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लिंचिंग : घृणा की कीचड़ से पैदा हिंसा अपराध नहीं होती ?

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[ कांग्रेस से इतर बीजेपी संगठन में एक विशेषता है. बीजेपी के राजनैतिक दर्शन की ढलाई आरएसएस करती है और जमीन पर चुनाव बीजेपी लडती है. दोनों सिक्के के “हेड और टेल” की तरह, एक दूसरे की तरफ पीठ किये खड़े नजर आते हैं. दोनों के बीच एक दीवार होते हुए भी बाजार में चलते साथ साथ हैं. देश के प्रसिद्ध विचारक विनय ओसवाल की कलम से गंभीर पड़ताल करती आलेख ]

लिंचिंग : घृणा की कीचड़ से पैदा हिंसा अपराध नहीं होती ?

कांग्रेस माने विदेशियों को सत्ता से बेदखल कर देशियों के हाथ सत्ता का हस्तांतरण चाहने वालों की भीड़. उस समय यह भीड़ ऐसे जनूनी “बहुनस्लीय राष्ट्रवादियों” का जमावड़ा थी, जो कांग्रेस के इस उद्देश्य से मानसिक रूप से सहमत थे. भीड़ के मनोविज्ञान से अच्छी तरह से परिचित और उद्देश्य पूर्ति के लिए उसका नियंत्रित उपयोग करने में जिन्हें महारत हासिल थी, ऐसे लोगों के हाथ में कांग्रेस का नेतृत्व रहता था. बम्बई में 28 दिसंबर 1885, को कांग्रेस की स्थापना हुयी थी. स्वतन्त्रता आन्दोलन को पूरी तरह अहिंसक रखने से असहमति रखने वाले तब भी थे, जिन्हें आज क्रान्तिकारियों के नाम से देश जानता है.

पूरे 62 वर्ष के संघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों ने अपना बोरिया-बिस्तर समेट, भारत की सत्ता भारतीयों के हाथ सौंप कर जाने के अपने निर्णय से कांग्रेस को अवगत कराया. इसके साथ ही भारतीयों के कंधे पर अपना संविधान बनाने और कानूनी रूप से अंग्रेजों से सत्ता हांसिल करने की बड़ी जिम्मेदारी आ गई. वर्ष 1949, 26 नवम्बर, संसद ने संविधान को अंगीकृत किया और 26 जनवरी 1950 को इसे लागू करने के बाद 1952 में पहला चुनाव हुआ.

पहले चुनाव के ठीक 62 वर्ष बाद, कांग्रेस के “बहु-नस्लीय राष्ट्रवाद” से उलट राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की “एक नस्लीय राष्ट्रवाद” (आज का इजराइल) की समर्थक बीजेपी के नरेंद्र मोदी ने भी, भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने, युवाओं को बेरोजगारी की समस्या से मुक्ति दिलाने, विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस लाने, अच्छे दिन लाने, आदि-आदि जैसे सब्ज बाग़ दिखा, भीड़ को जनूनी बना कर, 2014 में कांग्रेस को सत्ता से बे-दखल कर दिया. आरएसएस, भीड़ के मनोविज्ञान से अच्छी तरह से परिचित है और उद्देश्य पूर्ति के लिए उसका उपयोग करने में उसे महारत हांसिल है.

कांग्रेस से इतर बीजेपी संगठन में एक विशेषता है. बीजेपी के राजनैतिक दर्शन की ढ़लाई आरएसएस करती है और जमीन पर चुनाव बीजेपी लडती है. दोनों सिक्के के “हेड और टेल” की तरह, एक दूसरे की तरफ पीठ किये खड़े नजर आते हैं. दोनों के बीच एक दीवार होते हुए भी बाजार में चलते साथ साथ हैं.

आरएसएस में अनेक खूबियांं है. वो अपनी टकसाल में ढली “वैचारिक मुद्रा” को भारतीय मुद्रा की तरह एक झटके में, चलन से बाहर कर नई “वैचारिक मुद्रा” को बाजार में फेंकना और चलाना भी जानती है. ब्राह्मणवाद के कट्टर विरोधी, बाबा साहेब और उनके बनाए संविधान को, कभी रद्दी की टोकरी में फेंकने की नसीहत देने वाली आरएसएस को, आज उन्हीं बाबा साहब को, अपने सीने से चिपकाये डोलने में तनिक भी झिझक का एहसास नहीं होता.

कांग्रेस ने, वक्त के साथ आरएसएस की तरह केंचुल बदलना नहीं सीखा. बीजेपी को केंंचुल बदलने के गुर सिखाने की जिम्मेदारी आरएसएस ने ओढ़ रख्खी है. इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आरएसएस ने मुम्बई में “रामभाऊ म्हालगी सुबोधिनी” नाम की संस्था के माध्यम से “इन्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेमोक्रेटिक लीडरशिप”, “नेतागीरी का कौशल सिखाने वाले कोर्स” में ग्रेजुएट, पोस्ट-ग्रेजुएट की डिग्रियां प्रदान करने वाली यूनिवर्सिटी, जो कहने को 1982 से स्थापित है, परन्तु अचानक गतिविधियों में आई तेजी या अन्य कारणों से चर्चा में आ गई है, के माध्यम से बाकायदा प्रशिक्षित युवा नेताओं की एक विशाल फ़ौज खड़ी कर रही. ये खबर चौंकाती है क्योंकि यह अपनी तरह का अनूठा विश्वविद्यालय है, जो नेतागिरी का कौशल सिखायेगा. आरएसएस की विचारधारा में रचे-पचे परिवारों के बच्चों को ही नहीं, बड़े बड़े कॉरर्पोरेट घरानों के अधिकारी और कर्मचारी भी नेतागिरी के कौशल में पारंगत होने की चाहना रखने वालों में शामिल हैं तो आरएसएस के अनुभवी प्रचारक और बीजेपी के खुर्राट नेता, प्रशिक्षुओं को नेतागिरी के कौशल विकास की ट्रेनिंग देने वालों में शामिल हैं.

आरएसएस इस देश के क़ानून को जानती है. घृणा से वशीभूत गुस्साई भीड़ द्वारा सरेआम दिनदहाड़े किसी को पीट-पीट कर मार डालना, इस देश की सरजमीन के क़ानून में कोई धारा ऐसी नहीं है जिसके अंतर्गत यह “अपराध” की श्रेणी में आता हो. सुप्रीमकोर्ट बार-बार सरकारों से कहता रहा है कि वे इसके लिए सख्त क़ानून बनायें, पर नतीजा सिफर ही रहा है.

सुप्रीमकोर्ट से अपेक्षा थी कि वह स्पष्टता से कहेगी, पर जो उसने नहीं कहा, वह यह कि – लिंचिंग, समाज के एक चिन्हित तबके के प्रति सुनियोजित तरीके से फैलाई गयी “घृणा जनित अपराध” है. गो-तस्करी, गो-बध, गो-चोरी अथवा बच्चा चोरी की अफवाह की एक चिंगारी ही, उनलोगों की जान ले लेने के लिए काफी है, जिनके उपर घृणित पहचान का लेबल पहले से ही चस्पा है. इंडिया स्पेंड का अध्ययन बताता है कि गो-सम्बन्धित लिंचिंग की घटनाओं में मरने वाले, 86 प्रतिशत मुसलमान और 8 प्रतिशत दलित थे.

अचानक गो-सम्बन्धित मामलों में आश्चर्यजनक कमी और बच्चा चोरी की घटनाओं में तेजी आ गई है. बच्चा चोरी से सम्बन्धित लिंचिंग का शिकार लोग या तो मानसिक रूप से अविकसित हैं या शहर के लिए अपरचित. पर दोनों जगह अपराध के पीछे, घृणा-गुस्सा आवेशित भीड़ ही है. यह अचानक आया बदलाव तरह-तरह के संदेहों को जन्म देता है. क्या बच्चा उठाने की अफवाहें फैलाने वाले और लिंचिंग के लिए भीड़ को उकसाने वाले, एक ही केंद्र से नियंत्रित हैं ?

सुप्रीमकोर्ट का निर्णय यह स्वीकार करने में भी असफल रहा कि ऐसे घृणाजन्य अपराध उस माहौल में पनपते हैं, जो घृणा और हिंसा को बढ़ावा देने और उन्हें वैध ठहराने वाले भाषणों से बनता है, जो लोगों को अपने पूर्वाग्रहों को क्रियान्वित करने की छूट देता है. भाषण देने वाले जानते हैं, ऐसे कृत्यों को करनेवालों को राज्य सरकारों की नौकरशाही का प्रश्रय भी मिला होता है, उत्पीड़न करने वाले दण्डित भी नहीं होते. ऐसे मामलों में राजनैतिक प्रतिक्रियायें एक निश्चित परम्पराओं का अनुपालन करती दिखती हैं. प्रधानमन्त्री भी बहुत संक्षिप्त और सामान्य चलताऊ प्रतिक्रिया दे पल्ला झाड़ते दीखते हैं.

वरिष्ठ मंत्री और चुने हुए क़ानून निर्माता खुले तौर पर हमलावरों का समर्थन और पीड़ित को ही, भीड़ को उकसाने के लिए दोष देते दीखते हैं. संदेश स्पष्ट है- गलती पीट-पीट कर मारने वालों की नहीं है अपितु जो मरा है, उसकी है. वो खुद और वो समाज, जिससे वो आता है, दोषी है. विपक्षी दल, ख़ास तौर से कांग्रेस डरपोक की तरह गोलमोल बयान देती दिखती है, और तब तो ख़ास तौर से और जब पीड़ित मुसलमान समुदाय का हो. वो भयभीत दिखती है कि पीड़ित मुसलमानों के पाले में खडा होने का लेबल, बहुसंख्यक हिन्दू, उसके माथे पर न चस्पा कर दें. अकेले वामपंथी पार्टियां कभी कभी उत्पीड़ितों के हक में बोलती दिखती हैं.

लिंचिंग हत्या के दोषियों को सम्मानित करने और उनका महिमामण्डन करने वाले प्रत्येक मामले में जब सत्ताधारी पार्टी के मंत्री और वरिष्ठ नेता शामिल हैं तो नौकरशाही दोषियों पर दोष आरोपित करने का साहस कैसे कर सकती है. कुछ बानगियांं देखिये- बहुसंख्यक हिन्दुओं की समर्थक सत्ताधारी बीजेपी सरकार का एक केन्द्रीय मंत्री लिंचिंग के आरोपी की जेल में हुई मौत पर मृतक के शरीर को तिरंगे में लपेटता है, जो कि शहीद जवान के शरीर पर राष्ट्रीय सम्मान स्वरुप डाला जाता है. दूसरा जेल में जाकर लिंचिंग के मामले में बंद आरोपी के कष्टों पर रोता है. तीसरा लिंचिंग मामले के आरोपी को कानूनी मदद मुहैय्या कराता है और जेल से छूटने के बाद उनको माला पहना कर सम्मानित करता है. समाज में घृणा फैलाने और माहौल को लिंचिंग के अनुकूल बनाने वाले कौन हैं ? पाठक खुद ही तय करें.

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