कोरोना के नाम पर जनता कर्फ्यू तथा लाक डाउन की हकीकत को यहां समझ सकते हैं. ये हैं पत्रकार नवीन कुमार. आज दिल्ली में इनके साथ क्या हुआ, पढ़ लीजिए. यही होने वाला है क्योंकि राष्ट्रवाद के नाम पर वर्दीवालों को सर्वोपरि बताने वालों का बोलबाला है, आतंंक है.
प्यारे साथियों,
इस तरह से यह पत्र लिखना बहुत अजीब सा लग रहा है लेकिन लगता है कि इस तरह से शायद मेरा दुःख, मेरा क्षोभ और वह अपमान जिसकी आग मुझे ख़ाक कर देना चाहती है, उससे कुछ हद तक राहत मिल जाए. एक बार को लगा न बताऊं. यह कहना कि पुलिस ने आपको सड़क पर पीटा है, कितना बुरा एहसास है लेकिन इसे बताना जरूरी भी लगता है ताकि आप समझ सकें कि आपके साथ क्या कुछ घट सकता है, वह भी देश की राजधानी में.
कोरोना से लड़ाई में मेरे सैकड़ों पत्रकार साथी बिना किसी बहाने के भरसक काम पर जुटे हुए हैं. मैं भी इसमें शामिल हूं. आज दोपहर डेढ़ बजे की बात है. मैं वसंतकुंज से नोएडा फिल्म सिटी अपने दफ्तर के लिए निकला था. सफदरजंग इन्क्लेव से होते हुए ग्रीन पार्क की तरफ मुड़ना था, वहीं पर एक तिराहा है जहां से एक रास्ता एम्स ट्रॉमा सेंटर की तरफ जाता है.
भारी बैरिकेडिंग थी. पुलिस जांच कर रही थी. भारी जाम लगा हुआ था. मेरी बारी आने पर एक पुलिसवाला मेरी कार के पास आता है. मैंने नाम देखा ग्यारसी लाल यादव. दिल्ली पुलिस। मैंने अपना कार्ड दिखाया और कहा कि ‘मैं पत्रकार हूं और दफ्तर जा रहा हूं. मेरी भी ड्यूटी है.’ उसने सबसे पहले मेरी कार से चाबी निकाल ली और आई.कार्ड लेकर आगे बढ़ गया. आगे का संवाद शब्दश: इस तरह था –
कॉन्स्टेबल ग्यारसी लाल यादव – ‘माधर&^%$, धौंस दिखाता है. चल नीचे उतर. इधर आ.
मैं पीछे-पीछे भागा. उसने दिल्ली पुलिस के दूसरे सिपाही को चाबी दी. मेरा फोन और वॉलेट दोनों बगल की सीट पर रखे थे. मैंने कहा, ‘आप ऐसा नहीं कर सकते. अपने अधिकारी से बाद कराइए.’
कॉन्स्टेबल ग्यारसी लाल यादव – ‘मैं ही अधिकारी हूं माधर^%$.’
मैंने कहा, ‘आप इस तरह से बात नहीं कर सकते. तब तक उसने एक वैन में धकेल दिया था.
मैंने कहा, ‘मोबाइल और वॉलेट दीजिए.’
तब तक दो इंस्पेक्टर समेत कई लोग वहां पहुंच चुके थे. एक का नाम शिवकुमार था, दूसरे का शायद विजय, तीसरे का ईश्वर सिंह, चौथे का बच्चा सिंह.
मैंने कहा, ‘आप इस तरह नहीं कर सकते. आप मेरा फोन और वॉलेट दीजिए.’
तब इंस्पेक्टर शिवकुमार ने कहा, ‘ऐसे नहीं मानेगा. मारो हरामी को और गिरफ्तार करो.’
इतना कहना था कि तीनों पुलिसवालों ने कार में ही पीटना शुरु कर दिया. ग्यारसी लाल यादव ने मेरा मुंह बंद कर दिया था ताकि मैं चिल्ला न सकूं. मैं आतंकित था.
आसपास के जिन गाड़ियों की चेकिंग चल रही थी वो जुटने लगे तो पुलिस ने पीटना बंद कर दिया. मैं दहशत के मारे कांप रहा था. मैंने अपना फोन मांगा तो उन्होंने मुझे वैन से ही जोर से धक्का दे दिया. मैं सड़क पर गिर पड़ा. एक आदमी ने मेरा फोन लाकर दिया. मैंने तुरंत दफ्तर में फोन करके इसके बारे में बताया.
मैंने सिर्फ इतना पूछा कि ‘आपलोग किस थाने में तैनात हैं.’
इंस्पेक्टर शिव कुमार ने छूटते ही कहा ‘तुम्हारे बाप के थाने में.’
ग्यारसी लाल यादव ने कहा, ‘हो गया या और दूं.’
उन्हीं के बीच से एक आदमी चिल्लाया, ‘सफदरजंग थाने में हैं, बता देना अपने बाप को.’
कार में बैठा तो लगा जैसे किसी ने बदन से सारा खून निचोड़ लिया हो. मेरा दिमाग सुन्न था. आंखों के आगे कुछ नजर नहीं आ रहा था. समझ नहीं पा रहा था कि इतने आंसू कहां से आए.
मुझे पता है कि जिस व्यवस्था में हम सब जीते हैं, वहां इस तरह की घटनाओं का कोई वजूद नहीं. मुझे यह भी पता है कि चौराहे पर किसी को पीट देना पुलिस की आचार संहिता में कानून व्यवस्था बनाए रखना का एक अनुशासन है और मुझे यह भी पता है कि इस शिकायत का कोई अर्थ नहीं.
फिर भी मैं इसे इसलिए लिख रहा हूं ताकि यह दर्ज हो सके कि हमारे बोलने, हमारे लिखने और हम जिस माहौल में जी रहे हैं, उसमें कितना अंतर है. हमारी भावनाएं कितने दोयम दर्जे की हैं. हमारे राष्ट्रवादी अनुशासन का बोध कितना झूठा, कितना मनगढ़ंत और कितनी बनावटी हैं.
यह सब कुछ जब मैं लिख रहा हूं तो मेरे हाथ कांप रहे हैं. मेरा लहू थक्के की तरह जमा हुआ है. मेरी पलकें पहाड़ की तरह भारी हैं और लगता है जैसे अपनी चमड़ी को काटकर धो डालूं नहीं तो ये पिघल जाएगा. अपने आप से घिन्न-सी आ रही है.
यह सब साझा करने का मकसद आपकी सांत्वना हासिल करना नहीं, सिर्फ इतना है कि आप इस भयावह दौर को महसूस कर सकें. जब हमारी नागरिकता का गौरवबोध किसी कॉन्स्टेबल, किसी एसआई के जूते के नीचे चौराहे पर कुचल दी जाने वाली चीज है.
मैं शब्दों में इसे बयान नहीं कर सकता कि यह कितना अपमानजनक, कितना डरावना और कितना तकलीफदेह है. ऐसा लगता है जैसे यह सदमा किसी चट्टान की तरह मेरे सीने पर बैठ गया है और मेरी जान ले लेगा. और यह लिखना आसान नहीं था.
आपका साथी
नवीन.
दुःख, पीड़ा और अपमान को अपने आगोश में समेटे देश की राजधानी दिल्ली महानगर के एक हाई क्लास पत्रकार पुलिसिया बूट को अपने शब्दों में बयान कर दिये, पर इससे हजारों किलोमीटर दूर निरक्षर, गरीब परिवार के पास तो आंसू के सिवा और कुछ होता भी नहीं. उनकी चीखें पुलिसिया बूटों के नीचे दम तोड़ देती है.
परन्तु, गरीब, विवश की आंसू और पुलिसिया बूटों के नीचे दम तोड़ती उनकी चीखें किसी दिन सुकमा जैसे जंगलों में 17 खूंखार पुलिसिया बूटों के चिथड़े उड़ा देती है और शासक भले ही उसको माओवादी का नाम देकर अपना पल्ला झाड़ लेती है परन्तु, पुलिसियोंं को याद रखना होगा उसका हर जुल्म, उसके बूटों के नीचे आंसू और चीख की बारुद बिछा जाती है, जो कहीं भी और कभी भी बारुद बनकर उसके चिथड़े उड़ाने की कूबत रखता है.
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