रविश कुमार, मैग्सेस अवार्ड प्राप्त जनपत्रकार
‘अरे’ से शुरू होकर ‘रे’ पर खत्म हो रहे वाक्यों ने प्रधानमंत्री की भाषा को नई गरिमा दी है. तहजीब की किताब में ‘रे’ का जो मुकाम है वो ‘अरे’ का नहीं है. ‘अरे’ के इस्तेमाल के कई संदर्भ हो सकते हैं. ’अरे’ में आह्वान भी है और ललकार भी. क्रोध भी. रे’ के भी हैं लेकिन ‘सुन ओ सखी रे’ के अंदाज से तो प्रधानमंत्री का मतलब ही नहीं था. उनके ‘रे’ में दुत्कार है. तिरस्कार है. ‘रे’ सड़क की भाषा में तू-तड़ाक के परिवार का है. भारत के प्रधानमंत्री को जनता ने कितना प्यार दिया लेकिन बदले में उन्होंने कैसी भाषा दी है. रामलीला मैदान में उनकी भाषा का लहजा नफरत तिरस्कार और झूठ से भरा था.
उनका भाषण सिर्फ भाषा की तहजीब के लिहाज से जनता को अपमानित नहीं करता बल्कि तथ्यों के लिहाज से भी करता है. कई बार समझना मुश्किल हो जाता है कि जिन फैसलों को लेकर हर बार चार सौ सीटें मिलने और विराट हिन्दू एकता के मजबूत होने की बात कही जाती है, उन्हीं फैसलों के बचाव में प्रधानमंत्री की भाषा तू-तड़ाक और अरे-रे की क्यों हो जाती है ? क्या यही विराट हिन्दू एकता की सार्वजनिक तहजीब होगी ? क्या इस विराट हिन्दू एकता के बच्चे घरों में ‘अरे’ और ‘रे’ बोलेंगे ?
गनीमत है प्रधानमंत्री की भाषा मन की बात में जाकर शालीन हो जाती है, जैसी एक चाहे जाने वाले लोकप्रिय नेता की होना चाहिए. मगर राजनीति में उनके समर्थकों ने जिस भाषा को गढ़ा है और जब उसकी झलक प्रधानमंत्री की भाषा में दिखती है, तो अच्छा नहीं लगता. अपने आलोचकों को मां-बहन की गालियां देने वाले कहीं, एक दिन घरों में मां-बहन या पिता के साथ न बोलने लगें ? एक अच्छा नेता अपने समर्थक समुदाय के बीच शालीनता के मानक को भी गढ़ता है, प्रधानमंत्री ध्वस्त कर देते हैं.
‘मैंने कभी धर्म और जाति के आधार पर पूछा क्या ?’ जवाब है ‘कई बार पूछा.’ अभी तो पिछले हफ्ते झारखंड में प्रधानमंत्री उपद्रवियों को उनके कपड़े से पहचानने की बात कह रहे थे. उसी एक चुनाव की सभा में अमित शाह खुद को बनिया कह रहे थे. बहुत पीछे जाएंगे तो प्रधानमंत्री खुद की जाति से वोटर को आह्वान करते पाए जा सकते हैं.
रामलीला के ही भाषण में नागरिकता कानून के विरोधियों को वे आसानी और चालाकी से पाकिस्तान परस्त घोषित करते हैं. जब वे कहते हैं कि ‘इन्हें पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और आतंकवाद का विरोध करना चाहिए कि नहीं ?’ ये लोग नागरिकता कानून का विरोध कर रहे हैं और प्रधानमंत्री उन्हें आतंकवाद के समर्थक होने के कटघरे में खड़ा कर रहे हैं. शायद वे अपनी इस बात से उस विराट हिन्दू एकता की समझ बुद्धि के समाप्त हो जाने का एलान भी कर रहे हैं, जो उनके हिसाब से उतना ही सोचेगी, जो वे कह देंगे. दुःखद है.
अगर इस बात का इशारा हाथों में तिरंगा उठाए मुसलमानों की तरफ है, तो यह सिर्फ एक छोटा-सा तथ्य है. लेकिन क्या आपको पता है कि 2008 के साल में दारु़ल उलूम के नेतृत्व में 6000 मुफ़्तियों ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पर दस्तखत किए थे। उसी साल इसी रामलीला मैदान में आतंकवाद की निंदा करते हुए बड़ी सभा हुई थी और ऐसी सभा देश के 200 शहरों में हुई थी। जिसमें कई मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने हिस्सा लिया था। यही नहीं 2015 में जब सीरिया में ISIS का ज़ोर था तब इन्हीं संगठनों ने भारत में 70 से अधिक सभाएं कर इसकी निंदा की थी. दारुल उलूम और अन्य मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने इसका नेतृत्व किया था.
उसी सभा में प्रधानमंत्री ने एक बार नहीं कहा कि ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’ नारे लगाने वाले उनकी पार्टी के कार्यकर्ता और नेता नहीं हो सकते. उनके नेता और कार्यकर्ता तिरंगा लेकर गोली मारने वाले नारे लगा रहे हैं. जामिया को आतंक का अड्डा बताते हैं. प्रधानमंत्री इन बातों पर चुप रहे और पुलिस की हिंसा और बर्बरता पर भी. यह समझना होगा जिस विराट हिन्दू एकता के नाम पर हर बात पर 400 सीटें मिलने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है, क्या उनके सबसे बड़ा नेता उस विराट हिन्दू एकता को यही भाषा संस्कार देना चाहते हैं ? जिसमें उनके समर्थक और उनके राज्य की पुलिस भीड़ और हिंसा की भाषा बोले ?
रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री ने लोगों से कहा कि देश की दोनों सदनों का सम्मान कीजिए. खड़े होकर सम्मान कीजिये. बस मैदान में जोशीला माहौल बन गया. लोग खड़े होकर मोदी-मोदी करते रहे. किसी को भी लगेगा कि क्या मास्टर स्ट्रोक है लेकिन लोकसभा और राज्य सभा में जब यह बिल लाया गया तो चर्चा में प्रधानमंत्री ने भाग लिया ? जवाब है नहीं. क्या चर्चा के वक्त प्रधानमंत्री सदन में थे ? जवाब है नहीं. क्या प्रधानमंत्री ने बिल पर हुए मतदान में हिस्सा लिया ? जवाब है नहीं. क्या आप यह बात जानते थे या मीडिया ने आपको यह बताया है ? जवाब है नहीं. क्या मीडिया आपको बताएगा ? तो जवाब है नहीं.
संसद के बनाए कानूनों का खुद उनकी पार्टी कई बार विरोध कर चुकी है. संसद के बनाए कानून की न्यायिक समीक्षा होती है. उसके बाद भी विरोध होता है. सुप्रीम कोर्ट भी अपने फैसलों की समीक्षा की अनुमति देता है.
प्रधानमंत्री के भाषण में कई झूठ पकड़े गए हैं. उन्होंने कहा नागरिकता रजिस्टर की सरकार में कोई चर्चा नहीं हुई. यह झूठ था क्योंकि कई बार सदन में और बाहर गृहमंत्री अमित शाह कह चुके हैं कि नागरिकता रजिस्टर लेकर आ रहे हैं. उनकी पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में कहीं नीचे किनारे लिखा है. आप जानते हैं कि जनता तक मीडिया घोषणा पत्र की बातों को कितना पहुंचाता है. अमित शाह ने अभी तक नहीं कहा कि बगैर चर्चा के ही वे संसद में बोल गए कि एनआरसी लेकर आ रहे हैं.
प्रधानमंत्री ने एक और झूठ कहा कि कोई डिटेंशन सेंटर नहीं बना है. इस साल जुलाई और नंवबर में ही उनकी सरकार ने संसद में बताया है कि असम में छह डिटेंशन सेंटर बने हैं और उनमें कितने लोगों को रखा गया है. संसद में जवाब की काॅपी सोशल मीडिया में घूम रही है. आप चेक कर सकते हैं कि आपके हिन्दी अखबारों और चैनलों ने बताने की हिम्मत की है या नहीं ?
सारा आधार यही है कि जनता को अंधेरे में रखो और झूठ बोलो. प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान में सरासर झूठ बोला है. यह झूठ विराट हिन्दू एकता के खड़े हो जाने का अपमान करता है. झूठ और नफरत की राजनीति की बुनियाद पर हिन्दू गौरव की रचना करने वाले भूल गए हैं कि इससे हिन्दू वैभव नहीं आएगा. वैभव आता है सुंदरता रचनात्मकता और उदारता से. अगर आप गौरव और वैभव का फर्क समझते हैं तो मेरी बात समझ लेंगे वरना मेरे इस लेख की प्रतिक्रिया में आने वाली आईटी-सेल की गालियों को पढ़ें और अपने घरों में आने वाले हिन्दू गौरव का स्वागत करने के लिए तैयार रहें.
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