फैज की कविता पर कुछ विचारधारात्मक अंतर्विरोध हैं. खासकर पढ़े-लिखे उदारवादियों में. उनमें भी खासकर हिन्दू उदारवादी और साम्यवादियों में. कानपुर विवाद के बाद से ही अब बाड़ सी आ गई है कि फैज की कविता का पाठ किया जाए. कविता धार्मिक हो या सेक्युलर उसके पाठन का अधिकार देश के प्रत्येक नागरिक को है. कोई हनुमान चालीसा पढ़े या अजान पढ़े इस देश का संविधान सबको बराबर अधिकार देता है. इसलिए कानपुर में फैज की कविता पर जो जांच बिठाई गई है वो बेमतलब की है. हास्यास्पद है. लेकिन यहां एक चीज गौर करने की है कथित कम्युनिस्ट और लिबरल जिनका वैचारिक जन्म हिन्दू धर्म की कुप्रथाओं पर सवाल करते हुए ही होता है और वैचारिक चरमोत्कर्ष हिन्दू धर्म को नकारने के साथ अगली सीढ़ी पर पहुंचता है, वही कट्टर इस्लाम पर बोलने की बात आती है ये तो अजीब-अजीब तरह की थेथरोलॉजी देने लगते हैं. तब इनका साम्यवाद इनके नवोन्मेषी “थेथरवाद” में घुस जाता है. कार्ल मार्क्स बुरका में घुपक जाता है. लेनिन किसी मस्जिद में आलती-पालथी मारकर बैठे किसी काजी की भाषा बोलने लगता है. तब इनका स्टालिन भी किसी मौलवी के कुर्ते की गांठ में दुपक कर मर गया होता है.
मेरी ही लिस्ट में ऐसे बहुत से मुस्लिम हैं जो मुस्लिमों के अति-धर्मावलंबी होने पर चिंता जाहिर करते हैं, जो लगातार इस्लामिस्ट कट्टरपंथियों से भी गाली खाते हैं. लेकिन वहीं ये कथित लिबरल उलुल-जुलूल तर्क गड़ने लगते हैं और मुस्लिम कट्टरवाद की ओर प्रेम भरी नजरों से गजलें लिखने बैठ जाते हैं. ऐसा करने का कारण है, इन्हें एक भीड़ मिलती है, एक ऑडियन्स मिलती है. ऐसा करके वह इस्लाम का समर्थन नहीं कर रहे होते हैं बल्कि इस्लाम में प्रगतिशीलता के बीजों को कुंद कर रहे होते हैं, इस्लामिस्ट कट्टरपंथियों को कुछ समय के लिए वैचारिक रूप से तुष्ट करके ऐसे लोग इस्लाम की ही आने वाली पीढ़ियों के अपराधी हैं. ऐसा करके ये लोग इस्लाम मानने वालों को केवल सिर्फ और सिर्फ अंधेरे में धकेल रहे हैं.
फैज की कविता ‘हम देखेंगे’ जिस आलोक में लिखी गई थी वह एक राज्य के खिलाफ थी, एक शासक के खिलाफ थी. लेकिन वह कविता एक शासक को उखाड़ने की ताकत एक दूसरे साम्राज्य से लेती है जो धर्म का साम्राज्य है! जो इश्वर का साम्राज्य है. जो राजा से भी ज्यादा व्यापक और खतरनाक है. पाकिस्तानी शासन के खिलाफ जब ये कविता लिखी गई थी तब लड़ाई सरकार बनाम प्रजा तो थी, लेकिन प्रजा का नेता वहां इश्वर घोषित किया गया, कोई संविधान नहीं. वहां राजा से लड़ने के लिए इश्वर का सहारा लिया गया, एकतरह से वह लड़ाई राजा बनाम इश्वर थी.
भारत में भी अंग्रेजों के खिलाफ देशवासियों को लामबंद करने के लिए बालगंगाधर तिलक ने हिंदुत्व का सहारा लिया था. इसके लिए उन्होंने 1893 में शिवाजी महाराज और गणेश चतुर्थी की बड़ी बड़ी रैलियां निकालना शुरू किया. ऐसा करने से कुछ हद तक हिन्दू एकत्रित भी हुए. लेकिन उसका परिणाम क्या हुआ? जिस भीड़ को आधुनिक विचारों के माध्यम से अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया जा सकता था, जिस भीड़ को एक लोकतांत्रिक भीड़ में बदला जा सकता था, उसे धर्म के नाम पर खड़ा किया गया. ये एक सरल तरीका था जो श्रम रहित था. लेकिन इसके अपने दुष्परिणाम निकले, जो लोग धर्म के नाम पर अंग्रेजों से लड़ सकते थे, विभाजन के टाइम पर मुस्लिमों से लड़ाने के लिए भी उन्हें ही यूज किया गया. यही कारण है कि धर्म को राजनितिक आंदोलनों से जितना दूर रखा जाए बेहतर है.
धर्म के उपयोग से तत्कालिक रूप से भीड़ तो जुटती है लेकिन इससे अतिधार्मिकता को जन्म मिलता है, जिससे अंततः उसी कौम को नुकसान होता है जिससे इसका जन्म हुआ होता है. जैसे तिलक और सावरकर के हिंदुत्व ने इसी देश का नुकसान किया, जैसे जिन्ना ने पाकिस्तान का किया. लोग जब धर्मावलम्बी होते हैं तो उनसे काम निकालने की अत्यधिक संभावनाएं होती हैं. उनमें गजब की ऊर्जा होती है, लेकिन ये ऊर्जा न्यूक्लियर की तरह होती है. जिसकी शक्ति इसके मास्टर के हाथ में होती है जो ‘न्यूक्लियर बम’ बनाए तो मुल्क के मुल्क उड़ा दे, आदमी की सभ्यताओं को खत्म कर दे. जो न्यूक्लियर पावर प्लांट बनाए तो बड़े से बड़े और छोटे से छोटे गांव में बिजली पहुंचा दे.
डा. अम्बेडकर ने अपनी किताब ‘जाति का उन्मूलन’ यानी ‘एन्हिलिशन ऑफ़ कास्ट’ में जाति और धार्मिक कट्टरता का एक ही इलाज बताया है- ‘धर्म का खात्मा’, समूल रूप से नहीं तो राजनीति से धर्म का खात्मा हो, आंदोलनों से हो. धर्म को जितना अधिक निजी रखा जा सके उतना ही ठीक है. लेकिन पूरे दिन अम्बेडकर को ढोने वाले बहुत से लोग कट्टर इस्लाम पर बोलते समय अम्बेडकर पर ही ताला मार देते हैं. वही अम्बेडकर जो इस्लाम की बुराइयों और उनके अति धर्मावलम्बी होने पर बोलने से नहीं चूंके.
जो लडकियां-औरतें जामिया के शाहीनबाग़ में डेरा डाले हुए हैं, इन्कलाब के नारे लगा रही हैं. उन पर सदियों से होने वाले शोषण का कारण भी धर्म ही है. उन्हें मालुम ही नहीं कि जिस काले कपड़े से उन्हें पैर से लेकर आंख तक ढक दिया जाता है उसके पीछे भी धर्म ही है. लेकिन लिबरल चाहे तो इसे भी पर्सनल चॉइस और पोलीटिकल कमेन्ट कहकर नकार सकते हैं.
फैज जो लड़ाई लड़ रहे थे वह अपनी ताकत अल्लाह की सत्ता से ले रही थी. भारत में जो लड़ाई है वह अपनी ताकत संविधान से ले रही है. ये दोनों बातें बहुत अलग हैं. भले ही मुस्लिमों पर होने वाले हमले उनके धर्म विशेष से होने के कारण हों. लेकिन इस कारण से एनआरसी की लड़ाई आइडेंटिटी की लड़ाई नहीं हो जाती. अगर ये आइडेंटिटी की लड़ाई है तो भारत पर मुस्लिमों ने भी वर्षों शासन किया है और उस दौरान होने वाले धार्मिक अत्याचार किसी से छुपे हुए नहीं है. इस तरह के तर्कों में बाबरी का ढहाना भी सही ठहरा दिया जाएगा. ऐसी लड़ाई का कोई अंत नहीं. जो भी लिबरल इसे आइडेंटिटी की लड़ाई बता रहे हैं, मुस्लिमों की लड़ाई बता रहे हैं वह मुस्लिमों को एक अंतहीन लड़ाई में धकेल रहे हैं.
फैज की एक जिस पंक्ति पर विवाद है वह है कि ‘सब बुत उठवाए जाएंगे’ इसके अलावा भी कुछ पंक्तियों हैं जिन पर कुछ लोगों को आपत्ति है. मेरा सवाल है कि क्यों नहीं हो सकती आपत्ति ? क्या फैज की कविता भी वेदों की तरह अपौरुषेय है ? जो किसी इश्वर ने लिखे हैं ! पुरुष ने नहीं, इसलिए उसमें गलतियां नहीं हो सकतीं ?
इस्लाम में बुतों को उखाड़ने का एक पूरा रिवाज रहा है. मक्का की पहली लड़ाई ही बुतपरस्ती के खिलाफ थी. जिन कबीलों में मोहम्मद रहा करते थे, वह बुत पूजक थे ! मूर्तीपूजक थे ? इस्लाम का पहला जिहाद ही बुतों को तोड़कर ही शुरू हुआ था. फैज की कविता जिन बुतों को उखाड़ने की बात करती है, वह सांकेतिक हो सकती है लेकिन पाकिस्तानी कौम में, जहां की अधिकतर आबादी उसी मजहब के मानने वालों की है और धर्मों की नहीं. लेकिन भारत में इन पंक्तियों के तमाम मतलब हैं ! अरब से जब पहला इस्लामी आक्रमणकारी कासिम आया तो उसने सबसे पहले घोषित किया कि ये लड़ाई ‘बुतपरस्तों के खिलाफ जिहाद है’. उसके बाद गजनी से गजनवी आया, उसने भी सबसे पहले सोमनाथ के मन्दिरों की मूर्तियों को तोड़कर खुद को ‘बुत भंजकों’ की उपाधियों से नवाजा.
बाबर की सेना जब थक गई तो बाबर ने भी उस लड़ाई को ‘बुत परस्तों’ के खिलाफ लड़ाई कहकर इस्लाम मानने वालों को एकत्रित किया. इसका एक लम्बा इतिहास है जो कासिम से लेकर कसाब तक जाता है. कल एक वीडिओ देख रहा था जिसमें इस्लाम मानने वाले एक युवक ने ‘बजरंग बली’ की मूर्ती तोड़ दी, जिसे एक भीड़ ने पकड लिया. भीड़ में से कुछ लोगों ने पूछा कि मूर्ती क्यों तोड़ी ? तो उसका एक ही जवाब था कि ‘अल्लाह का आदेश था, अल्लाह ने सपने में आकर कहा’. यानी उसके लिए भी बुतों को तोड़ना इश्वर की नेक निगाह में कार्य करने जैसा है. इसलिए कहता हूं कि फैज की पंक्तियां सांकेतिक हैं लेकिन उसके अर्थ सांकेतिक भर नहीं हैं. उसके मानने वाली विचारधारा सांकेतिक नहीं है, उसका अपना एक इतिहास है .
फैज की इस कविता में एक पंक्ति है कि ‘बसनाम रहेगा अल्लाह का !’, अब फैज के अंधसमर्थक और धर्मावलम्बियों के हिसाब से ये पंक्ति भी सांकेतिक है लेकिन संविधान मानने वाले संकेतों को कब से मानने लगे? भारतीय संविधान के मूलविचार को ध्वस्त करने के लिए तो ये एक लाइन ही काफी है ! जिस संविधान के अनुसार सभी मजहबों का खून इस मुल्क में शामिल है, फिर एक इश्वर की सत्ता ही क्यों रहेगी ? मेरा एक सवाल है ! ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का’ और ‘एक ही नारा एक ही नाम, जय श्री राम, जय श्री राम’ में क्या अंतर है ? फिर ‘एक मजहब, एक झंडा, एक परिधान’ के नारे को आप इससे कैसे अलग करेंगे ?
पूरे देश में आरएसएस की शाखाओं में एक एंथम चलता है ‘नमस्ते सदा वस्तले मात्रभूमे’. ये पूरी कविता देशभक्ति से परिपूर्ण है, देश के लिए स्वयं के त्याग का उदाहरण रखती है, लेकिन इसमें एक पंक्ति है ‘त्वया हिन्दू-भूमे सुखं वर्धितोहम’ यानी एकतरह से इसमें संकेत है कि ‘भारत भूमि’ हिन्दुओं की भूमि है ! जो अपने आप में एक खतरनाक विचार है, संकीर्ण विचार है. संविधान मानने वाले सभी लोगों को इस पंक्ति से आपत्ति होगी जोकि बिल्कुल जायज भी है. लिबरल्स को भी इस पंक्ति पर आपत्ति रहती है. अब मेरा सवाल है जब आरएसएस की पूरी कविता के सार को नकारकर एक पंक्ति पर आपत्ति जताई जा सकती है तो फैज की पंक्तियों पर क्यों नहीं ? तब आप इतने डिफेंसिव क्यों हो जाते हैं ?
कुछ दिन पहले पूरे भारत में रेप कल्चर पर बहस चल रही थी. उस समय एक तर्क सामने आया कि इसके मूल में पितृसत्ता है, जिसे बढ़ावा देने में बॉलीवुड के गानों का भी हाथ है, जैसे ‘मुन्नी बदनाम हुई, डार्लिंग तेरे लिए, अमिया से आम हुई डार्लिंग तेरे लिए या ‘चुम्मा चुम्मा दे दे’. ऐसे तमाम गाने हैं जो दिखने में सामान्य हैं, सुनने में आम लगते हैं, लेकिन पितृसत्ता से लिसरे हुए हैं, जो धीरे-धीरे असर डालते हैं. फैज की कविता ‘हम देखेंगे’ देखने में बेहद क्रांतिकारी कविता है, उससे भी अधिक उसका संगीत सौन्दर्य है. जब कोई गाता है तो लगता है क्रान्ति का बांध सीने से निकलकर दिल्ली को डुबो न दे. ये कविता धर्म से ताकत लेने वाले आन्दोलनकारियों के लिए एकदम परफेक्ट है. बाल गंगाधर के लिए परफेक्ट है, जिन्ना के लिए परफेक्ट है. लेकिन गान्धी के लिए नहीं, गांधी के पास इसके अन्य विकल्प हैं, गांधी के गीतों में ‘सिर्फ नाम रहेगा राम का’ नहीं था. गांधी के गीतों में अगर इश्वर था तो अल्लाह भी था. इसका उन्होंने खूब ख्याल रखा.
जब एनआरसी के खिलाफ होने वाली ये लड़ाई संविधान बचाने की लड़ाई है तो आपको उसके मूल्यों के साथ ही लड़ना होगा. आप अनैतिकता के विशाल साम्राज्य का सामना अनैतिकता के ही अन्य साधन जुटाकर नहीं कर सकते हैं. अत्याचारों और भेदभावपूर्ण शासन की जान उसकी अनैतिकता रुपी टुंडी में छुपी हुई है, जिसे नैतिकता के तीर से ही भेदा जा सकता है.
ऐसी किसी भी लड़ाई के अंत में अगर नाम रहेगा तो किसी कथित ईश्वर का नहीं बल्कि ‘संविधान’ का रहेगा.
कानपुर में फैज की कविता पर जांच बिठाने की कार्यवाही गलत है, एकदम गलत है जो कि फ्रीडम ऑफ़ स्पीच और फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन के खिलाफ है. जिसके खिलाफ लड़ाई को न्यायालय में एक न एक दिन जीत लिया जाएगा, लेकिन ‘अल्लाह हु अकबर’ के नारे को सेक्युलर बताने जैसे तर्क गड़ने का मतलब है ‘एक ही नारा, एक ही नाम, जय श्री राम, जय श्री राम’ के नारों को सही साबित करना. ऐसा करके हम इस्लाम मानने वाले इनोसेंट धर्मावलंबियों को अंधेरे में डाल रहे हैं, धर्म से निकलकर कुछ और सोचने की संभावनाओं को मार रहे हैं. ऐसा करके आप उनकी आने वाली पीढ़ियों को भी धर्म के चंगुल में फसें रहने का मीठा जहर दे रहे हैं, आपको एक पल के लिए आपके लेखन, आपके भाषण के लिए भीड़ मिल जाएगी, लेकिन ऐसा करके आप एक अवैज्ञानिक मतान्धता के अंकुरों को पानी दे रहे हैं, प्लीज बचिए ऐसी सस्ती भीड़ से, सोशल मीडिया पर ऐसे सस्ते समर्थन से.
- श्याम मीरा सिंह
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