गिरीश मालवीय
मोदी कोरोना से लड़ाई में महाभारत को याद कर रहे हैं लेकिन महाभारत में जो योद्धा लड़ने गए थे उनके पास कम से कम अपनी सुरक्षा के लिए ढाल और कवच तो थे, यहांं तो कोरोना से लड़ाई लड़ने वाले डॉक्टरों के पास PPE किट तक अवेलेबल नहीं है. WHO की गाइडलाइन्स के मुताबिक पीपीई यानी पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट में ग्लव्स, मेडिकल मास्क, गाउन और एन95, रेस्पिरेटर्स शामिल होते हैं.
देश के अस्पतालों मे PPE किट की कमी बहुत महसूस की जा रही है. ऐसी संक्रामक बीमारी के वक्त स्वास्थ्यकर्मी आम लोगों के मुक़ाबले चार गुना ज़्यादा ख़तरे का सामना कर रहे हैं.
कल इंडियन मेडिकल काउंसिल IMA के राष्ट्रीय अध्यक्ष और राज्यसभा सदस्य डॉ. शांतनु सेन ने बहुत बड़ी बात कही. उन्होंने कहा कि ‘कोरोना वायरस के खिलाफ भारत सामूहिक रूप से असफल होगा, यदि हमने डॉक्टरों, नर्सों और इलाज कर रहे अन्य कर्मियों के लिए पर्याप्त व्यक्तिगत रक्षा उपकरण (पीपीई) की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं कराई.’
देश मे PPE किट की अनुपलब्धता के पीछे की असली कहानी क्या है ? इसे मैंने खोजने का प्रयास किया है.
WHO ने कोरोना के खतरे को देखते हुए बहुत पहले ही सभी देशों को आगाह कर दिया था कि PPE किट की निर्माण सामग्री के उत्पादन को 40% तक बढाया जाए और उसकी पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित की जाए. भारत उन 30 देशों में है जहां घातक कोरोना वायरस के फैलने का उच्च खतरा बताया गया था.
ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार ने कोई प्रयास नही किये. आने वाली परिस्थितियों को देखते हुए फरवरी के पहले हफ्ते में स्वास्थ्य मंत्रालय ने डॉक्टरों और मरीजों का इलाज करने वाले अन्य मेडिकल स्टाफ के लिए 50,000 कर्मी सुरक्षा उपकरण (पीपीई) किटों का भंडारण करने का फैसला किया है हालांकि यह बहुत कम था.
दरअसल देश में जितने भी सरकारी अस्पताल है या स्वास्थ्य सेवा संगठन है, उनकी खरीद के लिए जिस एजेंसी को अधिकृत किया गया है, उसका नाम है HLL लाइफकेयर लिमिटेड. यह सिंगल विंडो सिस्टम है. नियम है कि जो भी खरीद होगी इसी एजेंसी के माध्यम से की जाएगी.
आसन्न खतरे को देखते हुए फरवरी के पहले हफ्ते में नोडल एजेंसी HLL लाइफकेयर के माध्यम से PPE किट निर्माताओं से निविदा मंगवाई गई.
एक बात क्लीयर कर देना यहांं जरूरी है कि पर्सनल प्रोटेक्टिव सूट यहां नहीं बनाए जाते लेकिन देश में उसके कच्चे माल यानी कपड़े आदि का प्रोडक्शन होता है.
वैश्विक स्वास्थ्य मानदंडों अनुसार इतने संक्रामक रोग में पर्सनल प्रोटेक्टिव सूट में 4 लेयर 4 की गुणवत्ता चाहिए होती है. इतनी गुणवत्ता विश्व की सिर्फ तीन बड़ी कंपनियों के पास है, वो है – 3M, हनीवेल और ड्यूपॉन्ट.
HLL लाइफकेयर PPE की खरीद करने में विफल रहा. निविदा किसी ने भरी ही नहीं क्योंकि विश्व भर में उसकी बेहद मांग थी और दूसरे देश चौगुनी कीमत पर इन कम्पनियों से माल खरीदते रहे और सबसे आश्चर्य की बात है कि कच्चे माल की सप्लाई भारत से की जाती रही. 8 फरवरी को सरकार ने देश की कम्पनियों को कई उत्पादों को निर्यात की छूट दे दी.
आप पूछ सकते है कि जब कपड़ा यहांं से भेजा जाता रहा तो हमने ही क्यों नही पर्सनल प्रोटेक्टिव सूट बनाने का काम शुरू कर लिया ? दरअसल जैसे कपड़ा सिला जाता है, वैसे ही इन गाउन की, दस्तानों की, मास्क की सीमिंग की जाती है, जिसमें बहुत ही खास तरह की अल्ट्रासोनिक वेल्डिंग मशीन इस्तेमाल होती है. इसके अलावा यहांं रेस्पिरेटर फिल्टर भी नहीं मिलते क्योंकि ये देश में नहीं बनते.
भारत में इस प्रकार अल्ट्रासोनिक वेल्डिंग मशीन बहुत कम है. इनकी सीमिंग की यह खासियत होती है कि वायरस जैसा सूक्ष्म जीव भी इसके आर-पार नहीं जा सकता.
बहरहाल बड़ी कंपनियों ने भारत की निविदा में इंट्रेस्ट नहीं लिया और मोदी सरकार हाथ पर हाथ रखे बैठी रही. उसने भारतीय निर्माताओं से इस बारे में बात करना तक उचित नहीं समझा.
बताया जाता है कि 5 मार्च को HLL लाइफकेयर लिमिटेड ने देशी निर्माताओं को खरीद प्रक्रिया में भाग लेने को आमंत्रित किया लेकिन वही सरकारी ढर्रा जिसके लिए देश मशहूर है. HLL की एक लैब कोयम्बटूर में है जहांं स्थानीय निर्माता को प्रोडक्ट का परीक्षण करने के लिए भेजने की शर्त लगा दी गई. अब तक यही चलता रहा कि निर्माता अपना प्रोडक्ट भेजते रहे लैब में 2 से 3 दिन आने जाने की ऐसी ही प्रक्रिया में लगते रहे. इस प्रकार मोदी सरकार ने पूरे 45 दिन इन सब प्रक्रियाओं में निकाल दिए, जो बेहद महत्वपूर्ण थे.
प्रिवेंटिव वियर मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन संजीव रेहान बता रहे हैं कि ‘एसोसिएशन ने बार-बार सुरक्षात्मक गियर को स्टॉक करने की आवश्यकता को उठाया था, जिसे नजरअंदाज कर दिया गया.’ एसोसिएशन द्वारा सरकार से कहा गया कि मुनाफाखोरी विरोधी नियमों का अनुपालन करने को कहा जाए, पर सरकार से वो भी नहीं हुआ.
रेहान ने आरोप लगाया कि भारतीय सरकार ने उनके अनुरोधों को एकदम से अनदेखा किया. उन्होंने यह भी बताया कि ‘दूसरे देश भारत से मंगाकर माल को स्टॉक कर रहे थे और भारत सरकार 19 मार्च तक पीपीई उत्पादों और कच्चे माल के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने को लेकर नींद में थी.’
बुरा लगता है यह लिखते हुए लेकिन, देश का बिका हुआ मीडिया तो यह सब सच्चाई बताता नहीं है बल्कि इसे छिपा कर सरकार की बड़ाई करने में लगा रहता है. अंंग्रेजी अखबार जरूर इस बारे में छुटपुट समाचार छाप देते हैं.
अब मोदी सरकार की कोविड -19 के संक्रमण को लेकर कितनी लापरवाही बरती जा रही थी, इसका एक प्रमाण और मिला है. अब जाकर कोरोना वायरस से पीड़ित मरीजों के इलाज में सहायक दिख रहे हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन केमिकल का निर्यात बंद किया गया है. इस रसायन से बने अन्य फॉर्मूलेशन का निर्यात भी प्रतिबंधित किया गया है. अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने भी इस दवा को प्रभावपूर्ण बताया था.
अब तक मोदी सरकार सोती रही. जब इस दवाई की उपलब्धता को लेकर मैंने एक स्थानीय फार्मासिस्ट से बात की तो उसने बताया कि कई स्थानीय चिकित्सक सामान्य सर्दी-जुकाम वाले वायरल में मरीज को ये दवा देते थे, लेकिन अब यह दवाई लोकल मार्केट में नहीं मिल रही है. इस दवाई का पिछले कुछ महीनों में बड़े पैमाने पर निर्यात हुआ है और इस कारण यहां सामान्य खांसी बुखार के मरीजों को क्लोराक्वीन बाजार में नहीं मिल रही है.
पत्रिका में छपी खबर के अनुसार कुछ ही दिन पहले मध्यप्रदेश की इप्का लेबोरेटरी को अमेरिका के हेल्थ डिपार्टमेंट से इसके बड़े ऑर्डर मिले थे, इसके कारण ये दवा बाहर भेज दी गयी और स्थानीय बाजार में मिलना मुश्किल हो गयी. रतलाम में स्थित प्लांट में इप्का ‘हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन सल्फेट’ और ‘क्लोरोक्वीन फॉस्फेट’ का एक्टिव फॉर्मास्यूटिकल इंग्रेडिएंट यानी बेसिक ड्रग बनाती है. इस बेसिक ड्रग को अन्य दवा निर्माता इकाइयां खरीदकर उससे क्लोराक्वीन की टेबलेट या सीरप जैसे उत्पाद बनाते हैं.
मोदी सरकार आंंख पर पट्टी बांधकर सोती रही. दवा कारोबारी लगातार मांग उठाते रहे कि सरकारी एजेंसियां ध्यान दें और निर्यात रोककर पहले देश को पूरा करें, ताकि पहले भारत मे इसकी पूर्ति सुनिश्चित की जा सके. कल DGFT ने आशय की घोषणा की है कि इस हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का निर्यात रोक दिया गया है. यही है कोरोना वायरस से अपने नागरिकों को बचाने में मोदी सरकार की गंभीरता.
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