फीस बढ़ोतरी को वापस करने की लड़ाई जेएनयू के छात्रों ने जीत लिया है. यह एक राहत की बात होगी क्योंकि इससे 40 प्रतिशत से ज्यादा वे छात्र जो इस बढ़ी हुई फीस को अदा नहीं कर सकते थे, अब फिर से कैम्पस में रह सकेंगे. परन्तु, फासिस्ट शासकों के निशाने पर जेएनयू फिर भी रहेगा और इसके साथ ही जेएनयू को उखाड़ फेंकने साजिशें भी अनवरत् चलती रहेगी.
सवाल है कि आखिर शासकों के निशाने पर जेएनयू ही क्यों है और देश के अन्दर से शासकों के अलावे जेएनयू को उखाड़ फेंकने का सवाल भी आम लोगों के बीच तैरती क्यों रहती है ? शासकों के विरोध को समझा जा सकता है क्योंकि वह देश की आम आवाम को अशिक्षित बनाना चाहती है. और खासकर 2014 ई. में केन्द्र की सत्ता पर काबिज नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देशद्रोही संघी शासक तो देश की जनता को खासकर दलित, पिछड़ा, आदिवासियों को शिक्षा से कोसों दूर रखकर मनुस्मृति को संविधान की जगह स्थापित करना चाह रहा है, परन्तु यह आश्चर्यजनक है कि देश के अन्दर से जेएनयू के खिलाफ माहौल बन रहा है.
जेएनयू के छात्र-छात्राओं के खिलाफ अनर्गल बातें जनमानस के बीच बिठायी जा रही है. मसलन, 3000 कंडोम, 2000 देसी-विदेशी मदिरा, 3-4 हजार सिगरेट, 1-2 हजार नमकीन, 500 नशे की सिरिंज व रोल, चिकेन व मटन (हड्डियां), उन्मुक्त सैक्स वगैरह-वगैरह जैसी बेमतलब की बातें फैलायी जा रही है, और यह सब महज इत्तेफाक नहीं है. इसके पीछे एक सोची-समझी साजिश के अतिरिक्त एक विशाल जन समूह भी काम कर रहा है, जो उच्चस्तरीय शिक्षा पाने में नाकाम रहे हैं और अब अपनी भडास निकाल रहे हैं.
जेएनयू के खिलाफ कौन ?
सवाल यह भी उठता है कि यह जनसमूह आखिर आते कहां से हैं ? क्या आसमान से टपक पड़े हैं या केवल संघियों के साजिशों से उपजे हैं ? नहीं. इसके पीछे एक सामाजिक मनोविज्ञान भी काम करता है, वह है असफल होने का दंश. हर छात्रों को शिक्षा पाने के उपरांत अपने भविष्य की चिन्ता होती है. वह अपने भविष्य को सुरक्षित रखना चाहता है. इसलिए हर छात्र प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करता है. चाहे वह इंजिनियरिंग का हो या मेडिकल का, परन्तु इस तमाम प्रतियोगिता के वाबजूद उसके भविष्य की कोई गारंटी नहीं होती कि वह अपनी योग्यता के अनुरूप रोजगार पा ही लेगा जबकि इसके लिए वह अपने परिजनों के लाखों रूपये खर्च कर डालते हैं. इसके उलट जेएनयू भारत का वह एक मात्र संस्थान है जिसमें राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में सफल हो लेने के बाद नाममात्र धन खर्च कर हर छात्र का भविष्य सुरक्षित हो जाता है. पर अगला सवाल यहीं उठ खड़ा होता है कि प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले छात्रों के अतिरिक्त सफल न होने वाले छात्रों का क्या होता है ? वह क्या करता है ?
यही पर सामाजिक मनोविज्ञान काम करता है. वह असफल छात्र यदि कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि का हुआ तो अपनी असफलता का कलंक अपने माथे पर चस्पां किये घर वापस लौट आता है और लोगों के बीच उपहास का पात्र बनता है या अन्य प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने लगता है. कई छात्र तो आत्महत्या तक कर लेते हैं. वहीं दूसरी ओर सम्पन्न आर्थिक पृष्ठभूमि वाले छात्र लाखों रूपये प्रतिवर्ष खर्च कर निजी शिक्षण संस्थान की ओर चला जाता है, जिसका आक्रोश वह असफल छात्र जेएनयू के ऊपर ही निकालता है.
यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपनी स्थापना काल 1969 से आज तक के 50 सालों के बाद साल-दर-साल ऐसे असफल होने वाले छात्रों की संख्या बढ़कर आज एक पूरी पीढ़ी बन गई है. असल में असफल होने वाले ये छात्र ही मुख्य तौर पर संघियों के शिक्षा विरोधी मुहिम को समर्थन देने वाली संघी सरकार के लिए जमीन मुहैय्या कराता है.
विकल्प क्या है ?
जेएनयू के खिलाफ लगातार होने वाले केन्द्रीयकृत हमले को रोकने का इससे बेहतर और कोई विकल्प नहीं है कि देश के हर राज्य में जेएनयू सरीखे विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाये, वरना जेएनयू के खिलाफ दिन-प्रतिदिन होने वाले बढ़ते हमलों से बचाव का और कोई बेहतर विकल्प नहीं है, इसके वाबजूद कि भारतीय फासिस्ट शासक ने शिक्षा के मूलभूत ढांचे पर ही हमला कर दिया है. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चस्तरीय शिक्षा तक के द्वार सदा के लिए देश की आम अवाम के बंद किया जा रहा है, इसलिए शिक्षा को बचाने वाली ताकतों को इस मांग को पूरजोर तरीके से उठाना ही होगा कि देश के बजट का 25 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर खर्च किया जाये ताकि देश की तमाम आबादी को प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चस्तरीय शिक्षा तक मुफ्त मिल सके. जेएनयू के बचाव का यही एक बेहतर विकल्प है, वरना जेएनयू के खिलाफ आये दिन होने वाले फासिस्ट हमलों से हम जेएनयू को कब तक बचा पायेंगे, कहा नहीं जा सकता.
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