भाजपा नेता और राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यन स्वामी ने अहमदाबाद में चार्टर्ड आकउंटेंट के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा है कि केन्द्र की मोदी सरकार सीएसओ के अधिकारियों पर अच्छे आंकड़े देने के लिए दबाव डालती है. बकौल सुब्रमण्यम, ‘कृपा करके जीडीपी के तिमाही आंकड़ों पर न जाएं. वे सब फर्जी हैं. यह बात मैं आपको कह रहा हूं क्योंकि मेरे पिता ने सीएसओ की स्थापना की थी. हाल ही में मैं केन्द्रीय मंत्री सदानन्द गौड़ा (सांख्यिकी मंत्री) के साथ वहां गया था. उन्होंने सीएसओ अधिकारियों को आदेश दिया क्योंकि नोटबंदी पर आंकड़े देने का दबाव था इसलिए वह जीडीपी के ऐसे आंकड़े जारी कर रहे हैं, जिससे यह पता चल सके कि नोटबंदी का कोई असर नहीं पड़ा. मैंने सीएसओ के निदेशक से पूछा था कि आपने उस तिमाही में जीडीपी के आंकड़ों का अनुमान कैसे लगाया था जब नोटबंदी का फैसला लिया गया था ? उस निदेशक ने बताया था कि वह क्या कर सकते हैं ? वह दबाव में थे. उनसे आंकड़े मांगे गए और उन्होंने दे दिए.
ऐसा नहीं है सुब्रमण्यन स्वामी कोई भला आदमी है, या उसके दिल में भारत की आम आवाम के दुःख को देखकर कोई हृदय परिवर्तन हो गया है. दरअसल भाजपा गुंडों और हत्यारों का एक ऐसा समूह है, जिसका एक आदमी हत्या करता है, दूसरा उस हत्या पर अफसोस जताता है और लोगों के आक्रोश को ठंढ़ा कर दूसरे दिशा में मोड़ने की कोशिश करता है, तीसरा, जांच की मांग करता है, चैथा, उस हत्या को सही ठहराता है, पांचवां उस हत्यारे को देशभक्त घोषित कर भारत रत्न देने की मांग करता है, और छठा, उसे भारत रत्न प्रदान कर हत्या के लिए उक्त पीड़ित को ही दोषी ठहरा देता है. लेकिन ये तमाम एक ही गिरोह के अलग-अलग मूंह हैं, पर सभी का धड़ एक ही होता है. सुब्रमण्यन स्वामी भी इन हत्यारों के गिरोह का एक ऐसा ही मूंह है, जो मोदी सरकार के जनविरोधी नीतियों से उजड़ चुके लोगों के आक्रोश को ठंढ़ा करने का काम करता है क्योंकि अब माहौल ही ऐसा हो चुका है कि मोदी सरकार की नीतियों के कारण उजड़ चुके परिवार और लोगों के बीच भाजपा का पालतू मीडिया घराना अब और दिग्भ्रमित करने की स्थिति में नहीं है और इसका पोल पूरी तरह खुल चुका है.
फिर कह रहा हूँ कि 2014 के पहले की सरकार होती, तब का मीडिया होता और तब के पीएम का ये बयान सामने होता तो GDP के रसातल में जाने के बाद दिन भर चैनलों पर इनसे सवाल पूछा जाता . इन्हीं का ये वीडियो दिखाकर .
अब ? किसी में हिम्मत नहीं . अगर कोई हिम्मत दिखा दे तो उसकी खैर नहीं . https://t.co/1Ss7p9t4Z1— Ajit Anjum (@ajitanjum) December 3, 2019
एक अनपढ़ हत्यारा जब देश की सत्ता पर काबिज हो जाता है तब वह देश के तमाम संस्थानों को अपने कब्जे में कर लेता है, ठीक यही बात अनपढ़ हत्यारा मोदी पर भी लागू होता है. यही कारण है कि वह देश-विदेश के तमाम विख्यात अर्थशास्त्रियों को बेवकूफ ठहराने की हिमाकत किया था, परन्तु अब जब उसकी मूर्खता की पोल पूरी दुनिया के सामने खुल चुका है, तब वह अब आंकड़ों की हेराफेरी कर देश की जनता को मूर्ख बना रहा है, जब इससे भी बात नहीं बन पा रही है तब वह सीधे तौर पर आंकड़े ही छिपा रहा है, ताकि किसी को इस आंकड़ों के बारे में पता न चल सके. विदित हो कि मोदी सरकार देश की दुव्र्यवस्था की तमाम आंकड़े छिपा रही है. शिक्षा पर होने वाले आंकड़े जारी नहीं कर रही है, किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े सार्वजनिक नहीं होने दे रही है, इसी तरह हत्या और बलात्कार तक के आंकड़े देश से छिपा रही है.
यही कारण है कि देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों, जिसमें योजना आयोग के पूर्व सदस्य ए. वैद्यनाथन, अभिजीत सेन, सी.पी. चंद्रशेखर समेत कई जाने-माने अर्थशास्त्री, प्रोफेसर, बिजनेस पत्रकार शामिल हैं, सरकार से एनएसएसओ के सभी आंकड़े सार्वजनिक करने की मांग की है. 214 अर्थशास्त्रियों ने अपने ब्यान सार्वजनिक कर कहा है कि अब तक एनएसएसओ के जितने सर्वे पूरे हो चुके हैं, उनकी रिपोर्ट सार्वजनिक किये जाए. इसमें खासतौर पर 2017-18 में 75वें राउण्ड के उपभोक्ता खर्च सर्वे की रिपोर्ट को खास तौर पर सार्वजनिक करने की मांग की है.
मोदी का हार्ड-वर्क
अंग्रेजी अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि 2017-18 में उपभोक्ता खर्च के आंकड़े बताते हैं कि औसत उपभोग में भारी गिरावट आई है. जिसे सरकार इसलिए जारी नहीं कर रही है क्योंकि इसमें सरकारी दावों के उलट आर्थिक कमजोरी की तस्वीर उभर रही है, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने अब ऐलान कर दिया है कि इस सर्वे को सार्वजनिक तौर पर जारी नहीं किया जायेगा.
राष्ट्रीय एकाउंट अनुमान सिर्फ प्रशासनिक आंकड़ों पर निर्भर नहीं करता, बल्कि इसमें एनएसएसओ समेत और भी सर्वेक्षणों को शामिल किया जाता है. अगर कोई गड़बड़ी है तो उसकी जांच करने के लिए कई समितियां होती हैं. अर्थशास्त्रियों के मुताबिक उपभोग सर्वे देश में गरीबी और असमानता को मापने और इसके चलन को समझने के लिए जरूरी है. यही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आय को मापने के लिए भी ये एक जरूरी सर्वे होता है.
देश में सांख्यिकीय संस्थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से अलग रखने की दरकार है ताकि सभी आंकड़े स्वतंत्र रूप से जारी हो सके. अर्थशास्त्रियों ने आरोप लगाया है कि इस मामले में मोदी सरकार का स्कोर बहुत कमजोर है. बयान के मुताबिक हाल तक भारत के पास सांख्यिकीय व्यवस्था पर गर्व करने के कई कारण थे और छैैव् द्वारा जमा किए जाने वाले आंकड़े दुनिया के दूसरे मुल्कों के लिए एक चमकदार उदाहरण होता था.
अर्थशास्त्रियों ने आरोप लगाया कि इस सरकार ने ऐसे गौरवशाली सांख्यिकीय संस्थानों की विश्वसनीयता पर हमला किया है क्योंकि सर्वे के नतीजे अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार के बयानों से मेल नहीं खाते थे. बिना कोई कारण बताए सरकार इन रिपोर्ट्स को दबाकर बैठ गई है. आपको बता दें कि लोकसभा चुनाव तक सरकार ने श्रम बल के सर्वेक्षण को जारी नहीं होने दिया, जबकि सरकार के इस रवैये के खिलाफ राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया. इस सर्वेक्षण के कई हिस्से मीडिया में पहले ही छप गए थे, लेकिन तब सरकार ने इन आंकड़ों को मानने से इनकार कर दिया था. रिपोर्ट जारी होने के बाद सरकार के दावे गलत साबित हुए.
इसके बाद सरकार ने उपभोक्ता खर्च के 75वें राउंड, पेयजल, स्वस्च्छता और हाउसिंग कंडीशन के 76वें राउंड और PLFS के चैमाही सर्वेक्षण के आंकड़ों को भी जारी नहीं किया. अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि इन सर्वेक्षणों को अंजाम देने में भारी खर्च होता है जो करदाताओं की जेब से लिए जाते हैं, इसलिए नागरिकों को आधिकारिक आंकड़ा जानने का हक है. सरकार के लिए भी ये उल्टा साबित हो सकता है क्योंकि उसे अर्थव्यवस्था के वास्तविक चलन का अंदाजा नहीं होगा और वो उचित नीति बनाने में नाकामयाब साबित होगी.
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