अभी मैं आजतक न्यूज चैनल पर खबर देख रहा था तभी मैने देखा कि मेरठ में 2 अप्रैल को आयोजित भारत बंद में शामिल लड़कों को पुलिस द्वारा पकड़कर किसी थाने में बंद किया जा रहा है. उस थाने का दृश्य देखकर मैं सिहर गया. उसमें थाने की गैलरी में कई पुलिसवाले लाइन में लाठी लेकर खड़े थे और जो भी थाने में लाया जा रहा था उसे बेरहमी से एक तरफ से पीटते हुए लॉकअप में डाला जा रहा था. उसमें से ज्यादातर दलित बच्चे और कम उम्र के नौजवान थे, जो इस मार की वजह से जमीन पर गिरकर बुरी तरह तड़प रहे थे.
ठीक इसके बाद उ0 प्र0 पुलिस के एडीजी की बाइट आयी जिसमें में वह 2 अप्रैल के भारत बंद में नामजद हुए लोगों को किसी भी हालत में न बख्शने देने की धोषणा कर रहे थे. गौरतलब हो कि आंदोलनकारियों पर सरकार ने पहले से ही रासुका लगाने का आदेश दिया हुआ है. यह पूरी स्थिति देश को और विशेषकर उत्तर प्रदेश को गृहयुद्ध में ले जाने की भाजपा की एक गहरी साजिश का हिस्सा है.
दरअसल मोदी सरकार पिछले चार सालों के अपने शासनकाल में चौतरफा विफल और गैरजबाबदेह सरकार साबित हो चुकी है. चुनाव के दौरान की गयी घोषणाएं और वायदे महज जुमले बनकर रह गए है. न तो रोजगार सृजन हुआ और न ही विकास किया जा सका. पहले से ही तबाह हो रही खेती किसानी का हाल और खराब हो गया. छोटे-मझोले उद्योग बर्बाद हो गए. महंगाई लगातार बढ़ती गयी और भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगी.
इस दौरान देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को तहस-नहस किया गया और सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया गया. तमाम गैरजरूरी सवाल और अज्ञानी विद्धानों ने देश की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गहरा नुकसान पहुंचाया.
समाज के कमजोर तबकों विशषकर दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर सरकार और सत्ता के संरक्षण में हमले बढ़े हैंं. कानून के राज की जगह तानाशाही चल रही है. लोकतांत्रिक प्रतिवादों तक पर बर्बर हमले हो रहे और आंदोलन के नेताओं पर रासुका लगाकर जेल में बंद किया गया है. उ0 प्र0 में भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर की गिरफ्तारी और उनका दमन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.
सरकार की इस नाकामियों के विरूद्ध जनता में गहरा आक्रोश है. इस आक्रोश की विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्तियां हो रही है. महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश समेत कई राज्यों में किसान आंदोलन के रूप में, आंध्र प्रदेश व तेलगाना में विशेष आर्थिक पैकेज के रूप में, गुजरात में पाटीदार व दलित आंदोलन तथा देश में व्यापारियों, नौजवानों, कर्मचारियों, मजदूरों के आंदोलनों में यह दिखता है.
2 अप्रैल को एससी-एसटी एक्ट, 1989 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमजोर करने के खिलाफ दलितों द्वारा किया गया भारत बंद भी इसी आक्रोश की अभिव्यक्ति थी. इस बंद में स्थापित पार्टियों और नेताओं के बिना ही बड़े पैमाने पर दलित नौजवानों और कर्मचारियों ने भागेदारी की और इसे सफल बनाया.
इस बंद में दलितों ने जो सवाल उठाए हैंं वह महज दलितों के सवाल नहीं अपितु देश के हर इंसाफपसंद नागरिक का सवाल है.
सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि जांच के बाद ही एससी-एसटी एक्ट में एफआईआर दर्ज होगी और इससे वह इस एक्ट के दुरूपयोग को रोकना चाहता है, कहां तक जायज है. आप खुद सोचे यदि यह नियम मान लिया जाए तब तो आईपीसी और सीआरपीसी को लागू करना ही असम्भव हो जायेगा.
सीआरपीसी साफ कहती है कि किसी अपराध के घटित होने की सूचना प्राप्त होने पर उसकी प्राथमिक सूचना रिपोर्ट लिखकर तत्काल विवेचना शुरू की जाए. प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की अनिवार्यता के सम्बंध में खुद सुप्रीम कोर्ट ने ही दर्जनों आदेश दिए हुए है. तब रिपोर्ट से पहले जांच करना और अनुमति प्राप्त करने की बात विधि के विरूद्ध है.
यहीं नहीं व्यवस्था यह है कि मामले की विवेचना के बाद पुलिस चार्जशीट न्यायालय में दाखिल करती है और न्यायालय मामले को गुण दोष और साक्ष्यों के आधार पर निस्तारित करता है. कोई अभियुक्त महज आरोप लगाने से दोष सिद्ध नहीं हो जाता. तब विधि द्वारा स्थापित इस व्यवस्था के विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट का आया आदेश ब्रह्मवाक्य नहीं है और उसका विरोध कानून के राज को स्थापित करने की लोकतांत्रिक मांग की अभिव्यक्ति है. विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान की रक्षा की इस मांग का समर्थन करना संविधान में विश्वास करने वाले हर नागरिक का दायित्व है.
यही वजह है कि वामपंथी, जनवादी, जनपक्षधर सभी संगठनों और आंदोलनों ने इस बंद का समर्थन किया लेकिन भाजपा और संघ जिनका देश के संविधान में शुरू से ही विश्वास नहीं रहा है और जो लगातार तानाशाही को स्थापित करने का प्रयास करते रहे हो, ने इस अवसर पर देश में जातीय ध्रुवीकरण पैदा करने और इसके जरिए अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने का घृणित खेल खेला.
जहां-जहां उसकी सरकारें रही पुलिस और प्रशासन की मदद से दमन कराया गया. जुलूसों में संघ के लोगों ने घुसकर उपद्रव किए. सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया और हिंसा की. इस बात को खुद विभिन्न चैनलों ने अपनी रिपोर्टों में दिखाया है. इस हिंसा में मरने वाले ज्यादातर दलित ही रहे है. अब इसी हिंसा का सहारा लेकर पुनः दमन किया जा रहा है. मेरठ में योगी सरकार की पुलिस द्वारा किए जा रहे दमन का यह हदृयविदारक दृश्य इसका एक उदाहरण है.
– दिनकर कपूर
जन मंच उ0 प्र0 से साभार