Left Pic : 1951, VIjAYAWADA : P. SUNDARAYYA, Maddukuri Cghandrasekhara Rao, Chandra Rajeswara Rao, Vasudevarao and M. Basavapunniah after they came out from underground following the government’s lifting of the ban on the communist Party of India – By Special Arrangement; & Right Pic : STALIN (RIGHT) WITH Vyacheslav Mikhailovich Molotov. They, along with Mikhail Andreyevich Suslov and Georgy Malenkov, comprised the CPSU commission that met the Indian communist delegation.-THE HINDU ARCHIVES
सन 1951 ई. में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के टूटने की नौबत आ गई थी. तेलंगाना में सरदार वल्लभभाई पटेल ने निजाम को दंडित करने के बहाने लेफ्टिनेंट जनरल जे. एन. चौधरी के नेतृत्व में 6 डिवीजन फौज भेजकर करीब दस हजार गरीब किसानों, आदिवासियों तथा आर्य समाजियों का नरसंहार कराया था, जिन्होंने निजाम की एक लाख एकड भूमि पर अधिकार कर लिया था.
निजाम के साथ हुई सौदेबाजी के तहत उसकी जब्त की हुई सम्पत्ति वापिस कर दी गई, उस सौदेबाजी की अंदरूनी बातें अभी तक आम जनता से दूर है. यह विचारणीय है कि सन 1947 ई. में कश्मीर में, जहां अमेरिका और इंग्लैंड से प्रोत्साहित पाकिस्तानी फौज भारत से लड रही थी, ऐसे मोर्चे पर भारत सरकार मात्र 2 डिवीजन फौज भेजती है और वह निजाम, जिसके पास अंग्रेजो ने किसी भी प्रकार की सेना को गठित नही होने दिया, जहां मात्र अंगरक्षक थे, वहां भारतीय फौज तक़रीबन चार सालों तक आखिर किसकी नरसंहार करती रही ?
जब तेलंगाना का किसान-विद्रोह कुचल दिया गया, तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड गई. राजेश्वर राव एवं वासवपुन्नैया ने चीनी क्रान्ति के मार्ग का पक्षपोषण किया. अजय घोष एवं डांगे ने सोवियत संघ की फरवरी क्रान्ति का पक्ष लिया तथा पूंजीवादी जनवाद की वकालत की. बी. टी. रणदिवे ने सोवियत संघ की अक्टूबर, 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति का पक्ष लिया.
स्टालिन ने चार व्यक्तियों को मॉस्को बुलवाया था, यह चार व्यक्ति थे – डांगे, अजय घोष, वासवपुन्नैया एवं राजेश्वर राव. विमर्श में सोवियत संघ के भी चार प्रतिनिधि – मेलोतोव, मेलेकाव, सीसपलोव एवं यूदिन शरीक हुए. भारतीय प्रतिनिधियों से पहले अलग-अलग बात हुई, फिर सभी से एक साथ बात हुई, अंत में स्टालिन स्वंय विमर्श में शरीक हुए. विमर्श के उपरांत, निष्कर्ष के रूप में स्टालिन ने निम्न बातें कही –
- बी.टी. रणदिवे की लाईन कि समूचा पूंजीपति वर्ग, साम्राज्यवाद से मिल गया है, गलत है. भारत में सोवियत संघ की तरह मजदूर-हडताल और फौजी- बगावत के संश्रय से सफलता संभव नही है. भारत का पूंजीपति वर्ग, साम्राज्यवाद के खिलाफ है. पं जवाहर लाल नेहरू का दक्षिण-पूर्व एशिया सम्मेलन में शरीक होना और वहां की गई उनकी घोषणा, साम्राज्यवाद के खिलाफ है.
- चीन की तरह भारत में छापामार युद्ध चलाकर, चीन की तरह ही भारत को मुक्त कराने की आंध्रा लाईन भी गलत है. चीन एक पिछड़ा देश था, वहां रेल-रोड की व्यवस्था कमजोर थी. चीनी सेना लांग मार्च करते हुए सोवियत सीमा तक आ गई थी, जहां उन्हे सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त हुआ. वे छापामार युद्ध द्वारा सफल हो गए. छापामार की खास परिस्थितियां होती हैं, जो चीन में थी, पर भारत में नही है.
- भारत में अभी मजदूरों, किसानों, शोषितों, पीड़ितों का संगठन करना चाहिए. पार्टी के जनाधारों का विकास करना चाहिए. कानूनी और अर्ध-कानूनी संगठनों का नेतृत्व करना चाहिए, चुनाव लड़ना चाहिए.
- पश्चिम यूरोप के तरीके को अपनाइए. आपके यहां नागरिक आजादी है, आप चुनाव लड़ सकते हैं, सभी कर सकते हैं, चुनाव में बहुमत प्राप्त करने की कोशिश कर सकते हैं.
- आप न चीनी रास्ता अपनाइए और न ही रूसी रास्ता अपनाइए, एक तीसरा भारतीय रास्ता भी हो सकता है.
- आपके यहां गांधी और सहजानंद जैसे जननेता हो गए हैं. आप कैसी कम्युनिस्ट पार्टी हैं कि आपने अभी तक पार्टी का कार्यक्रम तक नही बनाया है.
- आपके दो सौ राइफल भेज देने से हम वर्ल्ड-वॉर जीत गए ? 1942 में यदि आप जन-संघर्ष में शामिल हुए होते तो जैसे चीन में माओ की सरकार बन गई, आप भी भारत में सफल हो गए होते.
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने स्टालिन की मंशा का गलत अर्थ लगाकर, सिर्फ संसदवाद का मार्ग अपना लिया. सन 1941 ई. में स्वामी सहजानंद ने ‘क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा’ पुस्तक लिखकर यह स्पष्ट कर दिया था कि –
- भारत में बोल्शेविक क्रान्ति संभव नही है.
- चीन की क्रान्ति से यह सीखा जा सकता है कि भारत में क्रान्ति की मंजिल जनता का जनवाद होगी, क्रान्ति का नेतृत्व सर्वहारा करेगा किन्तु प्रधान बल किसान होगा. यह मजदूर-हडताल और किसान-बगावत से संपन्न होगा. भारत में लाल-सेना की जरूरत नही है, क्रान्ति व्यापक जन-उभार के रास्ते होगी. आत्मरक्षा के लिए मिलीशिया रखना होगा, जरूरत पडने पर जरूरी हिंसा से परहेज नहीं किया जाएगा.
मगर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस पुस्तक की न तो निंदा ही की और न स्तुति बल्कि पूर्ण उपेक्षा की. आज तक सभी प्रकार के कम्युनिस्टों ने इस पर चुप्पी साध रखी है ताकि यह प्रकाश में नही आ सके.
सन 1949 ई. में स्वामी सहजानंद ने ‘किसानो के दावे और कार्यक्रम के खरीते’, पुस्तक लिखकर बताया कि –
- संघर्ष का मुख्य रास्ता वर्ग-संघर्ष होगा.
- संसदवाद संघर्ष का गौण रास्ता होगा, वह भी तब, जब नेता प्रशिक्षित एवं परीक्षित हो. वह भी इस मतलब से कि संसद में जाकर, शासक वर्ग का भंडाफोड करेंगे और वर्तमान कानून के तहत जो भी सुविधा प्राप्त हो सकती है, उसे हासिल करेंगे तथा जनता को बताएंगे कि संसदवाद से तुम्हारी जरूरतें नही पूरी की जा सकती है. वर्ग-संघर्ष ही संघर्ष का असली रास्ता है.
स्वामी सहजानंद की इस स्थापना से नेहरूवाद में लिप्त कम्युनिस्टों को भी दिक्कत हुई और ‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन है, राजसत्ता का जन्म बंदूक की नली से होता है’ पर आचरण करने वाले नक्सलियों को भी दिक्कत हुई. इस परिस्थिति में स्वामी सहजानंद के देशी-मार्क्सवाद की स्थापना को, सभी तरह के कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों ने नेपथ्य में ढकेल दिया.
- राघव शरण शर्मा
Read Also –
स्तालिन : साम्राज्यवादी दुष्प्रचार का प्रतिकार
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का शुरुआती दौर, सर्वहारा आंदोलन और भगत सिंह
मार्क्स की 200वीं जयंती के अवसर पर
भारत में क्यों असंभव है फ्रांस जैसी क्रांति ?
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]