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लॉकडाऊन : भय, भूख और अलगाव

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लॉकडाऊन : भय, भूख और अलगाव

लॉकडाऊन के नाम पर एक मजदूर की पिटाई करता पुलिस दल

गुरुचरण सिंह, पूर्व रेल अधिकारी, भारत सरकार

युगांतकारी कवि टी. एस. इलियट की प्रसिद्ध कविता वेस्ट लैंड की शुरुआत ही इस जुमले के साथ होती है, ‘April is the cruelest month’ यानि अप्रैल क्रूरतम महीना है. हालांकि ऐसा इसे व्यंजना के रूप में कहा गया है, लेकिन इस बार इसका मर्म ढूंढने की कोई आवश्यकता ही नहीं है किसी को; वह तो स्वत: स्पष्ट है, सब अंकित है. मार्च की तमाम कड़वी यादों का बोझ पीठ पर लादे भारी कदमों से आ पहुंचे इस माह के थके-मांदे चेहरे पर !

जीवन जैसे ठहर-सा गया है. दरवाजे पर अब कोई दस्तक नहीं होती. किसी का भी कोई इंतजार नहीं होता. धर्मपत्नी कहती है, जो है उसी में गुजारा करना सीखो. परिवार में पहली बार देखी बड़े भाई की मृत्यु के चलते आशंकित छोटा बेटा घर को तरह-तरह के कैमिकलों से सुरक्षित करने की जुगत में घुले जा रहा है. और उसकी परेशानी की आग में घी का काम कर रहे हैं खबरी चैनल, जिन्हें वह उठते ही लगा लेता है.

सुबह का घूमना बंद हो गया है, सो वजन भी बढ़ने लगा है. कपड़े मुंह चिढ़ाने लगे हैं. परसों मरकज़ से निकाले संदिग्ध कोरोना बीमारों की खबर का भी पता तब चला जब अक्सर खामोश रहने वाला फोन धड़ाधड़ बजने लगा. निजामुद्दीन के बगल में ही जो रहता हूं. भय, भूख और अलगाव की यह रात इतनी लंबी हो चली है कि सुबह होगी भी इस पर अब संदेह होने लगा है !

रोजी रोटी की तलाश में बड़े शहरों में आए और परिवार के लिए दो पैसे बचाने के लिए नर्क जैसे हालात में रहने वाले अचानक घोषित लॉकडाउन के चलते फंस गए मजदूर, मेहनतकश लाखों की संख्या में पैदल ही गांव की ओर चल पड़ते हैंं. रेल, बस, यातायात तो पहले से ही बंद है और शहर से बाहर जाने का समय भी नहीं दिया गया.

सड़कों पर पुलिस और दबंगों का आतंक अलग से. बस कुछ टेसुए बहाए गए और बता दिया गया कि लॉकडाउन के अलावा और कोई उपाय नहीं बचा है जैसे सुरक्षा की तमाम बाकी तैयारियां कर ली गई हों. सो पैदल ही कूच करने के अलावा और कोई रास्ता बचा था क्या ? अगर मरना ही है इस लाइलाज बीमारी से तो अपनों के बीच ही मरेंगे. चार कंधे तो मिल जाएंगे शमशान पहुंचाने के लिए !

भय की बात जानबूझ कर उठाई है हमने क्योंकि बीमारियों का रिकॉर्ड देखें तो पता चलेगा कि कोरोना वायरस से होने वाली मृत्यु दर सभी दूसरी बीमारियों से कम है. एड्स, चेचक, खसरा, हैजा, जुकाम निमोनिया जैसी श्वसन तंत्र से जुड़ी बीमारियों की तुलना में कोरोना से होने वाली मौतों को तो ऊंट के मुंह में जीरा भी नहीं कहा जा सकता. तो यह भयादोहन किसी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय साजिश का नतीजा तो नहीं है कहीं ! संभावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता !

लेकिन फिलहाल तो मेरी चिंता आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई को ले कर है..मेरे कई रिश्तेदार ट्रक परिवहन के कारोबार में हैंं. कुछ तो घरों में बंद है, कुछ ट्रक के साथ निकले थे, उनका अता पता ही नहीं है. 

करीब साढ़े बारह लाख ट्रक हैं, जिन्हें नेशनल परमिट मिला हुआ है ताकि वे देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचा सकें. इससे तीन गुणा से भी अधिक ऐसे ट्रक हैं जो दो तीन राज्यों के बीच माल ढुलाई का काम करते हैं. बताया जा रहा है कि माल से लदे करीब आधे ट्रक तो सड़कों के किनारे खड़े हुए हैं, जिनके डरे हुए ड्राइवर और हेल्पर उन्हें लावारिस छोड़ कर भाग गए हैं. इन्हीं ट्रकों में लदा है हमारी रोजाना जरूरतों का करोड़ों का सामान, दवाएं, दवा बनाने का कच्चा माल, मेडिकल उपकरण, तेल साबुन, मास्क बनाने का कच्चा माल, और जल्दी खराब होने वाला सामान साग-सब्जियां और फल, दूध आदि. बात केवल ड्राइवर और हेल्पर की ही नहीं है, इन ट्रकों पर सामान चढ़ाने-उतारने वाले लाखों कामगारों की भी है, जो डर से गांव की ओर कूच कर गए हैं !

देश के दूसरे हिस्सोंं में सामान की सप्लाई करने वाले दिल्ली के थोक बाजार सदर बाजार में सन्नाटा पसरा हुआ है. जहां से कभी निकल पाना मुहाल होता था, वहां कोई आदमी दिखाई नहीं देता, दुकाने खुली होने के बावजूद. झल्ली मजदूर, हत्थगाड़ी, रेहड़ी, रिक्शा कुछ नहीं दीखता. देश के बड़े हिस्से में दवाओं और चिकित्सा उपकरणों की सप्लाई करने करने वाला सबसे बड़ा बाजार भगीरथ पैलेस भी खुद को ही पहचान नहीं पा रहा है. दुकानदार चिंता में डूबे हुए, शेल्फ पर दवाइयां तेजी से खत्म हो रही हैं और नई सप्लाई हो नहीं रही. हमें तो लगता है कोरोना वायरस से कहीं ज्यादा तो आवश्यक समानों की कमी (और कुछ बनावटी कमी) ही मार डालेगी.

इस भय का सबसे बड़ा शिकार तो तमाम भगवानों की दुकानें ही हुई हैं, जिन्हें किसी न किसी बहाने प्रशासन की परोक्ष सहमति से फिर से खोलने का खेल चल रहा है सोशल मीडिया में. आदमी के दिल, दिमाग और व्यवहार को नियंत्रित करने का यह ‘सफल’ धार्मिक प्रयास ही तो तमाम भौतिक विकास के बावजूद एक अंधा युग की शुरुआत है, जिसमें सब मर्यादाएं घायल हो जाती हैं, सभी मानवीय मूल्य समाप्त हो जाते हैं. इसी अंधे युग के अवतरण का विवरण धर्मवीर भारती के कालजयी काव्य नाटक ‘अंधा युग’ के आरम्भिक कथा गायन में किया गया है :

“उस भविष्य में
अर्थ धर्म ह्रासोन्मुख होंगे
क्षय होगा धीरे धीरे सारी धरती का;
सत्ता होगी उनकी
जिनकी पूजा होगी
जिनके नकली चेहरे होंगे
केवल उन्हें महत्व मिलेगा;
राजशक्तियां लोलुप होंगी
जनता उनसे पीड़ित हो कर
गहन गुफाओं में दिन काटेगी
(गहन गुफाएं वे सचमुच की
या अपने कुंठित अंतर की ! )

आज के संदर्भ में अंधा युग के रचनाकार धर्मवीर भारती की यह भविष्यवाणी कितनी प्रासांगिक है, इसका फैसला आप खुद ही कर लें.

अच्छे.दिन के झांसे के साथ शुरू हुआ यह मजाक 6 साल बीत जाने के बावजूद खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा. हर बार एक नया नारा, हर बार एक नया मुखौटा – कभी फकीर, कभी चौकीदार. सत्ता की पूजा हो रही है. पूजे जाने वाले ‘नकली चेहरों’ की सत्ता कायम है और बने रहने के अहसास से डरा भी रही है. कितने मौसम बीत गए हैं, पेट पीठ से लग गया है, दहशत के साए में दिन काट रहे हैं लोग, फिर भी वे उम्मीद का दामन मजबूती के साथ पकड़े हुए है, लेकिन यह अंधायुग है कि रीतने के बावजूद बीत ही नहीं रहा !

कोरोना जैसी आपात स्थिति को पुलवामा की तरह भुनाने की कोशिश साफ देखी जा सकती है, राहत सामग्री के वितरण में जिस पर मोदी की फोटो लगी दिख रही है कई सोशल मीडिया के संदेशों में. क्या प्रिंटिंग प्रेस को काम करने के लिए छूट मिली हुई है ? लॉकडाउन के के चलते जब वह बंद है तो यह सामग्री छपी कैसे ?

ऐसे ही भूख और भय के डर के खिलाफ बंगला देश के प्रसिद्ध कवि रफिक आजाद एक अपनी कविता बेहद भूखा हूं में लिखते हैंं –

पेट में, शरीर की पूरी परिधि में
महसूसता हूं हर पल,
सब कुछ निगल जाने वाली एक भूख

बिना बरसात के ज्यों चैत की फसलों वाले खेतों में
जल उठती है भयानक आग
ठीक वैसी ही आग से जलता है पूरा शरीर

महज दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिले
बस और कोई मांग नहीं है मेरी
लोग तो न जाने क्या क्या मांग लेते हैं
वैसे सभी मांगते हैं

मकान गाड़ी, रुपए पैसे,
कुछेक में प्रसिद्धि का लोभ भी है

पर मेरी तो बस एक छोटी सी मांग है

भूख से जला जाता है पेट का प्रांतर
भात चाहिए,
यह मेरी सीधी सरल सी मांग है

ठंडा हो या गरम
महीन हो या खासा मोटा या
राशन में मिलने वाले लाल चावल का बना भात

कोई शिकायत नहीं होगी मुझे
एक मिट्टी का सकोरा भरा भात चाहिए मुझे
दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिल जाय तो मैं
अपनी समस्त मांगों से मुंह फ़ेर लूंगा

अकारण मुझे किसी चीज़ का लालच नहीं है

यहां तक की यौन क्षुधा भी नहीं है मुझमें
मैं तो नहीं चाहता नाभि के नीचे
साड़ी बांधने वाली साड़ी की मालकिन को
उसे जो चाहते हैं ले जाएं
जिसे मर्ज़ी उसे दे दो
ये जान लो कि मुझे इन सब की
कोई जरूरत नहीं

पर अगर पूरी न कर सको मेरी इत्ती सी मांग
तुम्हारे पूरे मुल्क में बवाल मच जाएगा
भूखे के पास नहीं होता है कुछ
भला बुरा कायदा कानून

सामने जो कुछ मिलेगा खा जाऊंगा
बिना किसी रोक-टोक के

बचेगा कुछ भी नहीं
सब कुछ स्वाहा हो जायेगा निवालों के साथ
और मान लो गर पड़ जाओ तुम मेरे सामने
राक्षसी भूख के लिए
परम स्वादिष्ट भोज्य बन जाओगे तुम

सब कुछ निगल लेने वाली
महज़ भात की भूख

खतरनाक नतीजों को साथ लेकर
आने को न्योतती है

दृश्य से द्रष्टा तक की प्रवहमानता को
चट कर जाती है

और अंत में सिलसिलेवार मैं खाऊंगा
पेड़ पौधे, नदी नाले

गांव-देहात, फुटपाथ, गंदे नाले का बहाव
सड़क पर चलते राहगीरों,
नितम्बिनी नारियों

झंडा ऊंचा किए खाद्य मंत्री
और मंत्री की गाड़ी

आज मेरी भूख के सामने कुछ भी
न खाने लायक नहीं

भात दे हरामजादे…
वर्ना मैं चबा जाऊंगा समूचा मानचित्र

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