हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
इधर, अमेरिका एक दिलचस्प वैचारिक संघर्ष के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है. आप इसे कारपोरेटवाद की निर्मम संरचना के भीतर उभरते संरक्षणवादी और समाजवादी आग्रहों के बतौर भी देख सकते हैं. बाजारवाद की सर्वग्रासी प्रवृत्ति के खिलाफ उभरते जन असन्तोष के एक संकेत के रूप में भी देख सकते हैं.
अमेरिका में एक बहस शुरू हुई है कि बड़ी कंपनियां, जो प्रतिद्वंद्वी छोटी कंपनियों का अधिग्रहण कर और बड़ी होती जा रही हैं, प्रतिस्पर्द्धा को कम या खत्म करने के लिये और बाजार पर अपनी एकछत्रता स्थापित करने के लिये अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल करती हैं, यहां तक कि अपनी प्रभावी शक्ति के बल पर राजनीति और चुनावों में भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने लगी हैं, वे सामाजिक-राजनीतिक संरचना के लिये तो घातक साबित हो ही रही हैं, अंततः अर्थव्यवस्था के लिये भी नुकसानदेह साबित हो रही हैं.
नई शताब्दी के आते-आते दुनिया में कई ऐसी दैत्याकार कंपनियों का आर्थिक वर्चस्व इतना बढ़ गया कि वे छोटे और कमजोर देशों की सरकारों को बनाने-बिगाड़ने की ताकत रखने लगी हैं. जाहिर है, अपने व्यापार और मुनाफे की राह में किसी भी तरह के अवरोध को सहने की स्थिति में वे नहीं हैं, भले ही सामने कोई प्रतिद्वंद्वी कंपनी हो या कोई सरकार हो. यह उपनिवेशवाद के उस दौर की याद दिलाता है जब ताकतवर वैश्विक कंपनियों ने दर्जनों देशों को गुलाम बना लिया था और उनके आर्थिक हितों के समक्ष मानवता त्राहि-त्राहि करने लगी थी.
बदले हुए वैश्विक परिदृश्य में ऐसी कंपनियां वही खेल दोहरा रही हैं, कुछ अलग अंदाज में, कुछ अलग स्वरूप में. राजनीति को प्रभावित करने के साथ ही प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को निगल कर वे प्रतिस्पर्द्धा की संभावनाओं को ही समाप्त कर देना चाहती हैं ताकि अकूत मुनाफा कूट सकें, वह भी बेरोक टोक.
हालांकि, कारपोरेट संस्कृति के इस नकारात्मक रूप पर दुनिया भर के विश्लेषक चर्चा करते रहे हैं. यत्र-तत्र विरोधी आवाजें और आंदोलनों की अनुगूंज भी सुनाई देती रही हैं, लेकिन अब अमेरिका में जो हो रहा है उसे जन असन्तोष की ऐसी सुव्यवस्थित अभिव्यक्ति मान सकते हैं जिसके समर्थन में अनेक राज्य सरकारें तो खड़ी हो ही गई हैं, अमेरिका का संघीय व्यापार आयोग भी उठ खड़ा हुआ है.
नवीनतम मामला फेसबुक से जुड़ा है जो नए दौर की सबसे तेज बढ़ती कंपनियों में एक है और व्हाट्सएप के साथ ही इंस्टाग्राम को खरीद कर उसने अपनी शक्ति इतनी बढ़ा ली है कि प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के लिये कोई संभावना शेष नहीं रह गई है. विभिन्न देशों की राजनीति में उसके अप्रत्यक्ष किन्तु प्रभावी हस्तक्षेप ने विश्लेषकों को ही नहीं, आमलोगों को भी चौंकाया है.
बाजार की प्रतिद्वंद्विता खत्म करने में अपनी पूंजी की ताकत का इस्तेमाल करने को अमेरिका के लोगों ने ‘फेयर गेम’ नहीं माना. जाहिर है, इसके विरोध में आवाजें उठने लगीं, अखबारों में संपादकीय और लेख लिखे गए. लोगों को लगने लगा कि अकूत पूंजी की सर्वग्रासी प्रवृत्ति पर लगाम लगनी ही चाहिये, क्योंकि यह प्रवृत्ति एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा वाले समाज के लिये किसी भी सूरत में सही नहीं है.
सैकड़ों छोटी और मंझोली कंपनियां, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में जिनकी बड़ी भागीदारी है, इस मुहिम में साथ हो गईं, क्योंकि उन्हें लगा कि बाजार की ताकतों को अगर यूं ही बेलगाम छोड़ा गया तो उनका स्वयं का अस्तित्व भी एक दिन समाप्त हो जाएगा. बाजार संस्कृति के वाहक अमेरिका में ही बाजार के निर्मम सिद्धांत अब व्यावहारिकता और मानवीयता की कसौटी पर हैं. वे सिद्धांत, जिन्हें नैसर्गिक मान कर मुक्त आर्थिकी के प्रांगण में अबाध विचरण के लिये छोड़ दिया गया था, अब न्यायालय की बहसों के दायरे में हैं.
अमेरिका के संघीय व्यापार आयोग ने तो प्रतिद्वंद्वी छोटी कंपनियों के अधिग्रहण की फेसबुक की प्रवृत्ति पर केस दायर किया ही है. अमेरिका की लगभग सारी की सारी राज्य सरकारों ने भी उस पर केस दायर कर दिया है.
सवाल उठ रहे हैं कि बाजार की इस गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा में छोटी कंपनियों को भी बने रहने का हक क्यों नहीं हो ? पूंजी की ताकत को इतना बेलगाम क्यों छोड़ा जाए कि वह अपने मुनाफे की राह में आए किसी भी अवरोध, किसी भी प्रतिद्वंद्वी को समाप्त करने को उद्यत हो जाए ?
यह वैचारिक तौर पर उल्टा खड़ा होने के समान है. लेकिन तथ्य यही है कि आज अमेरिका अपनी उस वैचारिकता पर ही सोच-विचार की मुद्रा में आ गया है जिसके सहारे उसकी कंपनियों ने दुनिया भर में छोटी कंपनियों, छोटे व्यापारियों को निर्मम तरीके से खत्म किया है.
अमेरिकी संघीय व्यापार आयोग की सख्ती से नौबत यहां तक आ सकती है कि फेसबुक को इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप को मुक्त करना पड़ सकता है. अमेरिकी अखबारों में ऐसे लेख प्रकाशित हो रहे हैं जिनमें मांग की जा रही है कि दैत्याकार कंपनियों की उन स्वेच्छचारिताओं पर नियमन लागू होने चाहिये, जो छोटे व्यापारियों के अस्तित्व के लिये खतरा बन गई हैं.
आम अमेरिकी अब शिद्दत से सोच रहे हैं कि पूरी कायनात पर कब्जा जमा लेने की बड़े कारपोरेट प्रभुओं की उन हसरतों पर विराम लगना चाहिये जो अपने नीचे किसी का पनपना बर्दाश्त नहीं कर सकते. इस उभरती सोच के साथ अमेरिका के छोटे व्यापारी भी एकजुट होते जा रहे हैं. जाहिर है, कारपोरेट संस्कृति का गढ़ अमेरिका आज एक नए वैचारिक संघर्ष के मुहाने पर है और यह पूरी दुनिया के लिये शुभ संकेत है.
इस आलोक में हम अपने देश भारत के कारपोरेट परिदृश्य को देखें तो डरावनी तस्वीरें उभरती हैं. कुछेक बड़ी कारपोरेट ताकतें अपने राजनीतिक प्रभावों और अकूत पूंजी के बल पर सब कुछ हथियाने की मुहिम में लगी हुई हैं. टेलीकॉम बाजार से लेकर खुदरा व्यापार तक, रेलवे से लेकर हवाई अड्डों तक, बंदरगाहों से लेकर कोयला खदानों तक, वे हर उस क्षेत्र पर कब्जा जमाने की होड़ में हैं जो देश की आर्थिकी को उनकी मुट्ठी में कर देगा. जब देश आर्थिक मंदी का शिकार है और आमलोगों की आमदनी बढ़ने की जगह नकारात्मक अंकों में जा रही है, उन कारपोरेट प्रभुओं की सम्पत्ति में दिन दूनी रात चौगुनी का इज़ाफ़ा हो रहा है, निश्चित रूप से यह ‘फेयर गेम’ नहीं है.
किधर जा रहा है हमारा देश ? अपने राजनीतिक रसूख और पूंजी के बल पर कुछेक कंपनियां इतनी ताकतवर होती जा रही हैं कि भावी परिदृश्य के बारे में सोच कर ही सिहरन होती है. यह पूंजी और सत्ता के अपवित्र घालमेल से आकार लेती नई अर्थव्यवस्था है जो सर्वथा अग्राह्य है. इस आलोक में हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि आखिर भारत में ‘वालमार्ट’ के आगमन का इतना विरोध क्यों होता है. बड़े विदेशी बैंकों के प्रवेश का विरोध क्यों होता है.
अमेरिका में जो वैचारिकता की नई बयार की हल्की-सी आहट है, वह अगर आगे बढ़ती है तो बड़े वैचारिक संघर्षों का सूत्रपात हो सकता है. इतना तो तय है कि नवउदारवादी आर्थिकी अब अपने गढ़ यूरोप और अमेरिका में ही बहसों के दायरे में है. इसकी स्वीकार्यता पर संदेह बढ़ते जा रहे हैं. पता नहीं, यह बहस जब तक भारतवासियों को आंदोलित करेगी, तब तक ये कुछेक कारपोरेट प्रभु भारत के कितने बड़े बाजार पर कब्जा कर चुके होंगे.
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