.]
पिछले दो आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार के साथ देश भर में बुद्धिजीवियों और प्रबुद्ध मध्यम वर्ग का एक हिस्सा इस बात को लेकर बेहद खुश था कि भारतीय जनता पार्टी के रूप में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की पराजय हुई है और फ़ासीवादी ख़तरा टल गया है लेकिन 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद के दावेदार के रूप में पेश करने के साथ ही तमाम प्रबुद्ध हलकों में आसन्न फ़ासीवादी उभार को लेकर ख़ासी चिन्ता है, जो कि ग़ैर-वाजिब भी नहीं है. हालांंकि यहांं इस बात की ओर भी ध्यानाकर्षण की ज़रूरत है कि चुनावों में फ़ासीवादी ताक़तों की हार को स्वयं फ़ासीवाद की पराजय मानना एक ख़तरनाक खुशफहमी ही हो सकती है इसलिए फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में निश्चिन्तता का शिकार हो जाना और इसके विरुद्ध वैचारिक, राजनीतिक- सांस्कृतिक प्रत्याक्रमण में ढिलाई बरतना आत्मघाती साबित हो सकता है. भारत में फ़ासीवाद की चुनौती को समझने और उससे लड़ने की तैयारी में फ़ासीवाद के उभार के इतिहास के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों का विश्लेषण, इन अर्थों में इसलिए बेहद ज़रूरी बन जाता है. इसके मद्देनजर ही, जर्मनी में, जहांं फ़ासीवाद के उदय, विकास और सुदृढ़ीकरण का सबसे प्रातिनिधिक उदाहरण देखने को मिलता है, फ़ासीवादी उभार की स्थितियों और प्रक्रियाओं पर निगाह डालना उपयोगी होगा.
फ़ासीवाद के भारतीय संस्करण की परिघटना को समझने के लिए जर्मनी में, जहांं पर फ़ासीवाद सम्भवतः अपने बर्बरतम अवतार में सामने आया, फ़ासीवाद के उभार के कारणों की पड़ताल सबसे महत्वपूर्ण प्रारम्भिक बिन्दु है. आम तौर पर फासीवादियों के विषय में एक मिथक जो काम करता है वह यह है कि वे पागल, असांस्कृतिक, उन्मादी, झक्की होते हैं लेकिन जर्मनी का उदाहरण यह स्पष्ट रूप से दिखलाता है कि वहांं फासीवादियों की कतार में पागल या सनकी लोग शुमार नहीं थे. यह एक दीगर बात है कि फ़ासीवादी विचारधारा “दूसरे” (अदर) के मिथकीय भय से पैदा हुई असुरक्षा को आधार बनाकर उन्माद को जन्म देती है और फ़ासीवादी ताकतें सचेतन तौर पर, बेहद ठण्डे और निर्मम तरीके से इस उन्माद को समाज के अलग-अलग हिस्सों में फैलाती हैं. बहरहाल, जर्मनी में, फ़ासीवादी कतारों में बेहद पढ़े-लिखे लोगों की तादाद मौजूद थी जो समानता, जनवाद और आज़ादी के मूल्यों के सचेतन विरोधी थे. जर्मनी में फासीवादियों को तमाम सामाजिक तबकों का समर्थन प्राप्त था. इनमें नौकरशाह वर्ग, कुलीन वर्ग, अकादमिकों, बुद्धिजीवियों (विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल के टीचर, लेखक, पत्रकार, वकील, डॉक्टर, वैज्ञानिक आदि) की अच्छी-ख़ासी संख्या शमिल थी.
इसके अलावा, जो सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है वह यह कि जर्मनी में फ़ासीवाद को बड़े पूंंजीपति वर्ग का ज़बर्दस्त समर्थन प्राप्त था. पूंंजीपति वर्ग के जिस हिस्से ने हिटलर की राष्ट्रीय समाजवादी मज़दूर पार्टी (नात्सी पार्टी) को सबसे पहले समर्थन दिया था, वह था जर्मन भारी उद्योगों का मालिक पूंंजीपति वर्ग. बाद में पूंंजीपति वर्ग के दूसरे सबसे बड़े हिस्से निर्यातक पूंंजीपति वर्ग ने भी हिटलर को अपना समर्थन दे दिया और इसके बाद उद्योग जगत के बचे-खुचे हिस्से ने भी नात्सी पार्टी को समर्थन दे दिया.