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एक मोदीभक्त का कबूलनामा !

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एक मोदीभक्त का कबूलनामा !

गुरूचरण सिंह

ईश्वर को हाजिर-नाजिर मान कर मैं बिना किसी लालच या दबाव के, पूरे होशोहवाश में जनता की इस अदालत में बयान देता हूं कि मैं मोदी भक्त हूं, अंधभक्त हूं और वह सब हूं, जो कुछ भी मोदीभक्तों के लिए कहा जाता है. इसके बाद और कुछ कहने की जरूरत तो नहीं क्योंकि अगर मैं मोदी भक्त हूं तो एक देशभक्त, राष्ट्रप्रेमी, धर्म और संस्कृति का रक्षक भी तो मैं खुद-ब-खुद हो जाता हूं. यकीन मानिए, मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं है भक्त या अंधभक्त पुकारे जाने से. इसके उलट मैं तो गर्व का अनुभव करता हूं, जब भी मुझे ऐसे संबोधित किया जाता है क्योंकि यही तो मेरी यूएसपी है.

सच कहूं तो पिछले सात दशकों में इतना कुछ देखा है, इतना कुछ अनुभव किया है कि आम आदमी तो अब मैं रहा ही नहीं, कोई रह भी कहां सकता है इतना कुछ देखने-सुनने के बाद. देश की आजादी के साथ पैदा हुए मेरे भी बहुत से सपने थे, बहुत-सी उम्मीदें थी. वक्त के साथ-साथ ये सभी सपने, सभी उम्मीदें एक-एक कर दम तोड़ने लगी. अचानक महसूस होने लगा कि सड़कों, पुलों, ऊंची-ऊंची इमारतों, कारखानों आदि के अस्तित्व में आ जाने के बावजूद, असल में बदला तो कुछ है ही नहीं. गौरांग प्रभुओं की जगह बस काले अंग्रेजों ने ही ले ली है. अंग्रेजों के जमाने के वही उपनिवेशी जनविरोधी कानून, और उन्हें लागू करने का वही पुराना जनविरोधी पुलसिया और सिविल अधिकारी ढांचा.

स्कूलों, कॉलेजों और अस्पतालों की संख्या ही तो बढ़ी है, उनमें बदला तो कुछ है ही नहीं, बस कुछेक का नाम बदल कर देशी नेताओं के नाम पर रख दिया गया है, उनकी सेवा का स्तर तो पहले से भी कहीं नीचे गिर गया है. ग्रामीण स्कूलों के अध्यापक तो आज भी अपनी खेती-बाड़ी के तमाम काम निपटा कर हाजरी लगाने पहुंच जाते हैं स्कूल में, महज पगार उठाने और परीक्षा में नकल करवा कर बेहतरीन परिणाम दिखाने के लिए. 8वीं कक्षा तक तो उनकी यह सिरदर्दी भी तो अब सरकार ने खत्म कर दी है, परीक्षा पास करने की अनिवार्यता हटा कर. डिग्रीधारी अविकसित दिमाग वाले लोगों का ‘उत्पादन’ करने वाली हमारी शिक्षा प्रणाली देशी विदेशी कार्पोरेटस् में नौकरी करने लायक युवक युवतियों को तैयार करती रहती है और मालिकों की मनमर्जी के मुताबिक ‘फिनिश्ड माल’ उन्हें सौंप देती है. अगर ऐसा नहीं है तो बताइए कितने अविष्कार हुए हैं आजाद भारत में ? सिलिकॉन वैली में कंप्यूटरी कंपनियों को मजबूती प्रदान करने वाले भारतीय विशेषज्ञ क्यों अपने यहां माइक्रोसॉफ्ट जैसी एक भी कंपनी नहीं बना पाए ? इंफोसिस, टीसीएस जैसी हमारी नामचीन कंपनियां केवल सेवाओं का निर्यात भर ही क्यों करती है ? हमसे एक साल बाद आजाद होने वाला चीन हर क्षेत्र में प्रगति करता हुआ, दुनिया के पांच बड़े चौधरियों और पांच बड़े हथियार निर्यातकों की क्लब में कैसे शामिल हो जाता है ?

मध्यकालीन एक सामंती युग से निकल कर लोकतंत्र का लबादा ओढ़े पेशेवर नए सामंतों यानि राजनीतिक परिवारों का उदय होते देखा है हमने. चाहे कितना भी बड़का गधा क्यों न हो, राजा तो भैया उसका बेटा, भाई ही बनेगा. ठीक ऐसे ही हमारी किस्म के लोकतंत्र में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री का बेटा,बेटी, बीवी, भाई भौजाई, भतीजा भतीजी ही उनका स्थान ले लेते हैं. अगर मोदी ने आज इसके औचित्य के साथ जुड़े बड़े-बड़े मुहावरों और खाली शाब्दिक आडंबरों को बेनकाब कर दिया है और इसके पीछे छिपी वीभत्स सत्ता लोलुपता को उजागर कर दिया है तो क्यों न हम उसकी हर बात बात को वेद वाक्य की तरह मानें ? भले ही कुछ लोगों को मोदी एक फूहड़ और अनपढ़ संघ प्रचारक ही क्यों न लगे, मगर जब वह बोलता है तो बस वही बोलता है, किसी दूसरे की हिम्मत नहीं होती कि उसके सामने चूं तक भी कर सके. बेशक वह झूठ बोलता है, इतिहास के तथ्यों को भी तोडता-मरोड़ता है, फिर भी वह जो भी बोलता है, सीधे दिल को छू लेता है क्योंकि पहले के नेताओं की तरह वह अपने मकसद को सिद्धांतों और आदर्शों की चाशनी में लपेट कर नहीं परोसता बल्कि जो भी कहता है, सीधे-सीधे कहता है, डंके की चोट पर कहता है, ‘कड़ी धूप है इस राह पर, तुम अगर चल सको, तो चलो’.

जिस संविधान की कसम उठा कर देश के शासन की बागडोर संभाली जाती है, उसी संविधान की कदम-कदम पर धज्जियां उड़ाई जाती हैं. सबके लिए एक ही तरह का कानून, फिर भी अमीर के लिए उसकी पकड़ से निकल जाने का हर तरीका मौजूद और गरीबों के लिए अदालत तक पहुंच पाना ही मुश्किल. इतना महंगा न्याय !! कई-कई मामले तो तीस-तीस साल तक भी घिसटते रहते हैं, फिर भी बदकिस्मती से उसमें फंसे किसी गरीब को इंसाफ नहीं मिल पाता और ‘इंसाफ को खरीद सकने की ताकत रखने वाले रसूखदार आदमी’ के लिए तो रात को भी अदालत लग जाती है, बेल मिल जाती है. मोदी जी ने मामलों को जल्दी निपटाने के लिए अगर कुछ जजों को बदल डाला, कुछ को उनकी औकात दिखा दी तो क्या गलत किया ?? आम जन को जो साफ-साफ दिखाई देता है, वह उन जजों को दिखाई क्यों नहीं देता ?? नहीं चाहिए न्याय की देवी की तरह आंख पर पट्टी बांध कर न्याय करने वाले न्यायाधीश. और इसमें हम मोदी जी के साथ हैं !

विचार की राजनीति करने का दम भरने और सिद्धांत बघारने वाले वामपंथियों ने अपनी प्रतिबद्धता से और दिखाई देती ईमानदारी से एक विकल्प की उम्मीद जरूर जगाई रखे थी नौवें दशक तक लेकिन उसके बाद तो किसी दूसरी पार्टी से उनका कोई फर्क ही नहीं रहा, लिहाज़ा हाशिए पर चली गई यह. दूसरी समाजवादी पार्टियों में तो बस टूटन ही टूटन ! ‘इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा !’ कोई पचास टुकड़ों में बंट गया यह ‘बुद्धिजीवी संगठन.’ कुछ ने बंदूक उठा ली और कुछ कथित ‘बुर्जुआ पार्टियों’ के पिछलग्गू बन गए और कुछ स्वयंभू किंगमेकर बन गए. आखिर क्या उखाड़ लेंगे मोदी का ये ‘मेढ़कों का ढेर’ मुट्ठी भर बुद्धिजीवी ?? बकते रहें न ये ‘अर्बन नक्सली’ जो भी बकना है. खुद ही थक हार कर बैठ जाएंगे क्योंकि जिन लोगों के समर्थन की जरूरत होती है सत्ता में आने के लिए वहां तो इनकी पहुंच है ही नहीं. वहां तो किसी भी काम नहीं आने वाली इनकी लफ्फाजी. वहां पर तो बस मोदी मैजिक ही चलता है.

ऊधव लाख समझाए वृंदावन की गोपियों को कि निरंकार ब्रह्म ही सत्य है, उसी का ध्यान करो तुम्हें मुक्ति मिलेगी. कृष्ण तो नश्वर है, एक आकर्षक देह मात्र है लेकिन गोपियां तो ठहरी गोपियां, भाव लोक में ही जीने वाली. वे भला कहां समझने वाली थीं. वे तो पलट कर उसी से पूछती है, ‘निरगुन कौन देस कौ वासी ? इससे पहले कि वह कुछ और कहे, वे अपना निर्णय और मजबूरी भी बता देती हैं, ‘ऊधौ, मन न भए दस बीस ! एक हू तौ गयो श्याम संग, कौऊ अराधे ईस !!’ और अगर गोपियां नहीं समझ सकीं ऊधव जैसे महाज्ञानी की बात तो हम जैसे सीधे-साधे मोदी भक्त भला कैसे समझ पाएंगे ऐसे ‘बुद्धिजीवियों’ की बात ?

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