कई विकलांग और बीमार लोग पैदल ही दिल्ली-मुुुंबई से चले और अपने घर पहुंंच गए. उसी दिल्ली-मुंबई से ट्रेनें चली और कहीं और पहुंच गईं. जिस ट्रेन को यूपी जाना था, ओडिशा चली गई. देश ही नहीं, दुनिया के इतिहास में पहली बार हुआ है कि 40 ट्रेनें रास्ता भटक गईं.
लेकिन ट्विटर देवता का आदेश है कि इस पर भी गर्व करना है. गर्व का नाम डिक्शनरी में बदलकर ‘शोक’ कर देना देना चाहिए. जिस पर गर्व करने को कहा जाए, समझ लीजिए कि शोक मनाने का मुफीद मौका है. इस रास्ता भटकने पर भी रेलमंत्री और सरकार रेलवे के कसीदे पढ़ रहे हैं. रेलवे की महान उपलब्धि यह है कि चलती है बंबई के लिए, पहुंच जाती है बेंगलुरु. चलती है गोंडा के लिए, पहुंच जाती है गाजियाबाद.
महाराष्ट्र से गोरखपुर के लिए चली ट्रेन ओडिशा पहुंच गई. बेंगलुरु से बस्ती जाने वाली ट्रेन गाजियाबाद पहुंच गई. महाराष्ट्र से ट्रेन पटना के लिए चली, लेकिन पहुंच गई पुरुलिया.
जो रेलवे रोज छह हजार ट्रेन चलाती थी, उससे 200 ट्रेनें नहीं चल पा रही हैं. जो रेलवे रोज आस्ट्रेलिया के बराबर जनता को ढोती थी, वह दो महीने में 37 लाख लोगों को यात्रा करवा कर अपनी पीठ ठोंक रही है. इस महान काहिली और असफलता के लिए भारतीय रेलवे और रेलमंत्री को महा भारत रत्न दे देना चाहिए.
दो दिन के सफर के लिए लोग ट्रेन पर बैठे थे, 9 दिन तक ट्रेन में ही रहे. जो लोग बिहार के लिए चले थे, वे कहीं और पहुंच गए. ट्रेनें 30 घंटे का रास्ता 4 दिन में तय कर रही हैं. दो दिन का रास्ता 6 दिन में तय कर रही हैं.
मा.रेल मंत्री @PiyushGoyal जी कृपया जवाब दीजिये 2 दिन के बजाय 9 दिन में ट्रेन क्यों पहुँची? 7 लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन है? https://t.co/kc7bTuvyj0
— Sanjay Singh AAP (@SanjayAzadSln) May 26, 2020
इस दौरान श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में सात लोगों की मौत हो गई. गर्भवती मां ने ट्रेन में ही बच्चे को जन्म दिया. लोग कई दिनों तक भूखे रहे. जैसे यातना देकर लोगों को संदेश दिया गया है कि अब जीवन में सरकार से दोबारा मदद मत मांगना. आत्मनिर्भर बनो. जहां जाना है जाओ, खाना है खाओ. मरना है मरो. सरकार से मदद मत मांगो. मांंगना सरकार का काम है. सरकार वोट मांगेगी, अपनी आत्मनिर्भरता पर निहाल होकर तुम वोट डाल देना.
आप कल्पना कीजिए कि नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी को लेकर कोई विमान उड़े और पांच दिन तक आसमान में उड़ता फिरे! क्या ऐसा हो सकता है ? असंभव है. यही स्पेशल ट्रेन वाली जनता अगर अमीर वर्ग की होती तो अब तक हाहाकार मच गया होता. लेकिन वे गरीब लोग चाहे पैदल जाएं, चाहे ट्रेन से या बस से, हर यात्रा उनके लिए नरकयात्रा समान ही है.
पानी लेने पर मजदूरों की पिटाई करता रेलवे कर्मचारी
आत्मनिर्भर अगर कोई हुआ है तो वह इंडियन रेलवे. रेलवे ने अपनी सब ट्रेनों को निजी स्तर पर भी आत्मनिर्भर कर दिया है. ट्रेनें खेत-सिवान मेंं घूमते छुट्टा सांड़ की तरह व्यवहार कर रही हैं. मन करता है तो बंबा की तरफ जाती हैं, मन करता है तो बाबूपुरवा की तरफ चली जाती हैं, मन करता है तो तलरिया मेंं पानी पीती हैं, मन करता है तो धूल उड़ाती हैं, कुछ नहीं मन करता है तो बगिया मेंं जामुन के पेड़ के नीचे लेटकर आराम करती हैं.
सब ट्रेनें आत्मनिर्भर हैं. सब कर्मचारी भी आत्मनिर्भर हैं. बिहार जाने वाली ट्रेन को ओडिशा पहुंचाकर भी मगन हैं. मंंतरी, संतरी, परधान सब मगन हैं. कोई नहीं पूछने वाला है कि ऐसा क्यों किया, ऐसा क्यों हुआ ?
रेलमंत्री भी ट्विटर पर आत्मनिर्भर हैं. अपनी ही फर्जी तारीफों के पुल बांध रहे हैं और कोई टोक भी नहीं रहा है. भारतीय रेलवे जो दुनिया का चौथा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है, वह अब इतना आत्मनिर्भर हो गया है कि कंट्रोल से ही बाहर चला गया है.
ऐसा लगता है कि आत्मनिर्भरता वाला भाषण दरअसल निरंंकुशता और अराजकता का आह्वान था, वरना 40 ट्रेनों के रास्ता भटक जाने के लिए किसी की तो जिम्मेदारी तय की जाती. यहां कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. पूरा देश आत्मनिर्भर हो गया है. प्रधानमंत्री, रेल मंत्री, वित्त मंत्री, रेलवे, परिवहन, उड्डयन से लेकर दारोगा सिपाही तक सब आत्मनिर्भर हो गए हैं. किसी को किसी से न तो मतलब है, न कोई जिम्मेदारी है, न किसी हिम्मत है जो इस सरकार पर दबाव डाले.
ऐसा लग रहा है कि आत्मनिर्भर होने का मतलब है कानून, संविधान और लोकतंत्र की सारी जवाबदेहियों को बर्खास्त कर देना.
- कृष्ण कांत, पत्रकार
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