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बस्तर का सच यानी बिना पांव का झूठ

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बस्तर में माओवाद के खिलाफ जारी भारत सरकार के जंग में ऐसे कई झूठ फैलाये जा रहे हैं जो न केवल आदिवासियों और स्वतंत्र आवाज़ों के खिलाफ हैं बल्कि सुरक्षाबलों के लिये भी घातक हैं. यही कारण है कि इन झूठों के खिलाफ सवाल खड़े चाहिए, वरना वह दिन दूर नहीं जब माओवादी अपने हाथों में हथियार लहराते हुए देश की सत्ता कब्जा ले. प्रस्तुत आलेख हृदयेश जोशी का है, जो एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं. उन्होंने माओवादी हिंसा और पुलिसिया दमन पर एक किताब – लाल लकीर – भी लिखी है. प्रस्तुत आलेख 2017 में प्रकाशित की गई थी, परन्तु इसमें उठाये गये सवाल आज भी समीचीन है और भारत सरकार उससे कोई सबक नहीं सीख सकी है. अब तो नये-नये टर्म का इजाद कर रही है और लोगों, बुद्धिजीवियों, युवाओं को जेलों में बंद कर रही है अथवा उनकी हत्या कर रही है. जरूरत है गंभीरता से चीजों को देखने और सही निर्णय लेने की, गेंद सरकार के पाले में है, वह समझती है अथवा अंधी बनी रहती है – सम्पादक

बस्तर का सच यानी बिना पांव का झूठ

पोडियम पंडा और बेला भाटिया

कहते हैं झूठ के पांव नहीं होते. छत्तीसगढ़ के बस्तर में माओवादियों के साथ सुरक्षाबलों और पुलिस की जंग में ऐसे कई झूठ बिना पैर के चल रहे हैं. इनमें से ज़्यादातर झूठ उस आवाज़ को दबाने के लिये हैं जो यह कहती है कि बस्तर में सिर्फ पुलिस और सुरक्षा बल या सिर्फ माओवादी ही नहीं हैं. वहां आदिवासी भी रहते हैं. उनका भी जीवन है. उनका अपना एक परिवेश है और अपने अधिकार हैं. ये अधिकार उन्हें संविधान ने दिये हैं. संविधान में उन्हें आदिवासी दर्जे की वजह से अतिरिक्त अधिकार मिले हुये हैं. लेकिन इस जंग में ऐसे झूठ फैलाये जा रहे हैं जो न केवल आदिवासियों और स्वतंत्र आवाज़ों के खिलाफ हैं बल्कि पुलिस और सुरक्षाबलों के लिये भी घातक हैं.

ताज़ा मामला पोडियाम पंडा का है. मीडिया के कुछ हिस्सों में ख़बर आई कि पोडियाम पंडा माओवादी है और उसने यह स्वीकार किया है कि वह सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया और दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर का माओवादियों से लिंक बनाता रहा है. इन खबरों में कहा गया कि पंडा ने खुद ये बात स्वीकार की है. यानी पंडा कह रहा है कि नंदिनी और बेला जैसे लोग नक्सलियों से मिले हैं और उनके नेटवर्क का ही हिस्सा है. सुंदर और बेला पर ऐसे आरोप पहली बार नहीं लगे हैं. उन्हें बार-बार माओवादियों के शहरी नेटवर्क का हिस्सा बताया जाता रहा है और दूसरे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर भी ये आरोप लगते रहे हैं.

नंदिनी सुंदर ने न केवल इस खबर का तुरंत खंडन किया बल्कि यह भी बताया कि वह कई साल से पोडियाम पंडा को जानती हैं. उसके बच्चों की शिक्षा में मदद कर रही हैं और पंडा कभी ऐसा बयान नहीं दे सकता. सुंदर का ये भी कहना है कि पंडा का बयान पुलिस के दबाव में लिया गया है.

आखिर कौन है ये पोडियाम पंडा ? पंडा दक्षिण बस्तर में सुकमा के चिंतागुफा गांव का पूर्व सरपंच रह चुका है. उसके जैसे लोग उन सबके लिये एक उम्मीद की तरह हैं जो बस्तर में शांति बहाली चाहते हैं. नंदिनी सुंदर ने लिखा है कि पंडा जैसे लोगों की वजह से बस्तर के गांवों में कुछ स्कूल चल जाते हैं या गांव में कभी-कभार ही सही दवाखाने खुलते हैं और स्वास्थ्य कर्मचारी आ जाते हैं.

अपने बयान में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने कहा है कि पोडियाम पंडा ग्राम चिंतागुफा का पूर्व सरपंच और सीपीआई का सदस्य है. बयान में कहा गया है कि पंडा को पुलिस उठा कर ले गई है और परिवार के लोगों को मिलने नहीं दिया जा रहा है. सीपीआई नेता मनीष कुंजाम का कहना है कि न तो पंडा माओवादी कार्यकर्ता है और न उनका समर्थक.

सवाल यह है कि मनीष कुंजाम या नंदिनी सुंदर की बातों पर भरोसा क्यों किया जाये ? सुंदर के आलोचक कहेंगे कि पंडा एक माओवादी है और सुंदर उसकी हमदर्द. इसलिये उन्होंने ये बातें अपनी किताब में लिखी हैं.

अपनी किताब “द बर्निंग फॉरेस्ट” में नंदिनी सुंदर लिखती हैं – ‘‘2007 में पोडियाम ने सात सीआरपीएफ के जवानों की जान बचाई, जब ये जवान छुट्टी पर घर जा रहे थे. पंडा ने रात भर माओवादियों से बहस की. उसने अपने हिस्से का चावल भी सीआरपीएफ के जवानों को दिया. पंडा एक संवेदनशील इंसान है और जो भी उसे जानता है, वह पंडा की इज्जत करता है. चाहे माओवादी हों, पुलिस हो या फिर गांव वाले….”.

लेकिन सवाल यह है कि मनीष कुंजाम या नंदिनी सुंदर की बातों पर भरोसा क्यों किया जाये ? सुंदर के आलोचक कहेंगे कि पंडा एक माओवादी है और सुंदर उसकी हमदर्द. इसलिये उन्होंने ये बातें अपनी किताब में लिखी हैं. बस्तर में इतने सालों घूमने और वहां के लोगों, पुलिस अधिकारियों और सुरक्षा बलों के जवानों से बात करने के बाद मैं कह सकता हूं कि हमारी पुलिस और सुरक्षा बल जंगलों में एक बहुत कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका मुकाबला एक बेहद खतरनाक गुरिल्ला फोर्स से है जो छद्म युद्ध करती है.

इस लड़ाई में गांवों में रहने वाले आदिवासियों और नक्सलियों के मुखबिरों के बीच अंतर बहुत धुंधला हो जाता है. असल में जंग का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यही है कि कैसे आदिवासियों का विश्वास जीता जाये. इस लड़ाई में पुलिस और सुरक्षा बल हमेशा पिछड़ते रहे हैं और उसकी साफ वजहें हैं. फिल्मकार संजय काक की डॉक्यूमेंट्री ‘द रेड आंट ड्रीम’ में माओवादियों से लड़ रही फोर्स को ट्रेंड करने वाले जंगल वॉरफेयर स्कूल के ब्रिगेडियर पंवर भी यही बात कहते हैं. ‘जिस ओर जनता झुकेगी, जीत उसी की होगी.’ लेकिन बस्तर में जनता को अपनी ओर झुकाने के बजाय उन लोगों को लगातार प्रताड़ित किया जा रहा है, जो शांति बहाली और माओवाद के खात्मे के लिये बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं.

जुलाई, 2010

बस्तर का लिंगाराम कोडोपी अचानक नक्सली कमांडर घोषित कर दिया गया. उस वक्त आंध्र प्रदेश पुलिस ने आदिलाबाद के जंगलों में सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आज़ाद को मार दिया था. बस्तर पुलिस ने तुरंत ऐलान किया कि आज़ाद के मारे जाने के बाद माओवादियों ने लिंगाराम कोडोपी को बस्तर का कमांडर बना दिया है.

सच ये है कि लिंगाराम कोडोपी दिल्ली से लगे नोएडा में एक मीडिया कोर्स कर रहा था. मैंने खुद लिंगाराम कोडोपी से बात की तो उसने बताया था कि वह पत्रकार बनना चाहता है. बाद में लिंगाराम कोडोपी ने ताड़मेटला कांड में गांव वालों के घर जलाये जाने के वीडियो भी शूट किये. लिंगाराम कोडोपी के नक्सलियों के साथ कनेक्शन होने या उनके लिये काम करने की बात कभी साबित नहीं हुई हालांकि वह काफी पुलिस प्रताड़ना झेल चुका है.

‘इंसाफ दिलाना लोकतंत्र और सभ्य समाज के लिये सबसे ज़रूरी चीज़ है. लोग तब हिंसा नहीं करते जब वो भूखे हों. लोग हिंसा तब करते हैं जब उन्हें इंसाफ से वंचित किया जाता है.’

मार्च, 2010

स्कूल टीचर सोनी सोरी से मेरी मुलाकात समेली गांव में हुई. सोनी के पति अनिल बुटाने को पुलिस ने जेल में डाल दिया था और सोनी ने मुझसे कहा कि न तो उसके पति के केस की सुनवाई हो रही है, न उन्हें ज़मानत मिल रही है. बाद में सोनी सोरी को लिंगाराम कोडोपी के साथ ही नक्सलियों के लिये पैसे वसूलने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. सोरी के केस में भी कोई आरोप अदालत में साबित नहीं हुआ. सोरी आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ी और पिछले साल उसने दंतेवाड़ा के अंदरूनी गांव में जाकर माओवादियों के गढ़ गोमपाड़ में तिरंगा फहराया.

सोनी और लिंगा जैसे लोग माओवादी नहीं बल्कि पुलिसिया दमन के साथ माओवाद के भी शिकार हैं. ऐसे ही लोगों की आवाज़ उठाने के लिये पुलिस और कई स्वयंभू संगठन नंदिनी सुंदर और बेला भाटिया जैसे लोगों को नापसंद करते हैं.

बेला भाटिया ने इसी साल जनवरी में मुझे दिये एक इंटरव्यू में कहा था, ‘अगर आप सिर्फ हिंसा की बात करेंगे और इंसाफ की बात नहीं करेंगे तो बात नहीं बनेगी.’ उनके इस बयान का काफी महत्व है. आज बस्तर की दो प्रमुख दिक्कतें हैं. सरकार और आदिवासियों के बीच भरोसे की कमी और इंसाफ न मिलने की झुंझलाहट.

सवाल ये है कि मेरी बातों पर भी क्यों यकीन किया जाये. पुलिस के मुताबिक बहुत सारे पत्रकार भी तो नक्सल समर्थक हैं !

तो बस्तर के हालात पर चर्चा करते हैं. मानवाधिकार के मामले में बस्तर का रिकॉर्ड बहुत खराब है. सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया के घर जाकर इस साल जनवरी में जिस स्वयंभू संगठन के लोगों ने हंगामा किया और उन्हें धमकी दी थी वह संगठन पुलिस समर्थित लोगों का ही था. इस बात के पर्याप्त सुबूत हैं. ये लोग किस बात के लिये बेला भाटिया से नाराज़ थे ?

बेला भाटिया बस्तर के अंदरूनी गांवों में महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों द्वारा कथित बलात्कार के मामले उठा रही थीं. बेला ने इन गांवों तक पहुंचने में मानवाधिकार आयोग की टीम की मदद की. आयोग ने प्रथम दृष्टया इन आरोपों को सही पाया और बस्तर के पुलिस अधिकारियों को पेश होने को कहा लेकिन वहां के तत्कालीन पुलिस प्रमुख अब तक उसके सामने पेश नहीं हुये हैं.

1960 के दशक में नक्सली आंदोलन का हिस्सा रहे और आज माओवादी हिंसा के सबसे बड़े आलोचकों में से एक दिलीप सिमियन भी कहते हैं, ‘इंसाफ दिलाना लोकतंत्र और सभ्य समाज के लिये सबसे ज़रूरी चीज़ है. लोग तब हिंसा नहीं करते जब वो भूखे हों. लोग हिंसा तब करते हैं जब उन्हें इंसाफ से वंचित किया जाता है. जब उन्हें लगता है कि वो जानवरों की तरह कुचले जा रहे हैं.’

यह सोचना बिल्कुल नादानी होगा कि बस्तर के अंदरूनी गांवों में रह रहे लोगों का माओवादियों से कोई संपर्क नहीं होना चाहिये या वे माओवादियों के दबाव में कुछ काम नहीं करेंगे.

बस्तर की जेलें आज खचाखच भरी हुई हैं. इन जेलों में क्षमता से कई गुना अधिक कैदी हैं. बहुत सारे लोग तो ऐसे हैं, जो अपनी ज़मानत के लिये छोटी सी रकम भी नहीं दे सकते और उन पर आरोप बेहद मामूली हैं. सरकार ऐसे लोगों को रिहा क्यों नहीं कर रही ? इन लोगों को इंसाफ से महरूम ही नहीं रखा जा रहा बल्कि जानबूझकर इन लोगों की अदालत में सुनवाई भी टाली जा रही है.

छत्तीसगढ़ के जेल महानिदेशक ने पिछले साल मुझसे फोन पर बात करते हुये यह माना था कि जेलें क्षमता से अधिक भरी हुई हैं. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि राज्य सरकार और अधिक जेलें बना रही है ताकि हालात ठीक हो सकें. यानी सरकार न्यायिक प्रणाली को दुरस्त करने और निर्दोष लोगों को रिहा करने में कम उन्हें कैद बनाए रखने में अधिक भरोसा करती है.

कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं लेकिन उन सभी लोगों को माओवादी या नक्सल समर्थक कह देना कहां से जायज है जो जंग की लकीरों के बीच फंसे लोगों की बात करते हैं ? वामपंथ की धाराओं से जुड़े लोगों पर भी तीखे हमले होते हैं. मनीष कुंजाम पर कई बार माओवादी समर्थक होने का आरोप लगा है जबकि कुंजाम जैसे लोग दरकते बस्तर में बीच की उस ज़मीन को बचाये हुये हैं, जो लोकतंत्र की उम्मीद दिखाती है. पिछले दिनों बस्तर में सीपीआई (माओवादी) की ओर से एक कथित डेथ वारंट जारी किया गया जिसमें नंदिनी और बेला भाटिया के साथ सीपीआई (एमएल) की कविता कृष्णन को बदनाम करने वालों को जान से मारने की धमकी दी गई है.

इस डेथ वारंट की सत्यता की पुष्टि पुलिस की ओर से नहीं की गई लेकिन यह परचा कई लोगों ने सोशल मीडिया में प्रचारित किया. सीपीआई (एमएल) की कविता कृष्णन ने सोशल मीडिया पर गलत प्रचार करने वालों के खिलाफ पुलिस शिकायत दर्ज करने की चेतावनी दी तो ट्वीटर पर कविता को नक्सली समर्थक कह कर उन पर हमले किये गये.

दिक्कत ये है कि बस्तर में राजनीतिक शून्यता है, जो माओवाद के खिलाफ जंग में पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ खड़ी होती है. इस शून्यता का फायदा माओवादियों को मिलता है. छत्तीसगढ़ में पुलिस या सुरक्षा बलों या हथियार और गोला बारूद की कमी नहीं है. आज राज्य में सीआरपीएफ की ही 30 बटालियन है. इसके अलावा बीएसएफ, एसएसबी और आईटीबीपी की मिलाकर करीब 10 बटालियन हैं. यानी करीब 40 हज़ार केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की तैनाती. सुकमा में इनका घनत्व सबसे अधिक है. यहां करीब 14 लोगों पर एक पुलिस या सुरक्षा बल का जवान है. लेकिन जितने वर्दी वाले यहां मौजूद हैं उतनी ही नदारदगी नेताओं की है. राजनीतिक पहल या हरकत बिल्कुल नहीं है.

यह सोचना बिल्कुल नादानी होगा कि बस्तर के अंदरूनी गांवों में रह रहे लोगों का माओवादियों से कोई संपर्क नहीं होना चाहिये या वे माओवादियों के दबाव में कुछ काम नहीं करेंगे. माओवादियों के दबदबे वाले इलाकों में लोग उनसे चाहे-अनचाहे जुड़े रहेंगे लेकिन माओवादियों और बस्तर के ग्रामीणों के बीच की कड़ी को तोड़ने के लिये पोडियाम पंडा जैसे लोगों को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है न कि उन्हें गिरफ्तार करने या प्रताड़ित करने की.

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