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अपने शर्मनाक कृत्य को उपलब्धि बताकर पेश करना संघी चरित्र की विशेषता

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अपने शर्मनाक कृत्य को उपलब्धि बताकर पेश करना संघी चरित्र की विशेषता

Suboroto Chaterjeeसुब्रतो चटर्जी

अपने हरेक शर्मनाक कृत्य को उपलब्धि बताकर पेश करना संघी चरित्र की विशेषता है. इसकी शुरुआत हिंदू राष्ट्र की तालिबानी परिकल्पना से लेकर गांधी जी की हत्या से होते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस, गुजरात दंगे और राफाएल खरीद तक पहुँची है. वाजपेई की अंग्रेज़ों की मुखबिरी और कारगिल की बेवक़ूफ़ी और कफ़न चोरी उनको भारत रत्न बना देता है तो सावरकर माफ़ीनामा लिखकर वीर बनते हैं.

दीन दयाल उपाध्याय लंपट शराबी इनके प्रेरणा स्रोत हैं और दो हज़ार मासूमों का क़ातिल इनका सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री. गुंडा तड़ीपार इनका सरदार पटेल है और देशी विदेशी पूँजीपतियों की निर्लज्ज ग़ुलामी इनके आभामंडल की ज्योति. नोटबंदी से भले ही सैकड़ों जानें गई और आरबीआई के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था को नौ लाख करोड़ का घाटा हुआ हो, पर इनकी उपलब्धि है.

सत्तर सालों का रोना रोते हुए सत्तर सालों में बने हर सरकारी उपक्रम को निजी हाथों में बेचकर अपनी ऐयाशी के लिये पैसा जुटाना इनका देशप्रेम है. पैंतालिस सालों में ग़रीबी, भुखमरी और बेकारी में रिकार्ड बढ़ोत्तरी इनकी उपलब्धि है.

लोकतांत्रिक संस्थाओं की हत्या, चुनाव आयोग, नीति आयोग, सीबीआई, ईडी, न्याय व्यवस्था इत्यादि की विश्वसनीयता चुनाव जीतने और ( लोया प्रकरण के संदर्भ में) फाँसी से बचने के लिये उठाये गये शर्मनाक क़दम इनका राष्ट्रवाद है. देशप्रेम का अनूठा उदाहरण पुलवामा में अपने ही जवानों की हत्या करवाना है और कश्मीर की एक करोड़ जनता को नाज़ी कंसेंट्रेशन कैंप में तब्दील करना है.

इस बदले हुए राजनीतिक, सामाजिक नैरेटिव के दौर में अगर राफाएल की खरीद की आड़ में जनता के पैसे की लूट को राष्ट्रवाद का जामा पहना दिया जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

मॉब लिंचिंग अब सांवैधानिक स्तर पर मान्यता प्राप्त होने जा रहा है, एनआरसी के नये संस्करण के रूप में. निशाने पर देश के मुस्लिम हैं जिनके बलिदान के बिना 1857 से लेकर 1947 तक आज़ादी की कोई भी जंग अकल्पनीय है.

कल एक लेख पढ रहा था; संघी फ़ासिस्ट व्यक्ति को महिमामंडित कर अपने एजेंडा को आगे बढ़ा रहे हैं. कुछ हद तक सहमत भी हूँ; फिर ये सवाल रह जाता है क्या ऐसे में दो चार व्यक्तियों के नहीं रहने पर यह एजेंडा धराशायी हो जायेगा ? शायद नहीं. जैसे दो चार गौरी लंकेश, पनसरे, कलबुर्गी या हेमंत करकरे की हत्या से प्रतिरोध और सच्चा देशप्रेम का स्वर नहीं ख़त्म होता.

वैचारिक लड़ाई जब जमीन पर उतरती है तो व्यक्तियों की बलि लेती है, लेकिन वह एक लंबी लड़ाई का बस एक पड़ाव है, अंत नहीं. हिटलर और मुसोलिनी के मरे हुए कई दशक बीत गये लेकिन कैसी-कैसी घृणित औलादें छोड़ गये हम सब देख रहे हैं.

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ROHIT SHARMA

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