कल मैं पटना के एक मॉल में कुछ कपड़े खरीदने पहुंचा था. जहां दो लड़के आपस में मोबाइल नंबर एक्सचेंज कर रहे थे. शायद दोनों दोस्त थे, जो बहुत दिनों बाद मिले हों. एक ने व्यंग्य के लहजे में ही अपने दोस्त से कहा कि ‘तुम्हारा नंबर नाम के साथ जेएनयू लगाकर सेव कर लेता हूं.’ तो फिर दूसरा ने कहा कि ‘मैं फिर तुम्हारा नंबर जामिया वालों के नाम से सेव कर लूंगा.’ दोनों के हाव-स्वभाव से लगा कि जेएनयू और जामिया का नाम उनके लिए गाली के समान है.
यदि आप बिहार में हैं तो आपको सौ छात्रों के बीच एक सर्वे कराकर देख लेना चाहिए. नहीं हो तो कुछ से बात करके ही देखिए. मुझे यह करने की जरूरत इसलिए नहीं पड़ती क्योंकि मेरे एक रिश्तेदार छात्रों के लिए मेस खोल रखे हैं, जहां रोजाना दो-तीन सौ बच्चे खाने आते हैं. मैं कुछ समय निकालकर उनके बीच चला जाता हूं. मुझे देश के हर मामले पर छात्रों की मोटा-मोटी अवधारणा का पता चल जाता है. जेएनयू हिंसा के बाद पटना यूनिवर्सिटी में भी प्रोटेस्ट किया गया था. लेकिन छात्र बहुत ही कम संख्या में ही जुटे थे. जुटे भी तो वो संवेदनशीलता नहीं दिखी.
आख़िर बिहार के बच्चे इन मुद्दों पर एकजुट क्यों नहीं हो पा रहे हैं ? क्या उनके लिए इन सब चीज़ों के कुछ मायने नहीं है ? आपातकाल के समय नेतृत्व प्रदान करने वाला बिहार इस बार इतना शिथिल क्यों हैं ? इस सवाल का जवाब ढूंढना एक गहरे कुंए में उतरना जैसा है. लेकिन एक जवाब कॉमन है कि पिछले दशकों में बिहार की उच्च शिक्षा बर्बाद हो गई. स्कूली शिक्षा तो पहले भी बदतर थी लेकिन कॉलेज बच्चों को सम्भाल लिया करता था. आइआइटी की तैयारी करते हुए मैं अपने कोचिंग गुरुओं से साइंस कॉलेज की महिमा बहुत ध्यान से सुना करता था. मैं ही नहीं आप भी सुना करते होंगे, एच.सी. वर्मा से लेकर के.सी. सिन्हा की बात होती होगी लेकिन उस समय एक बात बहुत अखरती थी कि कॉलेज की कल्पना के लिए मुझे बाप की जवानी की कल्पना करनी पड़ती थी क्योंकि साइंस पढ़ने के लिए कॉलेज की कल्पना मैं कर नहीं सकता था. मुझे सीधे आइआइटी को ही सपनों में उतारना था.
ट्यूशन करते-करते पिछवाड़े में साइकिल सीट की टैटू बन गई थी. सारा जोश तो इसी में खत्म हो जाता था. पढ़ाई क्या ही कर पाता. खैर, जहां तक उच्च शिक्षा के बर्बाद होने का तो इसे साज़िशी बर्बाद की गई है. विकास पुरुष के राज में कॉलेज की दशा बद से बदतर हो गई, जबकि कोचिंग कारोबार हजारों करोड़ का हो गया. आप आस-पास नज़र दौड़ाएंगे तो बहुत ही कम बच्चे होंगे जो कॉलेज जाते दिखेंगे. कॉलेज में एडमिशन कराके वो ट्यूशन लेते हैं. एक और चीज़ बिहार के बच्चों में कॉमन दिखेगा कि अधिकतर बच्चे साइंस ले लेते हैं. मेरे आठ भाइयों में अधिकतर साइंस के छात्र हैं, पर उन्होंने कभी कॉलेज ही नहीं किया फिर भी वो केमेस्ट्री-फिजिक्स से ग्रेजुएट हो चुके हैं. कैसे हुए यह सभी को मालूम है. ले-देकर एक पटना यूनवर्सिटी है, जहां बच्चे पढ़ने जाते हैं, वहां टीचिंग सेक्शन के 810 पदों में 500 और नॉन टीचिंग सेक्शन में 1300 से ज्यादा पद खाली हैं. इन रिक्त पदों को देखते हुए हम जवान हो गएं, अब आगे चलकर इसी रिक्त पदों पर शिक्षक के लिए अप्लाई करते हुए भी दिखेंगे.
यह कल्पना से परे हैं कि पिछले दशक में बिहार के लाखों बच्चे बिना शिक्षक, प्रयोगशाला और किताब के साइंस में ग्रेजुएट कर गएं. यह विश्व का शायद एक मात्र जगह ही होगा. कॉलेज कल्पनाओं को विस्तार देता है और आलोचनात्मक दृष्टिकोण पैदा करता है लेकिन बिहार की एक पीढ़ी को साज़िशी इससे दूर कर दिया गया. वो बस अपने बाप की जवानी में ही कॉलेज की कल्पना कर सकते हैं. उन शिक्षकों की कल्पना कर सकते हैं जिनके लिखे ग्रंथ कॉलेज की लाइब्रेरियों में सड़ रहे हैं, जिसको कोई झांकने वाला अब नहीं बचा है. यह भीड़ चाहकर भी जेएनयूृ-डीयू को उस स्तर पर नहीं समझ सकता. इसे व्हॉट्सैप यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए मजबूर किया गया है. वो उसी नजरिए से जेएनयू-डीयू को देखेगा. आप लाख चाहकर भी उसे समझा नहीं सकते. ये बच्चे दशकों से खोदे जा रहे उस कुंए में डूब चुके हैं, जहां ज्ञान और विवेक की रस्सी नहीं पहुंच सकती.
- दीपक कुमार, पत्रकार
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