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भारतीय कृषि को रसातल में ले जाती मोदी सरकार

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भारतीय कृषि को रसातल में ले जाती मोदी सरकार

मोदी सरकार के पिछले पांच वर्षों के दौरान कृषि-अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट के दौर में जा फंसी है. नतीजतन पूरे देश में किसान बड़े पैमाने पर आंदोलित हुए हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, नई-दिल्ली और ऐसी जगहों पर आन्दोलन कर रहे किसानों की छवि अभी तक ताज़ा है. कई दिनों तक आन्दोलन करने वाले किसान सड़कों पर रहें, जिसकी वजह से उन्हें अपने गांवों में मिलने वाली दिहाड़ी मजूरी छोडनी पड़ी, तो उनके विरोध की भावना इतनी तीव्र थी. इसके बाद भी शासक वर्ग 2019 के चुनाव में 59% (2016 के आंकड़ों के अनुसार)[1] कामगार जनसंख्या से जुड़े असल मुद्दों पर बात करने से कतरा रहा है. इसके स्थान पर वो देश में एक झूठे राष्ट्रवाद का भाव थोपने में व्यस्त हैं और इस बात पर बहस कर रहे हैं कि ‘मंदिर वहीं बनेगा’. पुलवामा में 40 जवानों कि मृत्यु पर नाटक करना उनके लिए महत्त्व रखता है, लेकिन इस बात पर उनका कोई ध्यान नहीं जाता कि 35 किसान हर रोज सरकार की संरचनात्मक नीतियों की विफलता की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं (2015 के उपलब्ध तथ्यों के आधार पर)[2] हालांकि इस संख्या को काफी कम कर आंका गया है.[11]




नव-उदारवादी एजेंडे के तहत झूठे वादे करना, दोषपूर्ण नीतियांं बनाना और कृषक समुदाय को मूर्ख बनाते रहना, मोदी सरकार का प्रमुख लक्षण बन गया है. 2014 के चुनाव प्रचार में इस देश के किसानों से बीजेपी सरकार ने वादा किया था कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य C2 के कुल मूल्य का 50 प्रतिशत बढ़ाएगी. यहांं C2 का मतलब किसानों के कुल लागत मूल्य से है, जिसमें जमीन का किराया, जमीन को पूंजी मानकर उस पर सूद और बाकी कृषि लागत शामिल हैं. केंद्र की बीजेपी सरकार ने इसका दावा किया कि पिछले साल उसने अपने वादे पूरे किये हैं जबकि थोड़ा नजदीक से विश्लेषण[3] किया जाए तो इस बात का खुलासा होता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य A2+Fl से 50% अधिक तय किया गया C2>A2+Fl से. इससे यह बात साफ हो जाती है कि घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य, वादे से काफी कम है. कुछ मामलों में पिछला न्यूनतम समर्थन मूल्य A2+Fl से 50% अधिक पाया गया.

2016 में बीजेपी ने इस बात कि घोषणा की थी कि 2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी कर दी जाएगी. किसानों की आमदनी दुगुनी करने के लिए कमेटी तो गठित की गयी, पर ज़मीनी स्तर पर परिणाम देखने को नहीं मिला. कमेटी ने इस बात का उल्लेख किया कि 2022 में निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 10.4% की मिश्रित वार्षिक विकास दर की जरुरत है.[4] जिसके बाद सरकार ने किसानों की बढ़ी आमदनी का कोई भी आंकड़ा प्रस्तुत नहीं किया है. वायदे की इस अवास्तविक प्रकृति का अनुमान 2011 से 2016 के मध्य वास्तविक अवधि में नीति आयोग की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है, जो कहता है कि देश में किसानों की आमदनी में प्रतिवर्ष 0.44% की बढ़ोतरी हुई है [5].




2018-19 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के पिछले पांंच वर्षों में भारतीय कृषि-बजट दुगुना होकर 57,600 करोड़ रूपए हो गया, जो कि सच्ची बढ़ोतरी की जगह महज अंकों का मायाजाल है. सबसे पहले सरकार का ये दावा जिस तथ्य पर आधारित है वह यह है कि बढ़ोत्तरी की सामान्य गणना ही की गयी है, जिसमें मुद्रास्फीति की गणना शामिल नहीं थी. दूसरे, सब्सिडी के एक हिस्से को, जिसे वित्त-मंत्रालय द्वारा सूद के रूप में दिया जाता है, कृषि-बजट के रूप में दिखाया गया है. अतः प्रतिशत के रूप में देखें तो कुल केन्द्रीय बजट का जितना प्रतिशत कृषि पर खर्च किया जाता था, उतना ही रह गया है, जो कुल बजट का 1.75% है.[6] यह निश्चित रूप से काफी कम है.

2016 में मोदी सरकार प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लेकर आई. इस नयी योजना को इस तरह प्रचारित किया गया कि इसमें पिछली योजनाओं की तमाम अच्छाइयांं शामिल है और कमियों को दूर कर दिया गया है.[7] जबकि, बीमा नीतियांं पूर्ववत अपना काम बखूबी कर रही हैं. मसलन, सार्वजनिक धन का इस्तेमाल बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने में करना, कार्पोरेशनों को अनुमति देना कि स्टॉक मार्केट में इन बीमा कंपनियों द्वारा निवेश किये गये पैसों से भरपूर लाभ उठायें, जबकि गरीब किसानों के न्यायोचित मुआवजे को भी देने से इनकार करना. सरकार ज्यादातर मामलों में कृषि के लिए किसानों द्वारा लिए गये लोन के मामले में प्रिमियम भुगतान के सिलसिले में इन्हीं नीतियों को किसानों पर थोपती है.[8]




कृषि क्षेत्र में भी नोटबंदी का सुस्पष्ट प्रभाव महसूस किया गया. चूंकि कृषि क्षेत्र अपने चरित्र के लिहाज से लगभग पूरी तरह अनौपचारिक क्षेत्र है जहांं कारोबार मुख्यतः नगदी के जरिए ही होता है. अतः किसानों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा. इसने न केवल समय पर उनके तमाम कृषि लागतों से जुडी खरीदारी को प्रभावित किया, बल्कि उनके लिए उनकी पैदावार बेचने में भी मुश्किलें पैदा की. कृषि मंत्रालय को ये स्वीकार करने में दो साल लग गए कि ये आपदा विमुद्रीकरण के आने से पैदा हुई.[9]

मोदी सरकार की किसान-विरोधी नीतियों का सिलसिला कभी ख़त्म होने वाला नहीं है. पर इसके पूरे प्रभाव को उत्तरोत्तर समझना मुश्किल होता जा रहा है. 2016 में सरकार ने किसानों की आत्महत्या से संबंधित आंकड़े छापने पर रोक लगा दी. इसी साल सरकार एक नयी नियमावली लेकर आई, जो सूखे की स्थिति की व्याख्या करती थी,जिसने किसी जगह की सूखे की स्थिति को समझना और भी मुश्किल कर दिया, जो कि बड़ी संख्या में प्रभावित किसानों को राहत मुआवजे से वंचित कर रहा है.[10]

ये तो तय है कि ये सब भारतीय राज्य द्वारा लागू की जा रही नव-उदारवादी नीतियों का ही विस्तार है, जिसे 90 के दशक में स्वीकार किया था. ये नीतियां दरअसल IMF, विश्व बैंक और US ट्रेजरी के प्रत्यक्ष देख-रेख में तैयार वाशिंगटन आम सहमति के इशारे पर तैयार की गईं थीं. पर जिस हमलावर मानसिकता के साथ मोदी सरकार आम लोगों की ज़िंदगी की कीमत पर कॉरपोरेट पूंंजी के तलवे चाट रही है, उसकी मिसाल भारत के हाल के इतिहास में खोजना मुश्किल है. आज हम इसके नतीजों के रूप में देख रहे हैं कि कृषि संकट का आकार कितना बड़ा और गहरा हुआ है, जीविका की तलाश में गांव से शहर की ओर जाने वाली किसान आबादी काफी बढ़ी है और सचमुच ही एक श्रमिकों की विशाल फौज सामने आयी है, जो औद्योगिक क्षेत्र में शोषण को बढ़ाते जाने के लिए जरूरी है.[12]




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