हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
हिन्दी क्षेत्र के लोग आर्थिक खबरों को लेकर उतने संवेदनशील क्यों नहीं होते जितना उन्हें होना चाहिये. जीडीपी में आ रही गैर-मामूली गिरावट या बाजार में छाती मंदी, बैंकिंग सेक्टर की गिरती सेहत उनकी बहसों में क्यों नहीं शामिल होती ? यहां तक कि देश में सर्वाधिक बेरोजगारी की दर इसी इलाके में है, तब भी, रोजगार का मुद्दा इनके जेरे बहस नहीं आता. तब, जबकि माना जाता है कि हिन्दी पट्टी राजनीतिक रूप से जितनी संवेदनशील और जागरूक है, उतना देश का कोई और क्षेत्र नहीं. फिर, यह संवेदनशीलता एकांगी किस्म की क्यों है ? आर्थिक मानकों पर सबसे पिछड़ा इलाका रहने के बावजूद यहां की राजनीति को इनसे जुड़े मुद्दे अधिक प्रभावित नहीं करते. यह अजीब सा विरोधाभास है.
क्या हिन्दी मीडिया एक हद तक इसका जिम्मेवार है ? या फिर, यहां के लोग ही ऐसे हैं जिन्हें भावनात्मक मुद्दों पर तो जोश दिलाया जा सकता है, बरगलाया भी जा सकता है, लेकिन आर्थिक मुद्दों पर इन्हें जागरूक करना आसान नहीं. हिन्दी अखबारों में आर्थिक खबरों को अधिक स्पेस नहीं दिया जाता. हिन्दी न्यूज चैनलों की तो बात ही क्या करनी. बाजार तर्क देता है कि हिन्दी मीडिया का उपभोक्ता परिष्कृत रुचियों का नहीं इसलिये जो उसको चाहिये, वह उस तक पहुंचाया जाता है. इस तर्क के साथ अखबार अपनी स्तरहीनता और न्यूज चैनल अपने फूहड़पन को ढकने का प्रयास करते हैं. असल में, स्तरीयता का यह मजाक, यह फूहड़पन न अनायास है न स्वाभाविक. मीडिया प्रभुओं की यह सोची-समझी नीति है.
एनपीए से बर्बाद होते बैंकों की अंतर्कथा अगर आम लोगों की समझ की भाषा में सीरीज दर सीरीज सामने आने लगे, कारपोरेट के पंजों में सिमटते गैस के व्यापार पर अगर रिपोर्ट्स पर रिपोर्ट्स आने लगें, जीडीपी मापने के बदल दिए गए पैमानों पर अगर विस्तृत विश्लेषण आने लगे तो सत्ता-संरचना की बड़ी मुसीबत होगी. अंग्रेजी में बहुत कुछ सामने आता है. हिन्दी में उसकी तुलना में बहुत कम. बहुत सारे लोग इसका संबंध साहस या निर्भीकता से जोड़ते हैं, जो कुछ अंग्रेजी अखबार दर्शाते रहे हैं. हिन्दी में ऐसा उदाहरण नगण्य प्राय है.
वास्तव में, इन मामलों में साहस और निर्भीकता जैसे शब्द संस्थानों से अधिक जुड़े हैं, पत्रकारों से कम. अंग्रेजी मीडिया में कुछ संस्थान सत्ता विरोधी रिपोर्ट्स सामने लाने में उल्लेखनीय निर्भीकता का प्रदर्शन करते हैं, तभी उनसे जुड़े पत्रकारों का भी मनोबल बढ़ता है. हिन्दी में, ऐसा खोजना मुश्किल है. जाहिर है, जब संस्थान ही कायर या मतलबी हो तो पत्रकार क्या कर लेंगे. नतीजा, हिन्दी, संभवतः तमाम भारतीय भाषाओं में, हमें ऐसी सामग्रियां कम मिलती हैं जो आंखें खोल सकें. सूचना क्रांति के इस दौर में सूचनाएं तो फैलती ही हैं, लेकिन अगर वे अपने मौलिक आधार के माध्यम से सामने आएं तो असर अधिक पड़ता है.
बहुत सारी साजिशें हैं आम लोगों के खिलाफ. वे अपनी भाषा में खुद को अभिव्यक्त कर अच्छी नौकरी नहीं पा सकते, अपनी भाषा में स्तरीय या जरूरी सूचनाएं नहीं पा सकते. वे अंग्रेजी पर निर्भर करेंगे. और, जिस-जिस क्षेत्र में आम लोगों को अंग्रेजी पर निर्भर किया जाएगा, उस-उस क्षेत्र में वे पिछड़ेंगे.
यही तो सत्ता-संरचना चाहती है. इसका असर भी होता ही है. संकटों के मुहाने पर खड़ी देश की अर्थव्यवस्था और असमंजस में पड़े इसके नियामकों से वे तो सवाल कर ही नहीं रहे, जो इस बदहाली में सबसे अधिक बेहाल हैं. भ्रम का वातायन रचती राजनीतिक शक्तियों के लिये ऐसे लोग बेहद जरूरी हैं, जो अपनी बेहाली पर सवाल खड़े न कर भावनात्मक मुद्दों पर जयकारे लगाते रहें. हिन्दी पट्टी इस मामले में उर्वर है कि जयकारे लगाते बेहाल लोगों की यहां बहुतायत है.
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