स्टीव और मैकाले
महान व्यंग्य रचनाकार श्रीलाल शुक्ल अपनी रचना के माध्यम से भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ‘वर्तमान शिक्षा व्यवस्था सड़क के किनारे पड़ी वह कुतिया है जिसे कोई भी लात मार सकता है.’ भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर श्रीलाल शुक्ल का यह बयान एक बार फिर पटल पर आ गया जब एप्पल के सह-संस्थापक स्टीव वाॅजनिएक ने अपने एक साक्षात्कार में भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर अपनी बेबाक राय रखी और कहा कि ‘भारत में नौकरी मिलना ही सफलता का मापदंड माना जाता है, जिसमें रचनात्मकता कहीं नहीं झलकता है.’
ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन ने सन 1835 ई. में भारत के लिये एक विधि आयोग का गठन किया था, जिसका अध्यक्ष बना कर लॅार्ड मैकाले को भारत भेजा गया. इसी वर्ष लार्ड मैकाले ने भारत में नई शिक्षा नीति की नींव रखी. 6 अक्टूबर 1860 को लॅार्ड मैकाले द्वारा लिखी गई भारतीय दण्ड संहिता लागू हुई और देश की जनता को गुलाम बनाये रखने के लिए एक नये तरह की शिक्षा-व्यवस्था को देश में लागू किया. यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि भारत की तथाकथित आजादी के 70 साल बाद भी लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति ही देश में वगैर आमूल-चूल बदलाव के लागू है, जिसका परिणाम आज देश में इस रूप में दिखता है. एप्पल के सह-संस्थापक स्टीब की यह टिप्पणी भारत की इसी लार्ड-मैकाले वाली शिक्षा पद्धति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था पर है.
हलांकि यह भी सच है कि तत्कालिन भारतीय शिक्षा पद्धति जो केवल सवर्णों की पुस्तैनी मानी जाती थी, और इसमें दलितों और शु्रद्रों का इस शिक्षा पद्धति में प्रवेश सर्वथा बर्जित ही नहीं अपितु दण्डनीय अपराध भी माना जाता है, लार्ड मैकाले ने वक्त के उस अन्तराल में ब्रिटिश साम्राज्य के हित में ही सही परन्तु प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को ध्वस्त कर एक अपेक्षाकृत आधुनिक शिक्षा पद्धति की स्थापना किया. लार्ड मैकाले के इस आधुनिक शिक्षा पद्धति ने देश के बहुसंख्यक दलित-शुद्रों को भी पहली बार शिक्षित किया और नवीन दुनिया से परिचित कराया.
लार्ड मैकाले की अपेक्षाकृत आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने देश की बहुसंख्यक आबादी दलितों और शुद्रों तक को शिक्षित करने का काम किया पर परन्तु अब जब हम खुद को विकसित और प्रगतिशील बनाना चाहते हैं तब इस दौर में लार्ड मैकाले की शिक्षा-पद्धति को लागू कर देश के युवाओं को केवल गुलाम बाबुओं के निर्माण तक ही सीमित रखना शर्मनाक है, जिस पर स्टीव ने करारा प्रहार किया है.
स्टीव के अुनसार भारतीय शिक्षा व्यवस्था पढ़ाई पर टिकी है, लेकिन यह रचनात्मकता को बढ़ावा नहीं देती. उन्होंने अपनी धारणा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं है कि भारत में गूगल, फेसबुक और एप्पल जैसी दुनिया की बड़ी टेक कम्पनियों जैसी कम्पनी तैयार हो सकती है. उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि भारत में एक बड़ी टेक कम्पनी इन्फोसिस है और वो भी इनोवेटिव नहीं है, जो दुनिया की ग्लोबल टेक दिग्गज कम्पनियों के रेस में कहीं नहीं आ सकता है.
भारतीय के पास रचनात्मकता की कमी है और उन्हें इस तरह के कैरियर के लिए बढ़ावा भी नहीं दिया जाता है. यहां पढ़ाई में सफलता का मतलब अकादमिक ऐक्सेलेंस, पढ़ाई, सीखना, अच्छी नौकरी और बेहतर जीवन जीना है. रचनात्मकता तब खत्म हो जाती है जब आपके व्यवहार को प्रेडिक्ट करना आसान हो जाता है. सब एक जैसे हो जाते हैं. उन्होंने न्यूजीलैंड जैसे एक छोटे देश का उदाहरण देते हुए बताया कि वहां लेखक, सिंगर, खिलाड़ी हैं, और यह एक अलग दुनिया है.
स्टीव के बेबाक बोल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लार्ड मैकले वाली नीतियों पर एक करारी टिपण्णी है. प्रथम तो आज देश भर में शिक्षा व्यवस्था की जर्जर हालत है. इसके बावजूद बड़े पैमाने पर निकले छात्रों के सामने रोजगार की समस्या मूंह बाये खड़ी रहती है. देश का शासक इन इन शैक्षणिक संस्थानों से निकले बेहिसाब लोगों को एक बोझ समझती है और उसके लिए किसी भी प्रकार की जबावदेही उठाने से साफ तौर पर इंकार कर रही है.
इसके साथ ही आरएसएस भाजपा की मोदी सरकार के माध्यम से देश में एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश कर रही है जो भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में प्रचलित थी, जिसमें शुद्रों और दलितों को न केवल शिक्षा से वंचित रखा गया था अपितु उसका शिक्षा पाना दण्डनीय अपराध माना जाता था. आरएसएस और उसके राजनैतिक संगठन भाजपा आज देश की बहुसंख्यक दलितों और शुद्रों पर मनुस्मृति जैसी अमानवीय व्यवस्था को लाद कर सवर्ण ब्राह्मणवादी व्यवस्था को लागू करना चाह रही है.
ऐसे में भारतीय युवाओं को लार्ड-मैकाले और भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति की शिक्षा पद्धति से अलग नई शिक्षा व्यवस्था देने के लिए शिक्षाविदों को देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव करने के लिए उपयुक्त कारगर उपाय करना जरूरी है.
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