Home गेस्ट ब्लॉग बिहार में सिकुड़ता वामपंथी संघर्ष की जमीन ?

बिहार में सिकुड़ता वामपंथी संघर्ष की जमीन ?

29 second read
0
0
1,436

बिहार में सिकुड़ता वामपंथी संघर्ष की जमीन ?

आई. जे. राय, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्त्ता
वर्ष 2000 के चुनाव के बाद से विधानसभा में वामपंथ की संख्या में गिरावट आनी शुरू हुई. 1995 तक जहां वामपंथी विधायकों की संख्या 35 होती थी, वह सिमट कर 2000 में नौ हो गयी और भाकपा माले सबसे बड़ी वाम पार्टी हो गयी. अक्तूबर, 2005 के विधानसभा चुनाव में वाम दलों की सीटें नौ रहीं, जबकि 2010 के चुनाव में वाम दलों ने अपनी बची-खुची सीटें भी गंवा दीं. इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में वाम दलों को अतीत की गलतियों से सीखा लेना चाहिए.

नब्बे के दशक के मध्य तक बिहार विधानसभा में वामपंथ की दमदार मौजूदगी थी. सदन से लेकर सड़क तक लाल झंडा दिखता था लेकिन, वाम दलों का आधार लगातार खिसकता चला गया और वर्तमान विधानसभा में भाकपा माले के सिर्फ तीन विधायक रह गये है. 1972 के विधानसभा चुनाव में भाकपा मुख्य विपक्षी दल बनी थी.

वाम दलों ने भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ अथक संघर्ष के बल पर अपने लिए जो जमीन तैयार की थी, उस पर आज मंडलवाद के जातिवादी राजनीति से उभरे दलों व नेताओं ने फसल बोयी. परंपरागत वाम दल संसदीय राजनीति की सीमाओं में सिमटते गये. इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव में वाम दलों को अतीत की गलतियों से सबक लेते हुए कोई ठोस रणनीति बनानी चाहिए. भाकपा, माकपा और भाकपा माले ने वाम एकता के नारे के साथ पिछले विधानसभा चुनाव में उतरकर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा चुकी है. बिहार में पिछले दो दशक में वाम दलों का जनाधार छिनता गया और स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि मौजूदा विधानसभा में सिर्फ तीन वामपंथी विधायक (भाकपा माले के) हैं.

1995 में वाम दलों के 38 विधायक सदन में थे. 1972 में भाकपा बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल थी. पिछलग्गूपन की नीतियों और मंडलवाद जातिवादी राजनीति के असर ने परंपरागत वाम पार्टियों के आधार पर प्रहार किया. इसके अलावा नक्सलवाद की कोख से उपजे गैर-संसदीय संघर्ष पर यकीन करने वाले वाम संगठनों ने भी परंपरागत वाम दलों की जमीन पर अपना विस्तार किया. वैसे बिहार में वामपंथ का इतिहास संघर्षो और बलिदानों से भरा रहा है.




20 अक्तूबर, 1939 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना मुंगेर में हुई थी. सुनील मुखर्जी पहले राज्य सचिव थे. 1952 के पहले आम चुनाव में भाकपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा था. उसे कुल जमा 1.1 फीसदी वोट मिले. लोकसभा या विधानसभा में कोई नहीं पहुंचा. 1956 के विधानसभा उप चुनाव में चंद्रशेखर सिंह बेगूसराय सीट से जीते और इस तरह ‘लाल झंडा’ का विधानसभा में प्रवेश हुआ.

1957 के दूसरे आम चुनाव तक भाकपा ने अपनी स्थिति थोड़ी मजबूत कर ली थी. विधानसभा चुनाव में उसके 61 प्रत्याशियों में से सात प्रत्याशी जीते और वोट प्रतिशत बढ़ कर 5.1 फीसदी हो गया. लोकसभा चुनाव में खड़े सभी 13 प्रत्याशी हार गये. 1962 के तीसरे चुनाव में भाकपा के 12 विधायक विधानसभा में पहुंचे. वोट प्रतिशत भी बढ़ कर 6.34 फीसदी हो गया. लोकसभा चुनाव में भी एक सीट मिल गयी. 1964 में भाकपा से अलग होकर भाकपा (मार्क्‍सवादी) का गठन हुआ. लेकिन, संगठन में फूट के बावजूद वामपंथ का जमीनी विस्तार होता रहा.

1967 के विधानसभा चुनाव में भाकपा को 24 और माकपा को तीन सीटों पर जीत मिली. लोकसभा में भाकपा के तीन सांसद पहुंचे. 1967 में राजनीतिक परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि संविद सरकार का गठन हुआ और उस सरकार में भाकपा भी शामिल हुई. महामाया प्रसाद सिन्हा की कैबिनेट में तब के दिग्गज कम्युनिस्ट नेता चंद्रशेखर सिंह और इंद्रदीप सिंह समेत भाकपा के चार विधायक शामिल किये गये. हालांकि यह सरकार दस माह में ही गिर गयी.




1969 के मध्यावधि चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. दो विपरीत राजनीतिक धुरी वाले दल जनसंघ और भाकपा के पास विधायकों की संख्या इतनी थी कि वे किसी की सरकार बना सकते थे. भाकपा ने मध्यमार्ग अपनाया और भाकपा के समर्थन से दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार गठित हुई. यह घटना वामपंथी राजनीति के लिए एक नया मोड़ था. इसके बाद तो भाकपा ने कांग्रेस से राजनीतिक रिश्ता बना लिया.

1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाकपा के बीच चुनावी तालमेल हुआ. पांच प्रत्याशी जीते. 1972 के छठे विधानसभा चुनाव में भाकपा ने कांग्रेस से तालमेल कर 55 प्रत्याशी खड़े किये और उसके 35 प्रत्याशी जीत गये. माकपा को निराशा हाथ लगी. छठे विधानसभा के लिए हुए चुनाव में भाकपा का प्रदर्शन अब तक का सबसे बेहतर रहा है. भाकपा को विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा भी मिला. सुनील मुखर्जी विपक्ष के नेता बने थे.

1975 में आपातकाल के दौर में भाकपा कांग्रेस के साथ खड़ी रही और इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा. 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता लहर की आंधी में भाकपा के तंबू उखड़ गये. उसके सभी 22 प्रत्याशी चुनाव हार गये. हालांकि उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में भाकपा को 21 और माकपा को चार सीटें मिलीं. 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में भी वामपंथ ने अपनी मजबूत दावेदारी बरकरार रखी. भाकपा को 23, माकपा को छह और एसयूसीआइ को एक सीट मिली.




इसी दौर में मध्य और दक्षिण बिहार में वामपंथी राजनीति नक्सलवाद के रूप में एक नयी करवट ले रही थी. शुरूआती दौर में पार्टी यूनिटी, एमसीसी, भाकपा माले (लिबरेशन) जैसे कई संगठन चुनाव बहिष्कार और गैर-संसदीय संघर्ष के नारे के साथ अलग-अलग इलाकों में सक्रिय थे. उनके साथ गरीबों, पिछड़ों व दलितों का बड़ा तबका साथ था. 1985 आते-आते संसदीय वामपंथी राजनीति में नया मोड़ आया. भूमिगत तरीके से काम करने वाली भाकपा माले (लिबरेशन) ने एक खुला मोरचा बनाया – इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ). आइपीएफ ने 1985 के विधानसभा चुनाव में 85 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन कोई सीट नहीं जीत सकी. उसी साल भाकपा को 12 और माकपा को एक सीट हासिल हुई.

1989 के लोकसभा चुनाव में आइपीएफ ने आरा संसदीय सीट पर जीत दर्ज की और नक्सल आंदोलन की ओर से उभरे रामेश्वर प्रसाद संसद पहुंचे. आइपीएफ को 1990 के विधानसभा चुनाव में भी सफलता मिली, जब उसके आठ प्रत्याशी चुनाव जीते. मार्क्सवादी समन्वय समिति ने दो सीटों पर जीत दर्ज की.




उसी साल नक्सली आंदोलन की उपज रामाधार सिंह ने भी गुरुआ क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीता. भाकपा के 23 और माकपा के छह विधायकों के साथ-साथ आइपीएफ ने भी लालू प्रसाद की नेतृत्ववाली जनता दल की सरकार को बाहर से समर्थन दिया. लालू प्रसाद ने आइपीएफ के चार विधायकों को तोड़ कर अपने दल में मिला लिया. दरअसल, फिर भाकपा की जड़ों पर जोरदार प्रहार 1990 के बाद मंडलवाद के जातिवादी उभार से हुआ. मंडलवादी राजनीति ने जिन सामाजिक आधारों को जातिगत आधार पर लालू प्रसाद के पक्ष में गोलबंद किया, लगभग वही भाकपा का जनाधार थीं.

वर्ष 2000 के चुनाव के बाद से विधानसभा में वामपंथ की संख्या में गिरावट आनी शुरू हुई. 1995 तक जहां वामपंथी विधायकों की संख्या 35 होती थी, वह सिमट कर 2000 में नौ हो गयी और भाकपा माले सबसे बड़ी वाम पार्टी हो गयी. अक्तूबर, 2005 के विधानसभा चुनाव में वाम दलों की सीटें नौ रहीं, जबकि 2010 के चुनाव में वाम दलों ने अपनी बची-खुची सीटें भी गंवा दीं. इस समय भाकपा माले के सिर्फ तीन विधायक विधानसभा में हैं.




तीनों बड़े वाम दलों के आधार में भी क्षरण दिखा. इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में वाम दलों को अतीत की गलतियों से सीखा लेना चाहिए. सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने के नाम पर मध्यमार्गी जातिवादी पूंजीवादी दलों का पिछलग्गू बनने की बजाये भाकपा, माकपा और भाकपा माले सहित सभी वाम दल को वाम एकता की ओर कदम बढ़ाना चाहिए.




Read Also –

अप्रसांगिक होते संसदीय वामपंथी बनाम अरविन्द केजरीवाल
नक्सलवादी हिंसा की आड़ में आदिवासियों के खिलाफ पुलिसिया हिंसा और बलात्कार का समर्थन नहीं किया जा सकता
गोड्डा में जमीन की लूट व अडानी का आतंक
बिहार में वामपंथियों के गढ़ एक-एक कर क्यों ढ़हता चला गया ?
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का शुरुआती दौर, सर्वहारा आंदोलन और भगत सिंह
संसदीय वामपंथी : भारतीय सत्ताधारियों के सेफ्टी वॉल्व




प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]



Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…