मोदी सरकार यह कहते आ रही है कि उसके द्वारा उठाए गए नोटबंदी और जीएसटी जैसे आर्थिक क़दमों के फायदे देश को समय बीतने के साथ ज़्यादा होंगे लेकिन फायदे के बदले जैसे-जैसे समय बीत रहा है देश का नुकसान बढ़ता जा रहा है और अब वर्ष 2018 आर्थिक संकट के रूप में देश के सामने आ गया है. वर्ष 2018 में देश की आर्थिक स्थिति बदतर होती जा रही है. इसका खामियाजा आम जनता को महंगाई से लेकर रोजगार तक के मोर्चे पर भुगतना पड़ रहा है.
सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में बेरोजगारी पिछले 14 महीनों में 167 प्रतिशत बढ़ गई है. ये जानकारी इकॉनोमिक्स टाइम्स ने भी अपने एक लेख में छापी है. रिपोर्ट के मुताबिक, महीने के महीने बेरोजगारी के हिसाब से सितम्बर, 2018 में बेरोजगारी दर 8 प्रतिशत के दर पर आ गई है जबकि जुलाई 2017 में ये 3 प्रतिशत थी, मतलब पिछले 14 महीनों में बेरोजगारी 167 प्रतिशत बढ़ गई है. ये तब है जब नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में सत्ता में आने पर हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था. इस बेरोजगारी का कारण देश के आर्थिक हालत हैं.
वर्ष 2018 में रोज़गार के जो आंकड़े आए हैं वो डराने वाले हैं. सेंटर फॉर मोनिटरिंग ऑफ़ इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट कहती है कि इस साल रोज़गार में 0 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. सीएमआईई हर महीने 500,000 लोगों का इस सन्दर्भ में इंटरव्यू करता है. उसी के आधार पर उसने 7 जुलाई को अपनी रिपोर्ट जारी की है.
रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल मार्च 2018 तक अर्थव्यवस्था में एक भी नौकरी नहीं जुड़ी है. जिन लोगों को नौकरी मिली है वो वहीं लोग हैं जिन्होंने पहले की नौकरी छोड़ कोई दूसरी नौकरी शुरू की लेकिन रोज़गार पैदा नहीं हुआ है. रिपोर्ट बताती है कि रोज़गार पैदा होने की जगह नौकरियां खत्म हो रही हैं. पिछले साल 40 करोड़ 60 लाख लोग नौकरी कर रहे थे लेकिन इस साल उनकी संख्या घटकर 40 करोड़ 20 लाख रह गई है.
ये आंकड़े केंद्र की मोदी सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े करते हैं. नरेंद्र मोदी हर साल दो करोड़ रोज़गार देने के वादे पर सत्ता में आए थे लेकिन अब रोज़गार ही उनकी सरकार के विरोध का सबसे बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है.
मोदी सरकार युवाओं को रोज़गार की जगह ’पकौड़ा’ दे रही है. रोज़गार के सवाल पर संसद में ईपीएफओ के ऐसे आंकड़े पेश किये जा रहे हैं जो संदिग्ध है, जिन पर कई अर्थशास्त्री सवाल उठा चुके हैं.
देश में पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों ने जनता की जेब खाली कर दी है. इसका असर महंगाई पर भी दिखाई दे रहा है वहीं, सरकार डॉलर के मुकाबले रुपये की घटती कीमत को भी नहीं संभाल पा रही है. वर्ष 2018 में रुपया लगातार छह महीना गिरा है. वर्ष 2002 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है.
आईएलएफएस जैसी देश की सबसे बड़ी सरकारी नॉन-बैंकिंग कंपनी संकटों का सामना कर रही है. इसका असर शेयर बाज़ार पर भी खासा दिखाई दे रहा है. सितम्बर से अबतक निवेशक शेयर बाज़ार में ख़राब अर्थव्यवस्था के चलते 17 लाख करोड़ से ज़्यादा गवां चुके हैं. इस सब के चलते अब निवेशक निवेश करने से डर रहे हैं. उल्टा इस वर्ष विदेशी निवेशक भारत से अपना एक लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा का निवेश वापस निकाल चुके हैं. निवेश ना होने के कारण बाज़ार में नए उद्योग नहीं शुरू हो पा रहे हैं. इसका असर सीधा-सीधा रोजगार पर पड़ रहा है.
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