बैंकों के निजीकरण के खिलाफ बैंक कर्मचारियों के हड़ताल के बाद बैंक कर्मचारियों के रवैये पर सवाल उठना शुरू हो गया है और उनके आन्दोलन का मजाक बनना भी. यह कहना नहीं होगा कि यही बैंक कर्मचारी मोदी सरकार का प्रबल समर्थक भी रहा है और ताली-थाली बजाने वालों में सबसे आगे भी. नोटबंदी जैसे जनविरोधी कानूनों का समर्थक ये बैंककर्मी देशभक्ति से लहालोट रहते थे, यहां तक कि काॅरपोरेट घरानों के नौकर बने नरेन्द्र मोदी की सरकार के जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जब देश की जनता अलग-अलग ही सही, पर प्रतिरोध का स्वर उठा रहे थे, तब भी ये बैंककर्मी अपनी नियती को नहीं भांप पाये उलटे उन लोगों को ही देशद्रोही कहने में आगे थे, पर आज जब उनके पेट पर बन आई है, तब ‘हाय-हाय’ करने लगे हैं.
एक बाकया याद आ रहा है, जब मैं विश्वविद्यालय में कार्यरत एक छात्र संगठन का नेतृत्व कर रहा था. तत्कालीन कुलपति के द्वारा फीस बढ़ोतरी के खिलाफ जब छात्रों ने आन्दोलन का शंखनाद फूंका था, उससे पहले से ही शिक्षकों का अपने वेतन वृद्धि को लेकर आन्दोलन चल रहा था, जिसका किसी भी स्तर पर कोई सुनवाई नहीं किया जा रहा था. ऐसे में उभरते छात्र आन्दोलन से भी समर्थन हासिल करने की गरज से आन्दोलनकारी शिक्षकों के प्रतिनिधियों ने तय किया कि वे अपने आन्दोलन के साथ छात्र आन्दोलन का भी समर्थन हासिल करें.
छात्र आन्दोलन का समर्थन लेेने के लिए उन्होंने छात्र संगठनों के प्रतिनिधियों को चैम्बर आॅफ काॅमर्स में आयोजित एक मीटिंग में आमंत्रित किया. उस आमंत्रित सदस्यों में एक मैं भी था. छात्र आन्दोलन का समर्थन हासिल करने के लिए आन्दोलनकारी शिक्षकों ने छात्रों की कुछ मांगों को भी अपनी मांगों में शामिल कर लिया. मैंने भी छात्र-शिक्षक एकता पर जोर देते हुए शिक्षकों की छात्रों के साथ उत्पन्न कुछ समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा था कि आगे भी छात्र और शिक्षक की एकता बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि शिक्षक भी छात्रों की समस्याओं पर ध्यान देते रहे. छात्रों के शिक्षकों का आन्दोलन में शामिल होने के बाद शिक्षकों का आन्दोलन और ज्यादा तेज और असरदार हुआ. फलतः शिक्षकों का आन्दोलन सफल हुआ और उनकी मांगों को मान लिया गया.
इसके कुछ दिन बाद एक छात्र जो शिक्षकों के इस आन्दोलन में शामिल था और हमारे संगठन का सदस्य भी था, इस आन्दोलन के कारण ही पुलिस लाठीचार्ज में घायल हो गया था, हमारे पास आया और उसने जो बताया वह चकित कर देने वाला था. वह लाॅ काॅलेज में एडमिशन लेने गया हुआ था, जो घायल होने के कारण निर्धारित तिथि से थोड़ा बिलम्ब हो गया था. जब वह अपना एडमिशन फार्म भरा तो लाॅ-काॅलेज के प्रिंसिपल, जो शिक्षक आन्दोलन का नेता भी थे और अपने आन्दोलन में छात्रों से सहयोग लेने का प्रबल समर्थक थे, ने उनका फार्म यह कहते हुए फेंक दिया कि – एडमिशन का समय निकल चुका है और आप लेट हो चुके हैं. उस छात्र ने प्रिंसिपल को बताया कि ‘सर, लेट इसलिए हुआ कि आपके आन्दोलन में शामिल होने कारण हुई पुलिस लाठी चार्ज में मैं घायल हो गया था और डाॅक्टर से इलाज करा रहा था. यदि आपको विश्वास नहीं हो तो डाॅक्टर से पूछ लें.’ वे प्रिंसिपल ने कुछ भी सुनने से इंकार कर दिया और उसका फार्म फेंक दिया.
थक हार कर वह छात्र हमारे पास आया और उसकी बातों को सुनकर आश्चर्य में पड़ गया. भला ऐसा कैसे हो सकता है. अन्य छात्र नेताओं से तुरन्त सम्पर्क साधा और उस प्रिंसिपल से मिलने लाॅ-काॅलेज पहुंच गया. प्रिंसिपल से बात करने पर वह फिर से वही बात दुहराने लगे और उक्त छात्र का एडमिशन लेने का इंकार करने लगे. तब आक्रोश में उनको बताया गया कि ‘यह वही छात्र है जो आपके आन्दोलन में शामिल था और हम भी वही लोग हैं जिसे आप अपने आन्दोलन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था. अगर आप इस छात्र का एडमिशन नहीं लेते हैं तो प्रथम तो आगे हम आपके आन्दोलन में शामिल नहीं होंगे, और दूसरे अभी आपके खिलाफ मोर्चा खोलेंगे, फिर देखते हैं कैसे आप एडमिशन नहीं लेते हैं.’
हमारा आक्रोश तब और बढ़ गया था जब यह देखा कि जिन नियमों (लेट होने) का हवाला देते हुए वे प्रिंसिपल इस छात्र का एडमिशन लेने से मना कर रहे थे, उसी नियमों को ताक पर रखकर पहुंच-पैरवी और पैसा के दम पर दूसरे छात्रों का एडमिशन ले रहे थे. भारी बबाल के बाद उस प्रिंसिपल ने उस छात्र का एडमिशन लिया. इस घटना के बाद एक चीज जो समझ में आयी वह यह कि ‘जरूरत के समय गदहों को भी बाप और वक्त निकल जाने पर बाप को भी पहचानने से इंकार’ करने की जो लोकोक्ति समाज में व्याप्त है, वह देश और समाज को अंधकार में भी धकेलेगा.
आज जो बैंककर्मी निजीकरण के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हैं, दरअसल उसे यह जरूरत ही नहीं पड़ती अगर वे देश की आमजनों के साथ बेहतर संवाद, बेहतर व्यवहार करते. देश के आम जनों के साथ एकजुट होते और उनके भी विभिन्न आन्दोलनों में खुद को शामिल करते तो देश के आमजन भी आज खुद उनके साथ एकजुट होते और आगे बढ़कर उसके लिए लड़ते. परन्तु, दुर्भाग्य ये बैंककर्मी खुद को देश और समाज से अलग एक अपनी दुनिया बना चुके हैं, जहां किसी भी आम जनों का प्रवेश निषेध हैं.
ऐसे में केवल वे बैंककर्मी ही नहीं, कोई भी तबका जो खुद को देश और समाज से खुद को काट कर अपनी एक अलग दुनिया बना चुके हैं, उन सभी तबकों का यही हाल होने वाला है. न तो कोई उनकी सुनने वाला होगा और न हीं उनकी मौत पर कोई रोने वाला. बेहतर यही है कि समाज का हर तबका चाहे वे वकील हों, डाॅक्टर हों, छोटे कर्मचारी हों, फुटकर बिक्रेता हों, मजदूर हों, चाहे वह कोई भी तबका हों जो अपनी एक अलग दुनिया बनाना चाहते हैं, वे बैंककर्मी के वर्तमान आन्दोलन से सीख हासिल कर सकते हैं. वे खुद को काॅरपोरेट घरानों और सरकार की दलाली करने के बजाय जनता के लिए काम करने वाला बनाये, तभी सचमुच में वे सशक्त बन पायेंगे और उनकी मुसीबतों में आम जन उनके साथ खड़ी हो सकेगी, अन्यथा एक-एक कर सब मारे जायेंगे और एक तबका दूसरे तबके की मौत पर ताली बजायेगा. फासीवाद हर किसी को बारी-बारी खत्म करेगा. कल मुसलमान की बारी थी, आज किसानों-मजदूरों और बैंककर्मियों की, कल आपकी भी बारी आयेगी, बिना किसी अपवाद के.
Read Also –
‘खैरमकदम’ से शुरू होकर ‘मुर्दाबाद’ तक पहुंचने में कई वर्ष लग गए इन बाबू लोगों को
सच को सच की तरह पहचानने की कोशिश करें
‘हरामखोर लुटेरी सरकार ने हमें बर्बाद कर दिया’
‘हम सैनिकों को उतना डर आतंकियों से नहीं लगता जितना ऑफिसर का खौफ होता है’
किसी देश को धार्मिक-राष्ट्र घोषित करना यानी मूर्खों के हाथ राजपाट आना है
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]