विनय ओसवाल, वरिष्ठ पत्रकार
धर्म-सापेक्ष तंत्र को लोक-सापेक्ष तंत्र ही परास्त कर सकता है, दिल्ली के चुनाव परिणाम का संदेश तो यही है”
भारतीय लोकतन्त्र में सत्ता के शीर्ष पर वही पार्टी पहुंचती है, जिसके पक्ष में मतदाताओं का बहुमत हो. सत्ताधारी पार्टी यदि इस बहुमत देने वालों के पक्ष में खड़ी दिखना चाहे तो इसमें असंवैधानिकता क्या है ? अपने विरोधियों को सत्ता यदि ‘दीमक’ बताये तो यह भी तो अभिव्यक्ति की आज़ादी ही है, इसमें असंवैधानिकता क्या है ? किसी वक्तव्य के पीछे छिपी असली मंशा की वास्तविक तस्वीर को सामने लाने की न तो कोई विधिक प्रक्रिया है और न बनाई जा सकती है.
एनएए, एनआरसी और एनपीआर को उन्हीं मतदाताओं का समर्थन हांसिल है, जिन्होंने सरकार को सत्ता सौंपी है, तो इतना बबाल इसलिए है क्योंकी मुठ्ठी भर लोगो को इसे लेकर आपत्ति है? मुठ्ठी भर लोग सही भी हो तो उसे सही बताने वालों को भी देश का गद्दार बताने वालों की बहुसंख्या है.
इसी सरकार की नाक के नीचे दिल्ली के मतदाताओं ने उसी भाजपा को खारिज कर दिया, जिसे छः माह पूर्व प्रदेश की सभी सात संसदीय सीटों पर जिताया था, तो अब दिल्ली के मतदाताओं को ‘मुफ्तखोर’ क्यों बताया जा रहा है ? यानी धर्म-सापेक्ष पार्टी, लोक-सापेक्ष पार्टी के हाथों बुरी तरह पिटने के बाद लोक-सापेक्ष नीति को मुफ्तखोरी बता अपनी खीज उतार रही है.
दिल्ली से पहले भी कई राज्यों में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने या भाजपा को कमजोर बनाने का निर्णय भी मतदाताओं ने ही लिया है. उन पर मुफ्तखोर होने का आरोप भी नहींं है. साम-दाम-दण्ड-भेद से सत्ता हासिल करना और सत्ता में बने रहने के लिए राजनैतिक कर्मकाण्ड को इस देश का संविधान नहींं लोक-सापेक्ष नीति के समर्थक मतदाताओं का बहुमत ही रोक सकता है ?
संविधान की व्याख्या का नीर-क्षीर विवेकाधिकार भी अब राजनैतिक वातावरण में व्याप्त प्रदूषण से अप्रभावित नहीं रहा है. इसके लक्षण भी अब किसी से छिपे नहींं हैं. सरकारी संस्थाओं में किसी घोटाले से सम्बंधित दस्तावेज या पत्रावलियां उपलब्ध नही है, ऐसी लचर दलील देने वाले जिम्मेदार अधिकााारियों का बाल भी बांका न हो तो, इस प्रवृत्ति का अति की ओर बढ़ना स्वाभाविक है. अब सरकारी दफ्तरों में पत्रावलियों, कम्प्यूटरों आदि की चोरी हो जाने की घटनाएं बढ़ रही हैं. इससे भी ज्यादा खतरनाक है इस बढ़ती प्रवृति को मिल रही समाज की मौन स्वीकृति.
श्रीराम, राजधर्म के सर्वोच्च न्यायाधीश हैं, अपने भक्तों के अवगुणों को नजरअंदाज कर देते है तो रामराज्य की स्थापना के लिए संघर्षरत उनके भक्तों को समाज में घृणा फैलाने का दोषी बताने का अधिकार कोई लौकिक न्यायाधीश कैसे कर सकता है ? इतनी-सी बात समझने में विफल न्यायाधीश का तत्काल तबादला किया जाना धार्मिक न्याय की परिधि में न्याय है.
औरंगजेब के सिंहासन को हिलाने में जो वंश राजनैतिक रूप से नपुंसक साबित हुए, आज उसी के वंशज सड़कोंं पर राजनैतिक रूप से मर्द होने के प्रमाण दे रहे हैं. हम जैसा समाज बनना चाहते हैंं, अपनी चुनी हुई सरकार के संरक्षण में बन रहे हैं.
रक्तहीन क्रांति के बिना सत्ता परिवर्तन हो जाना आज भी हमारे देश के लोक-सापेक्ष तन्त्र की महानतम उपलब्धि है. वर्तमान में लोक-सापेक्ष तन्त्र की सामर्थ तो यही है. धर्म-सापेक्ष तंत्र को लोक-सापेक्ष तंत्र ही परास्त कर सकता है, दिल्ली के चुनाव परिणाम का संदेश तो यही है.
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