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चीन-अमेरिकी मंसूबे और भारत का संघर्ष

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चीन-अमेरिकी मंसूबे और भारत का संघर्ष

अमेरिकी साम्राज्यवाद आज भी एक महाशक्ति है परंतु वह डूबता हुआ जहाज है. चीन अब समाजवादी नहीं रहा. वह स्वयं वैश्विक महाशक्ति बनने की दिशा में अग्रसर है. यह युग है जिसमें जनता क्रांति चाहती है. पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था संकटाें से घिरी है. चीन के साथ युद्घ के नाम पर अमेरिका के फंदे में फंसने का हश्र देश में फासीवादी तानाशाही को पनपाना होगा. विदेशी लूट से देश को मुक्त करके ही लाेकतंत्र, जनवाद और आत्मनिर्भरता हासिल हो सकती है. किसी भी देश जिसका मंसूबा भारत विरोधी है उसे मुंहतोड़ जवाब दिया जा सकता है परन्तु अमेरिकी साम्राज्यवाद की गोद में बैठकर चीन से जंग नहीं जीती जा सकती.

गलवान घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर 15 जून, 2020 को हुए टकराव के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जम्मू दौरे पर गए. वहां लेह में जवानों को संबोधन में चीन को इंगित करते हुए उन्होंने कहा, ‘विस्तारवाद का युग समाप्त हो चुका है. यह युग विकासवाद का है. तेजी से बदलते हुए समय में विकासवाद ही प्रासंगिक है. विकासवाद के लिए अवसर है और विकासवाद भविष्य का आधार भी है.’ भारत और चीन की गिनती दुनिया में सबसे तेजी से विकासमान अर्थव्यवस्थाओं के रूप में होती है. इस विकास की एक तस्वीर यह भी है कि भारत में अम्बानी, आडवानी जैसे एक प्रतिशत अत्यधिक धनी “सुपर रिच” पूंजीपतियों के पास देश की 67 प्रतिशत संपत्ति और आम जनता के समक्ष बेराेजगारी, असमानता और गरीबी. कुछ ऐसी ही अवस्था चीन की है.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 19 वीं कांग्रेस में चीन के संविधान में संशोधन करके माओ विचारधारा के स्थान पर शी जिंगपिंग विचारधारा को स्वीकार करके विकास का जो रास्ता अख्तियार किया गया है, उसे उन्होंने नाम दिया है ‘चीन का विशिष्ट समाजवादी माॅडल.’ इसके अंतर्गत वहां बाजार अर्थव्यवस्था, शेयर मार्केट के बुलबुले, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और बढ़ती असमानता चीनी किस्म का समाजवाद है.

इसको चीन के प्रधानमंत्री ली क्विंग के बयान के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है. उन्होंने 28 मई, 2020 बिजिंग में आयोजित सालाना संवाददाता सम्मेलन में बताया,‘चीन की औसत प्रति व्यक्ति आय 30 हजार युआन यानी 4,193 डॉलर है. हालांकि इनमें से 60 करोड़ से अधिक लोग ऐसे हैं जिनकी मासिक औसत आय महज एक हजार युआन यानी करीब 140 डॉलर है. यह आय चीन के किसी शहर में एक कमरे के किराये के लिये भी पर्याप्त नहीं है.’

चीन में आज करोड़पतियों की तादात लाखों में है. कुछ लोग तो बहुत ही अमीर हैं. वे दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में आते हैं. वर्ग समाज में विकास का एक वर्गीय अर्थ भी हाेता है. नरेंद्र मोदी गलवान घाटी के भारत चीन संघर्ष के सिलसिले में जिस विकास और विकासवाद की बात कर रहे हैं उसे आर्थिक और क्षेत्रीय प्रभुत्व की प्रतिद्वंद्वता से काट कर देखना कठिन है.

अमेरिका की प्रतिक्रिया

जीडीपी को विकास का पैमाना मानने पर उसके अनुसार इस समय दुनिया की सबसे बडी अर्थव्यवस्था अमेरिका और उसके बाद चीन है. इन दोनों के बीच इस समय जबरदस्त व्यापार युद्घ (ट्रेड वार) चल रहा है. गलवान घाटी की घटना के अगले ही दिन 16 जून को रात 11.30 बजे (भारतीय समय से) व्हाइट हाउस में आयोजित एक बैठक में अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने भारत-चीन विवाद पर एक रिपोर्ट पेश की.

इस मीटिंग के बाद एक बयान जारी कर कहा गया, ‘एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) के हालात पर हम करीबी नजर रख रहे हैं. भारतीय सेना के 20 जवान मारे गए हैं. अमेरिका इस पर शोक व्यक्त करता है. हमारी संवेदनाएं सैनिकों के परिवारों के साथ हैं.’ ट्रम्प ने भारत-चीन के बीच सीमा विवाद में मध्यस्थता के अपने मंसूबे को इन शब्दों में व्यक्त किया, ‘वहां मुश्किल हालात पैदा हो गए हैं. दोनों देश गंभीर समस्या से गुजर रहे हैं. हम भारत और चीन से बात कर रहे हैं. देखते हैं क्या होता है. हमारी तरफ से सुलह की कोशिश हो रही है.’

इस बयान के एक माह पहले भी उन्होंने भारत-चीन के सीमा विवाद को लेकर मध्यस्थता की पेशकश की थी. व्हाइट हाउस की उक्त बैठक में अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो भी थे. जर्मनी में नाटो सैनिकों की संख्या कम करने के संदर्भ में एक सवाल के जवाब में पोम्पियो ने बताया था, ‘भारत और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के लिए चीनी खतरा एक कारण है कि अमेरिका यूरोप में अपनी सैन्य उपस्थिति कम कर रहा है और उन्हें अन्य स्थानों पर तैनात कर रहा है.’

चीन को लक्ष्य कर अमेरिकी विदेश मंत्री का कथन है, ‘चीन जमीनी स्तर पर अपनी रणनीतिक स्थिति का अपने लाभ के लिए उपयोग कर रहा है और दूसरों के लिए खतरा पैदा कर रहा है. भारत के साथ लगी अपनी सीमा पर भी वह लंबे समय से इसी तरह की हरकत कर रहा है.’ चीन-भारत सीमा पर और दक्षिण चीन सागर को लेकर चीन के आक्रामक रवैये के संबंध में 25 जून को ब्रसेल्स फोरम के एक सम्मेलन के बाद ‘फॉक्स न्यूज’ को एक साक्षात्कार में पोम्पिओ ने, ‘चीन को वास्तविक खतरा’ बताया.

पोम्पियो से पूछा गया था कि अमेरिका ने जर्मनी में अपने सैनिकों की संख्या में कमी क्यों की है ? जवाब में अमेरिकी विदेश मंत्री ने कहा, ‘अमेरिकी सैनिकों को अन्य स्थानों पर चुनौतियों का सामना करने के लिए ले जाया जा रहा था. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की हालिया हरकतों का मतलब है कि भारत और वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस जैसे देशों और दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में खतरा बढ़ रहा है. अमेरिकी सेना, हमारे समय की चुनौतियों का पूरी तरह सामना करने के लिए उचित रूप से तैनात है.’ जाहिर है, भारत-चीन सीमा विवाद में अमेरिका की दिलचस्पी बेवजह नहीं है.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक / भाजपा का रुख

लद्दाख-अक्साई चिन सीमा स्थित गलवान घाटी पर वास्तविक नियंत्रण रेखा के निकट भारत और चीन के सैनिकों के बीच ताजा मुठभेड़ के बाद भाजपा के महासचिव व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के थिंक टैंक राममाधव ने महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया है. संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर की ओर से ‘भारत चीन सीमा-विवाद’ विषय पर आयोजित एक विचार सम्मेलन को संबाेधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘मौजूदा संघर्ष का समाधान कूटनीतिक और सैन्य स्तर पर चीन को सक्रिय रूप से घेरना है…’ ‘हमारा दावा केवल वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) तक नहीं, इससे आगे है. जम्मू और कश्मीर में पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश में गिलगित-बाल्टिस्तान और अक्साई चिन भी इसमें शामिल हैं.’

अमित शाह भी कश्मीर में धारा 370 खत्म करते हुए संसद में अक्साई चिन और पाक अधिकृत कश्मीर (POK) के भारत में विलय का संकल्प ले चुके हैं. ‘कूटनीतिक और सैन्य स्तर पर चीन को सक्रिय रूप से घेरने’ की नीति की आगे व्याख्या करते हुए राममाधव ने बताया, ‘आज का आक्रामक चीन मुखर भारत का नतीजा है.’ संघ के प्रवक्ता भाजपा महासचिव ने मोदी सरकार को भी नसीहत दी है, ‘भारत जैसी मुखरता पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा पर दिखाता है, उसी तरह की तत्परता चीन के साथ भी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दिखाना चाहिए.’

भारत चीन सीमा विवाद पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारक के वक्तव्यों से स्पष्ट है कि भारत की ओर से चीन से पंगा लेने की पूरी तैयारी है. यह बात दूसरी है पाकिस्तान या बर्मा (म्यांमार) की सीमा पार करके सर्जिकल स्ट्राइक का जैसा ‘शौर्य’ प्रदर्शित किया गया था, चीन के साथ विवाद में उसके उलट 20 भारतीय जवानों के मारे जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सर्वदलीय बैठक के बाद जारी बयान में बस इतना कहा, ‘ना कोई हमारे क्षेत्र में घुसा है और ना किसी पोस्ट पर क़ब्ज़ा किया है.’

कूटनीतिक संघर्षों में एक दीर्घंकालीान नीति होती है और एक तात्कालिक नीति. परस्पर वार्ता द्वारा शांतिपूर्ण समाधान के लिए शुभाकांक्षियों की नेक ख्वाहिशों के बरबक्स हकीकत यही है कि दोनों पक्ष तात्कालिक तौर पर परस्पर वार्ता और दीर्घकालीन रणनीति के तहत युद्घ की व्यूह रचना में मशगूल हैं.

क्या है गलवान घाटी ?

गलवान नदी अक्साई चिन की जिन वादियों से गुजरती है उसे गलवान घाटी कहते हैं. यह नदी काराकोरम की पहाड़ियों से निकलती है. यह चीन के दक्षिणी शिनजियांग से लगभग 80 किलोमीटर का फासला तय करके भारत के लद्दाख में श्योक नदी (सिंधु नदी की सहायक नदी) से मिलती है. गलवान घाटी पश्चिम में लद्दाख और पूर्व में अक्साई चिन के बीच करीब 12-13 हजार फीट की उंचाई पर स्थित है. यह पाकिस्तान, चीन के शिनजियांग और लद्दाख की सीमा के साथ सटी हाेने के कारण सैन्य दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है.

यह ठीक है कि गलवान घाटी का बड़ा क्षेत्र अक्साई चिन के अंतर्गत चीन के नियंत्रण में है. परंतु इसका एक भाग वास्तविक नियंत्रण रेखा के आगे भारत की तरफ भी है, यहां से गुजर कर यह नदी श्योक नदी में मिलती है. भारत ने यहां घाटी के पश्चिमी छोर पर श्योक नदी और दरबूक-श्योक-डोलेट बेग ओल्डी (DSDBO) सड़क और एक पुल का निर्माण किया है. चीन को इस पर एतराज है. अक्साई-चिन से सटी हुई गलवान घाटी पूर्वी लद्दाख से अक्साई चिन पहुंचने के लिए सबसे करीब का रास्ता है. चीन के लिए भी यह पूर्वी लद्दाख पहुंचने के लिए चोर रास्ता है.

चीन अगर यहां कब्जा करता है तो वो युद्ध कि स्थिति में भारतीय सेना की डीबीओ सप्लाई लाइन काट सकता है. भारत द्वारा यहां 255 किलोमीटर लंबी दुरबुक-श्योक-डीबीओ रोड बनाई गई है. यह सड़क गलवान घाटी के करीब है. श्योक नदी तक पूरी गलवान घाटी पर चीन द्वारा किए जा रहे संप्रभुता के दावे का अभिप्राय समझा जा सकता है.

विवादित सीमा

भारत और चीन की सीमा निर्धारित नहीं, विवादित है. भारत के अनुसार इसकी लंबाई 3,488 किलोमीटर है. जम्मू-कश्मीर यानी कि पश्चिमोत्तर में यह 2152 किलोमीटर, बीच के हिस्से जिससे हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड लगते हैं, 625 किलोमीटर और पूर्वोत्तर में अरुणाचल जिसे नेफा यानी कि उत्तर पूर्व सीमा एजेंसी (NEFA) कहा जाता था, से यह सीमा तिब्बत-भूटान-भारत सीमा त्रिकोण तक 1,140 किलोमीटर है.

भारत यहां मॅकमहन रेखा (McMahon Line) को सीमा मानता है जबकि चीन इस सीमा रेखा को स्वीकार नहीं करता है. उसका कहना है कि जिस शिमला समझौते को मॅकमोहन रेखा का आधार बनाया गया है, उस समझौते के लिए चीन की स्वीकृति हासिल नहीं की गई थी. तिब्बत संप्रभु राज्य नहीं रहा है बल्कि चीन का ही हिस्सा रहा है.

अंग्रेजों ने तिब्बत को चीन का अंग स्वीकार करने के बावजूद तिब्बत के प्रतिनिधि के साथ समझौता किया. इस क्रम में अरुणाचल को लेकर चीन का कहना है कि यह दक्षिण तिब्बत का हिस्सा है. भारत यहां 90 हजार वर्ग किलोमीटर (36 हजार वर्गमील) चीन की भूमि पर नाजायज काबिज है. पश्चिमोत्तर में भारत का कहना है चीन ने अक्साई चिन पर नाजायज कब्जा कर लिया है.

सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत भारतीय विदेश मंत्रालय के चीन प्रभाग से मिली जानकारी के मुताबिक चीन ने भारत के कुल 43,180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अवैध रूप से कब्जा कर रखा है. इसमें जम्मू कश्मीर में भारत की भूमि का लगभग 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूभाग चीन के कब्जे में है. इसके अतिरिक्त 2 मार्च, 1963 को चीन तथा पाकिस्तान के बीच हस्ताक्षरित चीन-पाकिस्तान ‘सीमा करार’ के तहत पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर के 5180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन को दे दिया है.

इस तरह अक्साई चिन जिसे भारत लद्दाख का भाग मानता है, चीन के कब्जे में है. उसी तरह अरुणाचल जिसे चीन दक्षिण तिब्बत मानता है, भारत के कब्जे में है. यह स्थिति कमोबेश वही है जिसका तसकिरा गांधीवादी सर्वोदयी सुंदरलाल ने मेन स्ट्रीम में लिखे पत्र[1] में किया था. ख्रुश्चेव के साथ चर्चा के आधार पर सुंदर लाल ने लिखा था कि अक्साई पर भारत अपना दावा छोड़ने पर राजी हो जाए. बदले में चीन नेफा (अरुणाचल) पर दावेदारी छोड़े इस आधार पर समझौता हो सकता है.

अक्साई चिन

भारत-चीन सीमा विवाद के सिलसिले में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में प्रयुक्त कुछ नामों में लगातार गड़बड़ियां हैें. उदाहरण के लिए उत्तर पूर्व सीमा में लिए मेकमोहन लाइन नाम इस्तेमाल किया जाता है, जबकि मोहन शब्द तो है ही नहीं. सही नाम मॅकमहन (McMahon) है. यह एक अंग्रेज लेफटीनेंट कर्नल ऑर्थर हेनरी मॅकमहन का नाम था, जिसने नक्शे पर यह सीमा रेखा बनाई थी. उसी प्रकार पश्चिम में विवादित अक्साई चिन को अक्साई चीन लिखा जाता है. सही उच्चारण है अक्साई चिन. यह तुर्की की उईग़ुर भाषा का शब्द है. उईग़ुर में ‘अक़’ का मतलब ‘सफ़ेद’ और ‘साई’ का अर्थ ‘घाटी’ या ‘नदी की वादी’ होता है. उईग़ुर का एक और शब्द ‘चोअल’ है, जिसका अर्थ है ‘वीराना’ या ‘रेगिस्तान’. अक्साई चिन नाम का अर्थ है ‘सफ़ेद पथरीली घाटी का रेगिस्तान.’

चीन, पाकिस्तान और भारत के संयोजन में तिब्बती पठार के उत्तर पश्चिम में अक्साई चिन तिब्बती पठार का हिस्सा नहीं है. यह कुनलुन पर्वतों के मध्य स्थित है. अक्साई चिन का सबसे निचला हिस्सा 14,000 फीट ऊंचाई पर है और सबसे ऊंचा 22,500 फीट की ऊंचाई पर है. इसके ज्यादातर हिस्से में आबादी नहीं है. यहां के मैदान में कई नमक की झीलें और सोडा के मैदान हैं. यहां किसी तरह की वनस्पति नहीं उग सकती. इसके बावजूद, रणनैतिक रूप से, मध्य एशिया की सबसे ऊंचाई पर होने के कारण महत्वपूर्ण है.

अक्साई चिन का क्षेत्रफल 37,244 वर्ग किलोमीटर है. यह गोवा से करीब दस गुना, सिक्किम से करीब पांच गुना और मणिपुर से करीब डेढ़ गुना बड़ा है. इसका क्षेत्रफल ताइवान से अधिक और भूटान से कुछ कम, बेल्जियम से काफी बड़ा, स्वीटरलैंड के बराबर है. अक्साई चिन काराकोरम पर्वत श्रृृंखला में समुद्र तल से 17 हजार फीट ऊंचाई पर स्थित है. यह कश्मीर के कुल क्षेत्रफल का करीब 20 प्रतिशत है.

भारत के अनुसार अक्साई चिन लद्दाख के अंतर्गत आता है जबकि चीन में यह शिंजियांग प्रांत के काश्गर विभाग के कार्गिलिक ज़िले का हिस्सा है. चीन के शिंजियांग और तिब्बत के मध्य संपर्क अक्साई चिन के रास्ते से ही मुमकिन है. 1950 के दशक में चीन ने शिंजियांग और तिब्बत को जोड़ने के लिए सड़क बनाई. अक्साई चिन भारत को रेशम मार्ग से जोड़ने का ज़रिया था और भारत और हज़ारों साल से मध्य एशिया के पूर्वी इलाकों (जिन्हें तुर्किस्तान भी कहा जाता है) और भारत के बीच संस्कृति, भाषा और व्यापार का रास्ता रहा है. भारत से तुर्किस्तान का व्यापार मार्ग लद्दाख़ और अक्साई चिन से होते हुए काश्गर शहर जाता था.

अक्साई चिन को लेकर पं.जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा को बताया था, ‘लद्दाख और तिब्बत के बीच सीमा सुस्पष्ट नहीं है. बरतानिया सरकार के जो अधिकारी इस क्षेत्र में गए उन्होंने सीमा निश्चित करने के कुछ प्रयत्न जरूर किए हैं परंतु सीमा का कभी कोई सर्वेक्षण संपन्न हुआ है, इसमें मुझे संदेह है. बरतानिया सरकार के प्रयास से जो सीमा निश्चित की गई है, वह हमारे पक्ष में प्रस्तुत नक्शों पर अंकित है. यह सीमांकन किसी समझौते के आधार पर नहीं बल्कि अंग्रेज अधिकारियों द्वारा ही अंकित है. वास्तविक तथ्य यह है कि यह क्षेत्र लगभग निर्जन है. यही कारण है कि सीमांकन के मामले में कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. यहां होने वाली गतिविधियांं इतनी अलग-थलग और अनजान रहीं कि कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया.'[2]

नेहरू ने दो साल बाद लोकसभा में अपने बयान में फिर दोहराया, ‘भारतीय मानचित्रों में अक्साई चिन निस्संदेह भारतीय क्षेत्र के अंतर्गत है. इसके बावजूद मैं समझता हूं अन्य क्षेत्रोें की तुलना में यह काफी अलहदा किस्म का मामला है. अक्साई चिन का कौन-सा अंग हमारा है और कौन-सा दूसरे पक्ष का, बेशक यह विवादित मसला है. यह सुस्पष्ट और सुनिश्चित नहीं है. सदन में यह स्पष्ट बताना चाहता हूं कि यह तथ्य सुनिश्चित नहीं है. यह विवाद आज ही उत्पन्न हुआ हो, ऐसा भी नहीं है. यह तथ्य विगत 100 वर्षों से विवादित चला आ रहा है. मैं इस विषय पर मनमाने तरीके से कुछ भी कहने में असमर्थ हूं. मुख्य बात यह है कि इस क्षेत्र में सीमा निर्धारण कभी नहीं हुआ है और यह एक विवादित क्षेत्र रहा है.'[3] दरअसल, पश्चिम में शिमला समझौता तिब्बत और ब्रिटिश भारत सरकार के बीच हुआ था और मॅकमहन रेखा उसे चिन्हित करती है परंतु जम्मू कश्मीर ब्रिटिश भारत का अंग नहीं था. वह स्वतंत्र रियासत था इसलिए मॅकमहन रेखा जैसी कोई चीज यहां नहीं है.

तिब्बत और भारत-चीन विवाद

भारत और चीन के बीच अधिकारिक सीमांकन नहीं होना विगत सात दशक से चले आ रहे सीमा विवाद में मुख्य पेच है. यहां समस्या सन् 1950 से शुरु हुई. चीन में नव जनवादी क्रांति संपन्न होने के बाद, चीन की जनमुक्ति सेना ने तिब्बत में प्रवेश किया तो भारत सरकार ने विरोध किया. शुरुआत दोनाेें देशों के मध्य पत्र-युद्घ से हुई.

पं. जवाहर लाल नेहरू ने संसद (लेजिस्लेटिव असेंबली) में अपने बयान में कहा कि तिब्बत में चीन की संप्रभुता सीमित है. वह विदेशी और घरेलू मामलों में स्वतंत्र है. वह चीन का एक हिस्सा नहीं बल्कि स्वतंत्र अधिराज्य (सुजेरेंट) है. भारत सरकार की ओर से चीन को 27 अक्टूबर, 1950 को प्रेषित प्रतिरोध पत्र में चीन की जनमुक्ति सेना को तिब्बत में भेजना ‘अन्य देश’ पर ‘चढ़ाई’ कहा गया था. तिब्बत-सिक्किम पर सक्रिय तिब्बतियों के कालिंपांग गुट ने संयुक्त राष्ट्र संघ को तार देकर तिब्बत को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देने और चीन से तिब्बत की रक्षा करने की मांग की थी.

ब्रिटेन और अमेरिका चाहते थे कि तिब्बत के सवाल पर भारत और चीन आपस में भिड़ जाएं. दूसरा विश्वयुद्घ समाप्त होते ही अमेरिका नीत पूंजीवादी देशों और समाजवादी देशों इन दो शिविरों में टकराव प्रारंभ हो गया था. इसे शीत युद्घ भी कहा जाता है. भारतीय सीमा सुरक्षा के अंतिम अंग्रेज ऑफिसर इन कमांड लैफ्टीनेन्ट जनरल फ्रांसिस ठक्कर ने 1947 में ही सुझाव दिया था, ‘चीन के पहले भारत को यह सोचना चाहिए कि वह तिब्बत के पठारों पर कब्जा करने के लिए अग्रसर हो.'[4]

अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रुमेन ने भारत को आश्वस्त किया था कि अगर भारत तिब्बत में एक बटालियन सेना भेजेगा तो अमेरिका सहयोग में परिवहन विभान भेजने के लिए तैयार है.[5] तिब्बत में सेना भेजने के विषय पर विचार करने के लिए भारतीय विदेश सचिव ने एक बैठक आहूत की थी. उस समय इस बैठक में चीन में नियुक्त भारतीय राजदूत के. एम. पणिकर, सेना प्रमुख के एम करिअप्पा और भारतीय गुप्तचर ब्यूराे के प्रमुख बी. आर. मलिक सम्मिलित थे. मलिक ने इस बैठक का जिक्र करते हुए बताया है, ‘चीन को रोकने के लिए भारत तिब्बत में फौज भेजे इस प्रस्ताव से पणिकर सहमत नहीं थे. वे इस मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और वैधानिक जवाबदेही को लेकर चिंतित थे. जनरल करिअप्पा ने भी ऐसे अभियान के लिए सैनिक उपलब्ध कराने में असुविधा जतलाई थी.'[6]

संयुक्त राष्ट्र संघ में कालिपांग गुट की उपरोक्त मांग को लेकर विषय उठाए जाने की भी कोशश की गई थी. इसके लिए एल सल्वाडोर को तैयार किया गया था. मकसद था कि ऐसी स्थिति बनाई जाए कि भारत को तिब्बत में सेना भेजने का औचित्य मिल सकता था. दिक्कत यह थी कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में चीन वीटो अधिकार प्राप्त सदस्य था. हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में चांग काई शेक सरकार उस समय चीन का प्रतिनिधित्व कर रही थी,[7] वह भी तिब्बत को चीन का ही अंग मानती थी. ऐसी स्थिति में तिब्बत को स्वतंत्र मानकर वहां उसकी रक्षा में सेना भेजने का समर्थन नहीं किया जा सकता था.

इस स्थिति में अमेरिका, ब्रिटेन आदि अन्य पूंजीवादी देश तिब्बत की स्वतंत्रता की पैरवी नहीं कर सके क्योंकि चांग काई शेक उन्हीं के खेमे का सदस्य था. बड़ी दिक्कत यह भी थी कि दुनिया में एक भी ऐसा देश नहीं था जिसकी तिब्बत के साथ कभी कोई संधि रही हो और जिसे आधार बनाकर स्वतंत्र देश या अधिराज्य की हैसियत से तिब्बत की स्थिति को सिद्घ किया जा सके.

पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस संदर्भ में सरदार वल्लभ भाई पटेल को पत्र लिखा, ‘सुरक्षा परिषद का कोई भी सदस्य तिब्बत की अपील को प्रायोजित करने के लिए उत्सुक नहीं है. सुरक्षा परिषद में इस अपील पर विचार करने के लिए इसे प्रस्तुत किया जाएगा, ऐसी संभावना भी काफी कम है … याद रहे कि बरतानिया, अमेरिका या अन्य कोई भी देश ऐसा नहीं है, जिन्हें तिब्बतियों या उनके देश के भविष्य में दिलचस्पी हो. उनकी दिलचस्पी चीन को शर्मिंदा करने और उसके लिए उलझने उत्पन्न करने तक सीमित हैं, जबकि हमारा मकसद तिब्बत है. हमारा यह मकसद यदि पूरा नहीं होता है तो इस दिशा में आगे बढ़ने पर नाकमयाबी हाथ लगेगी.’

तिब्बत को स्वतंत्र राज्य या बफर स्टेट के रूप में विकसित करने का मकसद तब पूरी तरह बेमतलब हो गया जब, 23 मई, 1951 को चीन गणराज्य और तिब्बत की स्थानीय सरकार के मध्य 17 सूत्रीय समझाैता हो गया. इसके आधार पर तिब्बत का चीनी जनवादी गणराज्य में विलय हो गया. दलाई लामा ने भी माओ त्से तुंग को तार भेज करके इस समझौते की पुष्टि कर दी.[8]

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रिटिश दार्शनिक बर्ट्रैंड रसल (भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी जिनका योगदान रहा है) का कहना था कि ‘जवाहरलाल नेहरू चीन के साथ सीमा विवाद को अंतर्राष्ट्रीय पंचनिर्णय या अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को सौंपना चाहते थे.[9]

भारतीय रक्षा मंत्री वी. के. कृष्णा मेनन का सुझाव था अक्साई चिन क्षेत्र चीन को पट्टे पर दे दिया जाए और बदले में भूटान-तिब्बत-सिक्किम की सीमा के मिलन बिंदु पर स्थित चुंबी घाटी (डोकलाम यहीं पर है) चीन भारत को इसी प्रकार प्रदान कर दे.

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 1964 में भारत चीन सीमा विवाद को हल करने के लिए सुझाव दिया था, ‘अक्साई चिन का वह क्षेत्र जहां 1956 के पूर्व चीन का अधिकार है, वहां चीन का अधिकार स्वीकार कर विवाद का अंत कर लेना चाहिए. इस आधार पर चीन के साथ समझौता कर लेना चाहिए.’

वास्तविक नियंत्रण रेखा

भारत और चीन के बीच सीमा निर्धारित नहीं है. सात दशक बीतने के बाद भी सीमा विवाद सुलझने की दिशा में नहीं हैं, इसके बावजूद दोनों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) है. परंतु भारत और पाकिस्तान के बीच नियंणण रेखा (LOC) और इसमें फर्क यह है कि यह सुनिश्चित नहीं है.

1972 में पाकिस्तान के साथ इंदिरा गांधी और जुल्फीकार अली भुट्टो के मध्य समझौते का अंग एलओसी है और इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता हासिल है. एलएसी की यह स्थिति नहीं है तदापि चीन और भारत में यह समझौता हो गया है कि सीमा विवाद को शांतिपूर्वक ही सुलझाया जाएगा. कोई भी पक्ष बल प्रयोग नहीं करेगा. सीमा पर गश्ती दलों में टकराव न हो इसके लिए नियम तय किए गए हैं. ऐसा विवाद होने पर परस्पर वार्ता द्वारा समाधान की भी व्यवस्था है.

वास्तविक नियंत्रण रेखा बहुत हद तक वही है, जहां 7 नवंबर, 1959 को दोनों देश थे. भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के चलते 1962 में युद्घ हुआ था. इस युद्घ के जरिए चीन जितना आगे बढ़ा था, एकतरफा युद्घ विराम घोषित करके उसने युद्घ द्वारा अर्जित समस्त भूमि स्वयंं छोड़ दी, बल्कि वह उस स्थान से 20 किलोमीटर पीछे चला गया. इस चेतावनी के साथ भी भारत भी अपनी स्थिति से 20 किलोमीटर पीछे चला जाए और बीच में रिक्त स्थान पर कोई अपनी चौकी नहीं बनाएगा ताकि गश्त में टकराव नहीं हो.

यह युद्घ 20 अक्टूबर, 1962 को प्रारंभ हुआ था. इससे पहले 13 अक्टूबर, 1962 विदेश जाते हुए नेहरू ने चेन्नई हवाई अड्डे पर मीडिया के सम्मुख बयान दिया कि ‘उन्होंने सेना को आदेश दिया है कि वह चीनियों को भारतीय सीमा से निकाल फेकें.’ भारत-चीन-भूटान सीमा पर स्थित थागला पर्वत शिखर पर कब्जे को लेकर यह बयान था.

युद्घ शुरू होने के चार दिन बाद 24 अक्टूबर, 1962 को चीन की सरकार ने युद्घ विराम का प्रस्ताव भारत को भेजते हुए कहा था कि 7 नवंबर, 1959 की स्थिति को वास्तविक नियंत्रण रेखा मानकर दोनों देश सीमित रहें. इस प्रस्ताव के साथ तब भी कहा गया था कि सैनिक मुठभेड़ जैसी किसी अप्रिय स्थित की संभावना से बचने के लिए दोनों देश वास्तविक नियंत्रण रेखा की उपरोक्त स्थिति से 20 किलोमीटर पीछे हट जाएं. इस प्रकार मध्य के असैन्यीकृत क्षेत्र में संबंधित देशों की नागरिक पुलिस की तैनाती हो. युद्घ विराम प्रस्ताव में शर्त यह भी थी कि दोनों देश घोषणा करे कि सीमा पर विवाद के समाधान के लिए कोई भी पक्ष बल प्रयोग नहीं करेगा, परस्पर वार्ता और शांतिपूर्ण समाधन का ही सहारा लिया जाएगा.

भारत सरकार ने इस प्रस्ताव का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया बल्कि 26 अक्टूबर, 1962 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी. यह आपातकाल 1967 तक बरकरार रहा. लोकसभा में 8 नवंबर, 1962 को चीन की भर्त्सना करते हुए उसे आक्रामक कहा और युद्घ घोषणा की गई. प्रधानमंत्री नेहरू ने इस प्रस्ताव के समर्थन में कहा, ‘चीनियों को खदेड़ने और उनपर आक्रमण करने में हम पूरी तरह से न्याय संगत थे.'[10] चीन ने 20 नवंबर, 1962 को एकतरफा युद्घ विराम की घोषणा की. युद्घ के पहले जिस स्थान पर वह थी लौट गई.

भारत सरकार ने औपचारिक तौर पर 7 नवंबर, 1959 की पूर्व स्थिति को वास्तविक नियंत्रण रेखा मानने का प्रस्ताव उस समय औपचारिक रूप में स्वीकार नहीं किया, परंतु सेना को निर्देशित कर दिया कि सीमा पर उत्तेजनात्मक कार्रवाई नहीं की जाए. भारत सरकार की मुख्य आपत्ति थी ‘चीन द्वारा प्रस्तावित एलएसी सुस्पष्ट नहीं है, बाकायदा नक्शा बनाकर इसे स्पष्ट नहीं किया गया है. अनेक स्थानों पर स्थिति स्पष्ट नहीं है और चीन सैन्य बल का प्रयोग कर उन स्थानों पर स्थिति में परिवर्तन कर सकता है. 7 नवंबर, 1959 की स्थिति नहीं बल्कि 8 सितंबर, 1962 की स्थिति को एलएसी के आधार के रूप में लिया जाना चाहिए.’[11]

भारत-चीन संबंधों में जमी बर्फ का पिघलना जनता पार्टी के दौरान विदेश मंत्री की हैसियत से अटल बिहारी वाजपेयी की चीन यात्रा से प्रारंभ माना जा सकता है. उस समय तक वैश्विक राजनीति में बड़ा परिवर्तन आ चुका था.

चीन में माओ के निधन के बाद ‘उदारतावाद’ का नया युग शुरु हो चुका था. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पद से पूंजीवाद के पथिक के आरोप में बर्खास्त किए गए देंग शियाओ पिंग[12] चीन पार्टी की ग्यारहवी कांग्रेस[13] के तीसरे पूर्ण अधिवेशन (प्लेनम)[14] में पूरी शक्ति के साथ पुनर्स्थापित और नीति निर्धारक हैसियत में थे. अमेरिका और चीन काफी निकट आ चुके थे और साेवियत संघ और अमेरिका दो महाशक्तियों में विश्व प्रभुत्व की तीव्र प्रति़द्वंद्वता थी.

अटल बिहारी वाजपेयी 1979 में विदेश मंत्री की हैसियत से चीन गए, उस समय यही परिस्थिति थी. सीमा विवाद को हल करने के लिए उनका प्रस्ताव था कि मानसराेवर जाने वाले मार्ग पर चीन भारतीय श्रद्घालुओं को यात्रा की अनुमति दे और इस प्रकार सौहार्द के वातावरण में वार्ता के लिए दरवाजे खोले जाएं लेकिन उसी समय वियतनाम और चीन के मध्य युद्घ प्रारंभ हो गया. सीमा विवाद को सुलझाने के लिए यह अवसर नहीं था. जनता सरकार का पतन हो गया और इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गई.

चीन के साथ संबंधों के सुधार और सीमा विवाद को सुलझाने की दिशा में दूसरी पहल राजीव गांधी की चीन यात्रा के दौरान हुई. वे दिसंबर 1988 में चीन गए थे. पूर्व प्रधानमंत्री एवं विदेश नीति विशेषज्ञ इंद्र कुमार गुजराल के शब्दो में ‘हमारे सामने एक नयी परिस्थिति थी. 1987 के आते-आते हमें निश्चित जानकारी हाे गयी थी कि परमाणु हथियारों की तकनोलाॅजी पाकिस्तान को हस्तांतरित हो चुकी है. उन दिनाें राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. जनरल जिया उल हक अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप को दो शर्तों पर स्थान देने के लिए तैयार थे. पहला अमेरिका पाकिस्तान में जनतंत्रीकरण की मांग नहीं करेगा. दूसरा वह पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में हस्तक्षेप नहीं करेगा.'[15] ‘राजीव गांधी की चीन यात्रा के दौरान दोनों देशाें ने सीमा पर अपने दावों पर कायम रहते हुए मान लिया कि सीमा विवादास्पद है और वार्ता के माध्यम से ही समाधान निकाला जाएगा. इसके लिए दोनों पक्ष के प्रतिनिधियों का संयुक्त कार्यदल गठित किया जाएगा जो कि 2 से 3 वर्ष के भीतर रिपोर्ट व आख्या देगा. 1962 के 25 बरस बाद, सीमा विवाद के समाधान और वास्तविक नियंत्रण रेखा सुनिश्चित करने की दिशा में यह पहला कदम था. अटल बिहारी वाजपेयी ने उस समय राजीव गांधी के प्रयास का समर्थन करते हुए कहा था, ‘इस संबंध में स्थिति इतनी स्पष्ट और जांची-परखी है कि कार्यदल के नाम पर 2-3 वर्ष व्यतीत करना समय की बरबादी है.’ …भूलों को भुलाने के स्थान पर उन्हें सुधारने की जरूरत बताते हुए वाजपेयी की सलाह थी ‘प्रधानमंत्री राजीव गांधी को यह स्वीकारने में झिझक नहीं होनी चाहिए कि भारत ने 1962 में पूर्वोत्तर सीमाओं पर फारवर्ड नीति के तहत अग्रिम चौकियां कायम करने की जो नीति अपनायी थी, वह सुविचारित नहीं थी … उनके नाना तात्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विदेश जाते समय चीनियों को थागला रिज से निकालने का जो आदेश दिया था, उसके कारण पहले से गंभीर परिस्थिति और अधिक बिगड़ गई.'[16] समाजवादी नेता मधुलिमए ने भी चीन के साथ संबंध सामान्यीकरण के लिए राजीव गांधी के प्रयास का समर्थन करते हुए लोहिया के अनुयायी अपने साथियों को परामर्श दिया था कि राजीव गांधी की आलोचना के लिए यह समय उपयुक्त नहीं है.'[17]

चीन के प्रधानमंत्री लि पेंग 1991 में भारत आए, उस समय नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री थे. वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) को लेकर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों में बात अवश्य हुई परंतु वास्तविक नियंत्रण रेखा पर औपचारिक सहमति 1993 में नरसिम्हा राव की चीन यात्रा के दौरान हुई. समझौते पर दोनों देशों ने हस्ताक्षर किए उसके अनुसार एलएसी 1959 या 1962 की पूर्व स्थिति को आधार मानकर नहीं है बल्कि दोनों देशों के बीच 1993 को हुए समझौते पर आधारित है. एलएसी में कुछ क्षेत्र हैं, जिनकी स्थिति को लेकर मतभेद थे. सहमति यह बनी थी कि संयुक्त कार्यदल का गठन किया जाएगा जो इन क्षेत्रों की स्थिति स्पष्ट करेगा.[18] उसके बाद से वास्तविक नियंत्रण रेखा को सुनिश्चित करने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पांच बार चीन यात्रा कर चुके हैं और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ खूब झूला झूल चुके हैं.

समस्या और समाधान

चीन के साथ सीमा विवाद इतना जटिल नहीं था कि समाधान करने में सात दशक लग जाएं. समस्या विवादित सीमा से अधिक अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति है. नेहरू की फारवर्ड नीति ही हिमालयी ब्लंडर थी.[19] इसकी जड़ में सोच था कि विदेशी शक्तियों के समर्थन से चीन को विवश किया जा सकता है.

आज का चीन 1949 वाला क्रांतिकारी चीन नहीं है. आज वह प्रभुत्ववादी महाशक्ति बनने के लिए अमेरिका से प्रतियोगिता कर रहा है. भारत को घेरने का उसका मकसद भारत पर आक्रमण या सीमा विस्तार नहीं बल्कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, म्यांमार, श्री लंका, हिंद-प्रशांत में वर्चस्व और हिंद महासागर में पैठ करना है. वह अमेरिका से टक्कर लेने के लिए आधुनिकतम सैन्य शक्ति से लैस है.

नरेंद्र मोदी भूल यह कर रहे हैं कि चीन का मुकाबला करने के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान के साथ गठजोड़ की नीति पर भरोसा कर रहे हैं. यह उसी प्रकार की भूल है जैसा नेहरू ने अमेरिका, ब्रिटेन, रूस (सोवियत संघ) आदि पर भरोसा किया था.

सेना अधिकारियों द्वारा भू-परिस्थितयों तथा सैन्य तैयारियों का हवाला देकर फारवर्ड नीति तेज किए जाने पर एतराज किया गया था. नेहरू ने यह उनके एतराज को यह कहकर नज़रंजदाज कर दिया कि वे आश्वस्त हैं कि चीन प्रत्याक्रमण नहीं करेगा. नेहरू मुगालते में थे कि पश्चिमी देश और साेवियत संघ दोनों के समर्थन के कारण चीन के मुकाबले कूटनीतिक रुप से भारत बेहतर स्थिति में हैं.

नेहरू को जाॅन एफ कैनेडी ने आश्वस्त किया था, ‘हम चाहते हैं लड़ाई में भारत की जीत हो. यदि चीन जीतता है तो आर्थिक संतुलन डगमगा जाएगा. यह हमारे हित के प्रतिकूल होगा.[20] जहां तक सोवियत संघ का सवाल था उसने यह कहकर आश्वस्त कर दिया था कि ‘चीन अगर बिरादर है तो भारत दोस्त.’ मतलब साेवियत संघ भारत का विरुद्घ चीन का साथ नहीं देगा.

दरअसल, चीन और सोवियत संघ के मतभेद खुल कर सामने आ चुके थे. द्वितीय विश्वयुद्घ के बाद पूंजीवादी शिविर और समाजवादी शिविर में टकराव और तनाव का युग समाप्त हो गया था और तनाव शैथिल्य की शुरुआत हो गई थी. अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में दोनों देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ मतभेदों को जाहिर करते हुए एक दूसरे पर तीव्र विचारधारात्मक हमला कर दिया था.[21] बाद में स्थिति यहां तक पहुंची कि चीन ने सोवियत संघ के नेता निकिता ख्रुश्चेव को संशोधनवादी करार दे दिया था.

सोवियत संघ ने भारत चीन तनाव में मध्यस्थता की कोशिश की और गांधीवादी सुंदरलाल के जरिए नेहरू को इसके लिए प्रस्ताव भी भेजा परंतु चीन सोवियत संघ की मध्यस्थता कबूल करने को तैयार नहीं था. नेहरू समझते थे कि इन अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों में फारवर्ड नीति को सख्ती से लागू करने लिए उपयुक्त अवसर है. दूसरी तरफ, चीन अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में वियतनाम, कोरिया, क्यूबा के अमेरिका के साथ तनाव पर नजर गढ़ाए था. ठीक उस वक्त जब क्यूबा पर अमेरिका ने मिसाइल तैनात किया और तीसरे विश्वयुद्घ जैसा वातावरण नज़र आ रहा था, वह बखूबी समझ रहा था इस समय अमेरिका भारत में नहीं आ सकेगा.

थागला रिज पर कब्जे के लिए भारतीय सेना के प्रयास के विरोध के साथ गलवान घाटी तक, मतलब पश्चमोत्तर से पूर्वोत्तर तक चीन ने भारत की सेनाओं को खदेड़ना और फारवर्ड नीति के तहत भारत द्वारा कायम चौकियों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया. नेहरू नहीं समझ पाए थे कि तीन दशक के भीषण गृह युद्घ, जापान और फिर अमेरिका से सशस्त्र युद्घ करके चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता हासिल की थी. वह कोरिया और वियतनाम के साथ मिलकर अमेरिका से जूझ रहा था. चीन सोवियत संघ के दबाव में नहीं था और उसे उसकी परवाह भी नहीं थी.

आज पचास साल बीत चुके हैं. आज का भारत और आज का चीन दोनों 1962 वाले नहीं हैं. विश्व राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल चुका है. अमेरिका आज भी एक महाशक्ति है परंतु वह अपने प्रभुत्व का विस्तार और नए उपनिवेश बनाने की जगह अपने प्रभुत्व को बरकरार रखने के लिए जूझ रहा है. अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य वापसी के बाद चीन दक्षिण एशिया में और हिंद-प्रशांत में अमेरिका की जगह लेने के लिए अग्रसर है. इसके खिलाफ भारत-जापान-आस्ट्रेलिया-अमेरिका की व्यूहबंदी करने की रणनीति चल रही है. मुख्य टकराव अमेरिका और चीन में है. भारत का हित चीन-अमेरिका के बीच चल रही प्रभुत्व की प्रतियोगिता की अंध गली में फंसना नहीं है. चीन की मंशाओं और अमेरिका के मोहरे के रूप में इस्तेमाल होने इन दोनों से भारत को बचना होगा.

ध्यान रहे, अमेरिका ह्रासमान महाशक्ति है, उसने स्पष्ट घोषित कर दिया है कि वह अब अपनी थल सेना को अन्यत्र नहीं भेजेगा. वैसे भी, अमेरिका ने कभी अपनी भूमि पर कोई जंग नहीं लड़ी है. भारत की भूमि और भारतीयों सैन्य बल के जरिए प्रभुत्व की अमेरिकी प्रतियोगिता का अंग बनाए जाने की दुर्भिलाषाओं से बचना होगा. इसके लिए जरूरी है, भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ मैत्री और विश्वास के संबंध कायम करे.

चीन भारत के पड़ोसी, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंग्लादेश, म्यामार, श्री लंका, मालद्वीप चारों ओर से भारत को घेरकर प्रशांत और हिंद महासागर में अपना दबदबा कायम करना चाहता है. कच्चे तेल के आयात के सवाल पर अमेरिका के दबाव में भारत आ गया. इससे ईरान के साथ बेहतर संबंधों दरार आ गयी है.

अमेरिकी साम्राज्यवाद जरूर आज भी एक महाशक्ति है परंतु वह डूबता हुआ जहाज है. चीन अब समाजवादी नहीं रहा. वह स्वयं वैश्विक महाशक्ति बनने की दिशा में अग्रसर है. इस प्रक्रिया में लाजिम है कि चीन के प्रभुत्व के खिलाफ संबंधित देश वियतनाम, इंडोनेशिया, बर्मा, मलाया, म्यांमार, अफगानिस्तान, बंगलादेश, पाकिस्तान, श्री लंका, मालद्वीप हर जगह आम जनता, जो अपने-अपने देशों में शासक वर्ग की तानाशाही के खिलाफ संघर्ष कर रही है, भारत उनके साथ समन्वय स्थापित करे. आज का युग विकासवाद का युग कहना भ्रामक है, यह पूंजीवादी शासक वर्गों की नीति हो सकती है.

वैश्विक अर्थ व्यवस्था का संकट, यूरोप अमेरिका सहित विभिन्न देशों में नस्लवादी, फासीवादी शक्तियों का उभार, लोकतंत्र, उदारवाद और नवउदारवाद का पटाक्षेप, इनके खिलाफ अमेरिका सहित दुनिया भर में जनता के जुझारू आंदोलन युग की दूसरी प्रवृति को जाहिर करते हैं. यह युग है जिसमें विश्व पूंजीवाद-साम्राज्यवादी व्यवस्था संकटाें से घिरी है और जनता क्रांति चाहती है.

चीन के साथ युद्घ के नाम पर अमेरिका के फंदे में फंसने का हश्र देश में फासीवादी तानाशाही को पनपाना होगा. विदेशी लूट से देश को मुक्त करके ही लाेकतंत्र की रक्षा, सच्चा जनवाद तथा आत्मनिर्भरता हासिल की जा सकती है. किसी भी देश जिसका मंसूबा भारत विरोधी है, उसे मुंहतोड़ जवाब दिया जा सकता है परन्तु साम्राज्यवाद की गोद में बैठ कर यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती है.

  • कमल सिंह

सन्दर्भ :

1. मेन स्ट्रीम, 4 नवंबर, 1972 में प्रकाशित, समय माजरा के ताजा अंक में पुनर्मुद्रित।

2. लोकसभा में प्रधानमंत्री नेहरू का वक्तव्य, दिनांक 4 सितंबर,1954.

3. लोकसभा में प्रधानमंत्री नेहरू का वक्तव्य, 12 सितंबर, 1059.

4. ए वी शाह, भारत की प्रतिरक्षा और परराष्ट्र नीतियां, पृष्ठ 87.

5. ए वी शाह, उपरोक्त.

6. माॅय इयर्स विद नेहरू : चायनाज़ बिट्रेयल, पृष्ठ -80, 81.

7. चीनी जनवादी गणराज्य जहां कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में थी, उसे 1970 में यह स्थान मिला.

8. विस्तार के लिए देखें पुस्तक भारत-चीन अंध राष्ट्रवाद, लेखक कमल नारायण सिंह, सर्वहारा राजनीति प्रकाशन, नंदलाल 12ए, डब्ल्यू ई ए, करोल बाग, नई दिल्ली, 110005 द्वारा 31 मई, 1999 को प्रकाशित.

9. बर्टेंड रसल : अन आर्म्ड विक्ट्री में इस तथ्य का उल्लेख है.

10. लोकसभा में पं. जवाहरलाल नेहरू का वक्तव्य, दिनांक 8/11/1962.

11. शिवशंकर मेनन ने अपनी पुस्तक ‘Choices: Inside the Making of India’s Foreig.

12. देंग शियाओ पिंग 1966 तक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे और ल्यू शाओ ची राष्ट्रपति. चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना की नीतियों में माओ त्से तुंग के नेतृत्व में चीन की महान सर्वहारा क्रांति के दौरान ल्यू शाओ ची और देंग शियाओ पिंग को पार्टी व अन्य सभी पदों से अपदस्थ कर दिया गया था. देंग द्वारा आत्मालोचना और माओ की नीतियाें पर आस्था व्यक्त करने के बाद उन्हें 1975 में फिर से चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति में सम्मिलित करके महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गई. उनकी मुख्य नीति थी कि चीन को आर्थिक सुघारों या विकासवाद को मुख्य मानकर नीतियां बनानी चाहिए. वे वर्गीय हित को गौण समझते थे. विकास के लिए मुख्य कड़ी उत्पादन संघर्ष है. उनका कहना था कि बिल्ली काली हो या लाल देखना है चूहा पकड़ती है या नहीं. मुनाफा ही प्रधान हैं. पूंजी के चरित्र को वे मुख्य नहीं मानते थे. उनकी नीतियों पर चलकर ही चीन में बाजार अर्थ व्यवस्था का विकास हुआ है. माओ ने देंग को पूंंजीवाद का पथिक कहकर फिर अपदस्थ कर दियाा था. माओ के निधन के बाद वे फिर से पार्टी में आ गए और दो साल के भीतर चीन के प्रमुख नेता बन गए.

13. अगस्त, 1977.

14. दिसंबर, 1978.

15. समकाली तीसरी दुनिया, संपादक आनन्द स्वरूप वर्मा, पृष्ठ 32.

16. दिनमान 15 जनवरी, 1989 के अंक में प्रकाशित.

17. रविवार, 15 जनवरी 1989 के अंक में प्रकाशित.

18. विदेश सचिव एवं विभिन्न देशों में राजदूत रह चुके श्याम सरन की पुस्तक How India Sees The World: Kautilya To The 21st Century.

19. एंडरसन-भगत की सीक्रेट रिपोर्ट : 1962 के युद्घ में भारत की हार के कारणों की जांच करने के लिए भारतीय सेना के दो अधिकारियों – लेफ्टिनेन्ट जनरल हेण्डर्सन ब्रुक्स और ब्रिगेडियर प्रेमिन्दर सिंह भगत को नियुक्त किया गया था. लेफ्टिनेंट जनरल नील एंडरसन और ब्रिगेडियर पीएस भगत ने अपनी रिपोर्ट में इन कारणों को ढूंढने की कोशिश की थी. इस रिपोर्ट को गोपनीय घोषित कर दिया गया था. रिपोर्ट की प्रतियां रक्षा मंत्रालय में सुरक्षित हैं. इन्हें अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है लेकिन 1962 के दौर में ‘टाइम’ के संवाददाता के तौर पर दिल्ली में काम कर रहे मैक्स नेविल ने इस रिपोर्ट के तथ्यों का खुलासा किया. उन्होंने इस रिपोर्ट को ऑनलाइन डाल दिया था. मैक्स नेविल का दावा था कि रिपोर्ट में हार के लिए नेहरू की नीतियां जिम्मेदार थीं. नेहरू की फारवर्ड पालिसी पूरी तरह नाकाम साबित हुई. साथ ही दिल्ली और सेना के फील्ड कमांडरों के बीत तालमेल की बेहद कमी, सैनिकों की खराब तैयारियां और संसाधनों की कमी को भी जिम्मेदार माना गया. आस्ट्रेलिया पत्रकार मैक्स नेविल ने एक किताब इंडियाज चाइना वार लिखी जिसमें इस सीक्रेट रिपोर्ट के हवाले से कई दावे किए गए हैं.

20. ब्रिगेडियर जाॅन दलवी की पुस्तक हिमालयन ब्लंडर से संदर्भ लेें.

21. अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर मास्को में आयोजित बैठक 1957 और 1960 में सांवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर वैचाारिक और वैश्विक रणनीतिक व कार्यनीतिक मुद्दों पर गंभीर मतभेद सामने आ गए थे.

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