कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
1995 में लोकसभा सचिवालय ने कांग्रेसी शासनकाल में जनसंघ के संस्थापक डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के जन्मदिन पर 6 जुलाई को एक पुस्तिका प्रकाशित की. इसके दो पिछले संस्करण 1993 और 1994 में प्रकाशित हो चुके थे. 18 पृष्ठों की पुस्तिका में डाॅ. मुखर्जी को स्वतंत्र, सार्वभौम भारत के इने-गिने संस्थापक पिताओं में से एक कहा गया है. डाॅ. मुखर्जी ने स्वतंत्रता संग्राम में कभी हिस्सा नहीं लिया. उन्हें एक दिन की भी जेल नहीं हुई. वे असाधारण बौद्धिक प्रतिभा के धनी जरूर थे, लेकिन उन्हें स्वतंत्र सार्वभौम भारत के पिताओं में नहीं गिना जाता. शिक्षाशास्त्री, सांसद, संविधानविद, देशभक्त और हिन्दूवादी नेता के रूप में उनका महत्व और यश रहेगा. उनके राजनीतिक वंशज अपने समर्थकों के साथ तीन सौ की संख्या के ऊपर पहुंच गए हैं जबकि पहले आम चुनाव में डाॅ. मुखर्जी की पार्टी जनसंघ के कुल तीन सांसद लोकसभा में पहुंचे थे.
यदि कोई किताब डाॅ. मुखर्जी को लेकर संसदीय लोकतंत्र में नये सवाल उछाले तो जिज्ञासाएं इस महत्वपूर्ण भारतीय को जांच के कटघरे में खड़ा भी करना चाहेंगी. इस पुस्तिका पर तत्काल विवाद नहीं उठा, जबकि वह विवाद आमंत्रित करती है. उसमें आजादी के आन्दोलन के सन्दर्भ में कांग्रेस को जी भरकर कोसा गया है और विमोचन समारोह में कांग्रेसी सांसद ताली बजाते रहे. उसमें डाॅ. मुखर्जी के लिए चुनिन्दा अतिरंजनाओं का इस्तेमाल करते कई गुणों को गूंथा गया. कई ऐतिहासिक भूमिकाओं से लैस किया गया जिन्हें वे खुद लेने मुकर गए थे. पुस्तिका संसदीय लेखन का हिस्सा बन गई है. लोकसभा के अध्यक्ष तथा नरसिंहराव सरकार के संसदीय कार्य मंत्री ने पुस्तिका पढ़ने की जहमत उठा ली होती तो उसे रोका या संशोधित किया जा सकता था.
दिलचस्प पुस्तिका कहती है, ‘1924 में डाॅ. मुखर्जी कांग्रेस टिकट पर कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए. 1937 में दुबारा निर्वाचित हुए. (इन्हीं दिनों) मुस्लिम लीग से स्पष्ट और जीवन्त राष्ट्रीय हितों की कीमत पर तथा डाॅ. मुखर्जी के स्वाभाविक राष्ट्रवाद के खिलाफ होने से उसने उनके कर्मयोगी को जागृत कर दिया.’ इस कालजयी (?) वाक्य के जरिए कांग्रेसी प्रधानमंत्री के नेतृत्व में लोकसभा सचिवालय ने भाजपा-समर्थक चमत्कार किया.
बड़बोली पुस्तिका गवेषणात्मक स्थापनाएं करती है. नहीं बताती कि डाॅ. मुखर्जी आज़ादी की लड़ाई तो क्या किसी भी आन्दोलन में शरीक हुए अथवा उन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने कभी गिरफ्तार भी किया. आगे सूचना है ‘यह उनके ही प्रयत्नों का परिणाम था कि आधा पंजाब और आधा बंगाल भारत के लिए बच गया. यह उनकी प्रसिद्ध उक्ति को स्पष्ट करता है, ‘कांग्रेस ने भारत का विभाजन किया और मैंने पाकिस्तान का.’ भारत विभाजन बीसवीं सदी में सबसे बड़ी त्रासदी बनकर आया. आधा बंगाल और आधा पंजाब बचा कैसे ? पश्चिम बंगाल भारत को उनके प्रयत्नों के कारण मिला-कैसे कहा जा सकता है ?
11 अप्रेल, 1947 को बंगाल से केन्द्रीय धारा सभा के ग्यारह सदस्यों ने वायसराय को ज्ञापन देकर भारत संघ के तहत पश्चिम/उत्तर बंगाल के पृथक तथा स्वायत्त प्रदेश के गठन की मांग की. डाॅ. मुखर्जी ने 13 मई 1947 को बंगाल के एकीकरण को गांधीजी के कथित आशीर्वाद को लेकर जिरह की. गांधीजी ने पूछा डाॅ. मुखर्जी बंगाल के एकीकरण के क्यों खिलाफ हैं ? डाॅ. मुखर्जी ने उत्तर दिया कि भले ही सुहरावर्दी इस थ्योरी के छद्म लेखक हैं, लेकिन यह ब्रिटिश हुकूमत की ही सूझ है. गांधीजी ने व्यंग्य से कहा कि क्या इस थ्योरी के लेखक की वजह से ही डाॅ. मुखर्जी को आपत्ति है. गांधीजी के अनुरोध पर डाॅ. मुखर्जी ने कहा ‘बंगाल का हो चुका विभाजन एक सत्य है.’ गांधीजी ने फिर टोका कि ‘यदि पश्चिम और पूर्वी बंगाल के लोग पारस्परिक सहमति व्यक्त करेंगे, तब ही बंगाल का एकीकरण होगा, अन्यथा नहीं.’ डाॅ. मुखर्जी ने गांधीजी से पूछा था ‘यदि हिन्दुओं का बहुमत भारत और मुसलमानों का बहुमत पाकिस्तान के साथ जाना चाहेगा, तब क्या होगा ?’ महात्मा का दो टूक उत्तर था, ‘तब बंगाल का विभाजन होगा लेकिन तब भी विभाजन बंगाल के लोगों की पारस्परिक सहमति से होगा, ब्रिटिश हुकूमत द्वारा नहीं. अभी जो विभाजन (भारत का) ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किया जा रहा है, उसे रोका जाना है.’
क्या गांधीजी ने पश्चिम बंगाल को नहीं बचाया जिस इलाके में वे आज़ादी मिलने के समय घूम रहे थे ? इसे केवल डाॅ. मुखर्जी के प्रयत्नों का परिणाम लोकसभा सचिवालय की पुस्तिका कहेगी और इतिहास तथा देश मान लेंगे ? नरसिंहराव शासनकाल की इस नायाब इतिहास पोथी का यह अंश अलिफलैला के किस्सों की तरह अनूठा, मनोरंजक और गुदगुदाने वाला है। ये महान् (!) सूचनाएं एकत्रित करने के बाद देश समझ जाएगा कि नरसिंहराव और अटलबिहारी क्यों एक दूसरे को गुरु कहते थे ? क्यों राव के कार्यकाल में वाजपेयी को भारत रत्न के बाद का सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है ? क्यों वाजपेयी राव की पुस्तक का लोकार्पण करते हैं ?
पुस्तिका सूचित करती है, ‘वीर सावरकर के प्रभाव में वे हिन्दू महासभा में शामिल हुए और उसे राष्ट्रविरोधी ताकतों को मात देने का औजार बनाया. 1939 में वे हिन्दू सभा के कार्यकारी अध्यक्ष बने और उन्होंने भारत के सम्पूर्ण स्वराज्य को हिन्दू महासभा का लक्ष्य बनाया.’ यह घोषणा तथ्यपरक और इतिहाससम्मत नहीं है. किन राष्ट्रविरोधी ताकतों के खिलाफ हिन्दू महासभा ने डाॅ. मुखर्जी (या वीर सावरकर) के नेतृत्व में अक्टूबर 1939 से 1951 तक (जब डाॅ. मुखर्जी ने अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना की) संघर्ष किया है ? हिन्दू महासभा के सामने तीन राष्ट्रविरोधी ताकतें थीं – (1) कांग्रेस (2) मुस्लिम लीग (3) अंग्रेज. इनमें पहले दो हिन्दू महासभा के अनुसार राष्ट्रविरोधी थे और अंग्रेज राष्ट्र के अतिथि. हिन्दू और मुसलमान आपस में चाहे जितना लड़े हों, आजा़दी की जंग में उन्होंने कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों का मुकाबला किया था. इस ‘तुच्छकार्य’ में हिन्दू महासभा का उन्हें कोई सहयोग नहीं मिला.
यह शोध पत्रिका (?) प्रकाशित करती है, ‘डाॅ. मुखर्जी के हिन्दू महासभा में शामिल होने का महात्मा गांधी ने स्वागत किया. उन्होंने माना मालवीय जी के बाद किसी को हिन्दुओं की अगुआई करने की ज़रूरत थी. गांधी ने उनसे कहा था, ‘पटेल हिन्दू दिमाग के कांग्रेसी हैं और तुम कांग्रेसी दिमाग के हिन्दू महासभाई बन जाओ.’ क्या यह गांधी ने 1939 में कहा होगा ? बकौल केदारनाथ साहनी डाॅ. मुखर्जी गांधीजी से इलाहाबाद में मिले थे. फिर गांधी की सलाह पर भारत छोड़ो’ आन्दोलन में डाॅ. मुखर्जी ने भाग नहीं लिया. महात्मा चाहते थे कुछ नेता देश का नेतृत्व करने जेल से बाहर रहें.’ के.आर. मल्कानी कहते हैं, ‘1939 में जब श्यामाप्रसाद राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हुए, तो गांधीजी ने उन्हें कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया लेकिन उन्होंने हिन्दू महासभा में सम्मिलित होना चुना.’
गांधी जी यह सब क्या करते रहते थे ? जो डाॅ. मुखर्जी उनके कहने से कांग्रेस में शामिल नहीं हुए, उन्हें गांधीजी 1942 के आन्दोलन से दूर रहने की सलाह देने की फुरसत में बैठे थे ? क्या गांधीजी ने डाॅ. मुखर्जी को सलाह दी कि बंगाल के गर्वनर को ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के खिलाफ लिखें ? देश गांधीजी के कहने पर ‘करो या मरो’ कह रहा था. डाॅ. मुखर्जी आन्दोलन में शरीक नहीं होकर मंत्रिमण्डल में थे. मुस्लिम लीग की तर्जे बयां पर हिन्दू महासभा के नेता बयान दे रहे थे. यह भी गांधी के कारण ? यही गांधी जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी को अगस्त 1947 में केन्द्र सरकार में शामिल होने का न्यौता देते हें तो वे ’राष्ट्रहित’ में मान जाते हैं. क्या संसदीय सचिवालय अफवाहें, किंवदतियां और किस्से गढ़ने की टकसाल है ? डाॅ. मुखर्जी ने मुख्यमंत्री नहीं बन पाने के कारण सम्भवतः इस्तीफा दिया था – ऐसा भी कहा जाता है.
गांधीजी डाॅ. मुखर्जी के राष्ट्रवादी नजरिए के बारे में क्या सोचते थे ? 17 दिसम्बर 1946 को डाॅ. राधाकृष्णन को लिखे पत्र में गांधीजी कहते हैं, ‘काश वे हिन्दू (महा) सभा के कर्ताधर्ता के रूप में उतने ही मर्यादित होते जितने वे योग्य और बुद्धिमान प्रशासक हैं.’ श्यामाप्रसाद मुखर्जी को गांधीजी द्वारा पुस्तिका के अनुसार ‘उदार’ और ‘कांग्रेसी दिमाग’ का बताया है. 13 अक्टूबर 1941 के अपने पत्र में गांधीजी मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में शिकायत करने वाले डाॅ. मुखर्जी को स्पष्ट करते हैं कि छुआछूत की समस्या हिन्दू धर्म में सबसे अधिक विकराल है. ‘बुराई की जड़ धर्म के भ्रष्टाचार में है. यदि तुम्हें यह समझ में नहीं आता तो इस मामले में लगे रहो जब तक कि हम नतीजों को लेकर सहमति नहीं बताते.’ यह था गांधी का दिया गया प्रमाण पत्र !
इससे आगे बढ़कर गांधी ने 1 सितम्बर 1947 को सरदार पटेल को लिखे पत्र में कलकत्ता में हो रहे साम्प्रदायिक दंगों के पीछे हिन्दू महासभा का हाथ होने का उल्लेख किया. उन्होंने पश्चिम बंगाल सरकार को समझाइश भी दी कि शरारती तत्वों को गिरफ्तार करने के पहले श्यामाप्रसाद मुखर्जी और निर्मलचंद्र चटर्जी से बात ज़रूर की जाए. 2 सितम्बर 1947 को जब डाॅ. मुखर्जी गांधीजी से मिलने आए तो गांधी ने साम्प्रदायिक दंगों की स्थिति पर गहरी चिन्ता व्यक्त की. सुहरावर्दी ने जब गांधी से अनशन त्यागने का अनुरोध किया तो बापू ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘मैं अपना उपवास तभी खत्म करूंगा जब डाॅ. मुखर्जी मुझे रिपोर्ट देंगे कि कलकत्ता शांत हो गया है – उसके पहले हर्गिज नहीं.’ यह थी गांधी की श्यामाप्रसाद मुखर्जी के ’उदार और पूर्णतः राष्ट्रवादी’ दृष्टिकोण के बारे में अकाट्य राय !
पुस्तिका आगे फिर फरमाती है, ‘अखिल भारतीय कांग्रेस की मुस्लिम लीग के प्रति तुष्टीकरण की नीति स्पष्ट और जीवंत राष्ट्रीय हितों की कीमत तथा डाॅ. मुखर्जी के स्वाभविक राष्ट्रवाद के विपरीत होने से उनके अंतर में कर्मपुरुष का उदय हो गया.’ फिर अगली सांस में, ‘जिस तरह उन्होंने मंत्रिपद को लात मारी उससे यह सबको स्पष्ट हो गया कि यह एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे कर्तव्य के रास्ते से कोई प्रलोभन नहीं डिगा सकता है.’ पुस्तिका ही लगातार ये तथ्य भी सूचित करती है. डाॅ. मुखर्जी 1924 में कांग्रेस टिकट पर 23 वर्ष की उम्र में विधान परिषद के सदस्य बने.
‘1930 में जब कांग्रेस ने विधायिका के बाॅयकाॅट का फैसला किया तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया और निर्दलीय सदस्य चुने गए. 1934 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने. 1937 के चुनाव होने पर विश्वविद्यालय निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद के सदस्य चुने गए. उन्होंने मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार को लीग में दो फाड़ करके तथा गैर कांग्रेसी हिन्दू शक्तियों को एक कर मिलाजुला मंत्रिमण्डल बनवाया और उसमें वित्तमंत्री बने. पुस्तिका के ही अनुसार वे इस पद पर 1943 तक रहे. 1939 में हिन्दू महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे. संविधान सभा के सदस्य बने. अगस्त 1947 में श्यामाप्रसाद को गांधीजी ने राष्ट्रीय सरकार में गठित होने का न्यौता दिया. इसके पहले गांधीजी ने उनको वायसराय की कार्य परिषद का सदस्य मनोनीत करने की नामजद सिफारिश की. और किसी के लिए ऐसी सिफारिश नहीं की.’
19 अप्रेल 1950 को उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दिया. 1 अक्टूबर 1951 में वे जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष बने. 1952 के पहले लोकसभा चुनाव वे दक्षिण कलकत्ता से जनसंघ के सांसद बने. उड़ीसा की गणतंत्र परिषद्, पंजाब के अकाली दल, हिन्दू महासभा और कई निर्दलीयों को मिलाकर उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक दल (राजद) गठित किया और लोकसभा में उसके नेता बने.’ पुस्तिका बताती है ‘संसद के बाहर उनका समर्थन देखकर लगता था वे ही सरकार के असली विरोधी हैं.’ यह है पदों से उदासीनता का उसी पुस्तिका का ब्यौरा ! आज़ादी की लड़ाई में एक भी सड़क आन्दोलन किए बिना, गिरफ्तार तक हुए बिना, संसद में कुल तीन जनसंघी सांसदों के साथ पहुंचने पर यह सब कैसे हो सकता है ?
ऐसा नहीं कि डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी साधारण व्यक्ति थे. उनकी देशभक्ति, बौद्धिकता, कर्मठता और सिद्धान्तप्रियता का महत्व इतिहास में सदैव अंकित रहेगा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को उन घटनाओं, निर्णयों तथा नीतियों का श्रेय देना जिसके वे प्रवक्ता नहीं रहे, इतिहास के साथ-साथ खुद डाॅ. मुखर्जी के साथ अन्याय करना है. पुस्तिका उन्हें अंग्रेजी भाषा का विरोधी तथा बांग्ला का समर्थक घोषित करती है और खुद होकर बताती है कि उन्होंने पैट लाॅवेल के अंग्रेजी पत्र कैपिटल के लिए ‘डिच’ (खाई या नाली) के नाम से नियमित काॅलम लिखा. यही नहीं उन्होंने कलकत्ता से ‘दी नेशनलिस्ट’ नामक अखबार भी निकाला. उन्होंने संविधान में हिन्दी का सशर्त समर्थन किया, खुलकर नहीं.
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