किसी समय भारत के आंंकड़ों पर पूरी दुनिया में भरोसा किया जाता था और आंंकड़े इकट्ठा करने वाले संस्थानों को बहुत सम्मान से देखा जाता था. पिछले चार-पांंच साल में इस मामले में भारत की इज्जत पर बट्टा लगा क्योंकि कई बार आंंकड़े ग़लत पाए गए और यह भी कहा गया कि इन आंंकड़ों से छेड़छाड़ जानबूझ कर और राजनीतिक कारणों से की गई ताकि सरकार और सत्तारूढ़ दल को दिक्क़त न हो. इस मामले में भारत की प्रतिष्ठा एक बार फिर गिरी जब यह पाया गया कि सकल घरेलू अनुपात के आकलन के लिए दिए गए आंंकड़े ग़लत थे.
कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉरपोरेट अफ़ेयर्स या एमसीए) ने जो आंंकड़े दिए और जिन्हें एमसीए-21 सिरीज कहा जाता है, जिस पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) जोड़ा जाता है, उसे ग़लत पाया गया है, उसमें कई तरह की ख़ामियांं पाई गई हैं.
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस (एनएसएसओ) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जीडीपी आकलन जिस सर्वे पर किया गया है, उसका 39 प्रतिशत डाटा बेनामी कंपनियों का है.
बेनामी कंपनियों का खेल
तकनीकी तौर पर इन्हें ‘कवरेज एरिया से बाहर’ कहा जाता है, यानी ये वे कंपनियांं हैं, जिन्होंने कामकाज बंद कर दिया है. इसके अलावा 12 फ़ीसदी ऐसी कंपनियांं हैं, जिन्हें ढूंढा नहीं जा सका. कुछ लोगों का कहना है कि ये शेल कंपनियांं या बेनामी कंपनियांं हैं. शेल कंपनियों का कोई वजूद नहीं होता है, वे सिर्फ़ काग़ज़ पर होती हैं. शेल कंपनियों का मक़सद कर चुराना, हवाला कारोबार से पैसे दूसरे देश से लाना या दूसरे देश को भेजना और दूसरे कई तरह के ग़ैर क़ानूनी काम करना होता है.
पूर्व एनएसएसओ प्रमुख और पूर्व राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग प्रमुख पी. सी. मोहानन का कहना है कि दरअसल एमसीए-21 के आंंकड़ों की पड़ताल नहीं की गई. यह पड़ताल केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) को करना था. पर उसने ऐसा नहीं किया. समस्या की शुरुआत यहीं से हुई.
इंदिरा गांंधी इंस्टीच्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर आर नागराज ने अंग्रेज़ी अख़बार बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा कि सीएसओ को इन आंंकड़ों की सत्यता की पड़ताल करनी थी, पर उसने ऐसा नहीं किया. यह रिपोर्ट सीएसओ के लिए बेहद बुरी बात है.
इसके पहले सीएसओ ने बेरोज़गारी और अर्थव्यवस्था के जो दूसरे आंंकड़े दिए थे, वे भी ग़लत पाए गए थे और इस पर सीएसओ की काफ़ी बदनामी हुई थी.
आलोचना इस बात की हो रही है कि बहुत बड़ी तादाद में ऐसी कंपनियांं हैं जो वजूद में हैं, पर कामकाज नहीं कर रही हैं.
‘कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा’
भारत के चीफ़ स्टैटिशियन प्रणव सेन ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा कि इससे जीडीपी पर कोई असर नहीं पड़ेगा. पहले जितनी शेल कंपनी हम मानते थे, दरअसल उससे अधिक शेल कंपनियांं हैं, सिर्फ़ इतना फ़र्क पड़ा है.
ग़लत आंंकड़ों पर आधारित जीडीपी की ख़बर फैलते ही सरकार डैमेज कंट्रोल में लग गई. उसने दावा किया है कि फ़र्जी और बेनामी कंपनियों के वजूद में होने की वजह से जीडीपी पर कोई असर नहीं पड़ेगा. उसका तर्क है कि भले ही शेल कंपनियांं हों, पर कामकाज तो हुआ ही है. शेल कंपनियांं कर चुराने के लिए बनाई गईं और इन कंपनियों ने कर नहीं चुकाया. पर वे कामकाज में तो थीं, वे पूरी अर्थव्यवस्था का हिस्सा थी इसलिए जीडीपी का आकलन इससे ग़लत नहीं होगा.
एमसीए-21 सिरीज के लिए आंंकड़े दिसंबर 2017 में लिए गए और वे उसके 12 महीने पहले के सर्वेक्षण पर आधारित थे. नई सिरीज के लिए 2017-18 को आधार बनाया गया, जबकि पहले यह आधार 2011-12 था.
अर्थव्यवस्था को होगा नुक़सान
जिस समय जीडीपी आकलन का आधार वर्ष बदला गया था, उस समय भी सरकार के इस फ़ैसले की आलोचना हुई थी. यह कहा गया था कि सरकार जानबूझ कर आधार वर्ष बदल रही है ताकि जीडीपी को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जा सके. इसके बाद मौजूदा सरकार के समय की विकास दर ठीक उसके पहले की सरकार के समय की विकास दर से ज़्यादा थी.
पर्यवेक्षक भारत के साख को लगने वाले बट्टे पर भी चिंतित हैं. बीते कुछ दिनों से ज़्यादातर आर्थिक आंंकड़े ग़लत निकले हैं, चाहे वे बेरोज़गारी के हों, महंगाई दर के हों या जीडीपी के हों. इससे अंतरराष्ट्रीय जगत में यह संदेश गया है कि भारत के आंंकड़ों पर भरोसा न किया जाए. अब यदि बुनियादी आंंकड़े ही जानबूझ कर ग़लत बना दिए गए हों और वह काम सरकार करे, तो कौन भरोसा करेगा ?
लेकिन एक सवाल और उठता है कि आख़िर ऐसा हो ही क्यों रहा है ? पर्यवेक्षकों का कहना है कि ऐसा राजनीतिक वजहों से हो रहा है. नरेंद्र मोदी सरकार कुछ भी दावे करे, सच यह है कि आर्थिक मोर्चे पर वह बुरी तरह नाकाम रही है. वह इस नाकामी को छिपाना चाहती है. इसलिए सरकार आर्थिक आंंकड़े से ही छेड़छाड़ कर रही है. इसके बल पर वह बेरोज़गारी, महंगाई, कृषि और उद्योग के क्षेत्र में वृद्धि, जीडीपी की दर, सब कुछ बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रही है. इसके बल पर वह यह दावा कर रही है कि उसका कामकाज उसके पहले के मनमोहन सिंह सरकार से बेहतर रहा है. इसके सियासी मायने हैं. चुनाव के मौके पर यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है.
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