विनय ओसवाल, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
इस लेख का उद्देश्य ‘सामाजिक आंदोलन’ शब्द को सही अर्थ में व्याख्यायित करने के लिए समाजशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, विश्लेषकों आदि का ध्यान आकर्षित करना है कि देश के विकास के साथ आई आर्थिक सम्पन्नता का बंटवारा सामाजिक न्याय की कसौटियों पर खरा नहीं उतरता. आर्थिक रूप से शक्तिशाली सम्पन्न वर्ग विपन्नों की तुलना में ज्यादा सम्पन्न होता जा रहा है. ये बंटवारा न्यायपूर्ण हो, इसके लिए वर्तमान में एक ‘सामजिक आंदोलन’ को खड़ा करने की बड़ी आवश्यकता महसूस कर रहा हूं, जो संविधान की और उसके अधीन स्थापित लोकतांत्रिक मूल्यों को नष्ट करने पर आमादा संस्थाओं के मंसूबों को परास्त कर सके.
राष्ट्रवादी विचारधारा के बीज बोने और फसल उगाने के लिए, सम्पन्न को और अधिक सम्पन्न बनाने वाली राष्ट्रवादी विचारधारा के लिए इस देश की मिट्टी में सभी पोषक तत्व मौजूद हैं, इस बात की जांच ‘समाज विज्ञानियों के एक खास समूह’ ने अपनी प्रयोगशाला में आज से नौ दशक पूर्व ही कर ली थी. उन्होंने अथक परिश्रम कर अपनी प्रयोगशाला में ही इस विचारधारा के बीज की वह किस्म तैयार की, जो देश में तैयार किये गए संविधान और उसके अंतर्गत स्थापित शासन व्यवस्था में एक ’सामाजिक आंदोलन’ की शक्ल में जीवित ही नही रहे बल्कि फल-फूल भी सके. और इस देश ले लोगों के बीच उसके निर्माताओं को, संस्थाओं को, राजनैतिक पार्टियों को, कानूनविदों को, मूर्धन्य समाजशात्रियों आदि को नाकारा, अनुपयोगी, अप्रसांगिक भी ठहरा सके. ऐसा करते हुए वह बाबा साहेब आम्बेडकर की मूर्तियों के गले में माला डाल उनके अनुयायियों को भ्रमित भी करते रहते हैं. वो अपनी विचारधारा के हर उस आलोचक को मरणोपरांत सम्मान देने की तलाश में रहते है, जो आज उनका विरोध करने के लिए जीवित नही हैं. फिर चाहे सरदार पटेल हों, अम्बेडकर हों, लोहिया हों कोई हों.
संविधान में तमाम धर्मिक, सामाजिक, राजनैतिक विचारधाराओं को फलने-फूलने की पूर्ण आजादी की गारण्टी दी गयी थी. संविधान निर्माताओं को उस समय इस बात का अनुमान भी नहीं था कि संविधान के जिन प्रावधानों को वे उसकी सबसे बड़ी लोकतांत्रिक शक्ति के रूप में व्याख्यायित कर, फूले नहीं समा रहे हैं, वही कालांतर में उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाएगी.
ऐसी कमजोरी कि आजादी के पूरे आंदोलन को अहिंसक बनाये रखने और उस राह पर चलकर अंग्रेजों से सत्ता की बागडोर अपने हांथों में थामने की राह में अपना सब कुछ कुर्बान करने के इतिहास को अप्रसांगिक ही करार नहीं दे दिया जाएगा बल्कि मनगढ़ंत, झूठा करार दे उसके पुनर्लेखन के विरोध की आवाजों को नक्कारखाने में तूती की आवाज बना देगा. उसकी जगह उन क्रांतिकारियों को हीरो बना स्थापित किया जाएगा, जो अंग्रेजों से सत्ता छीनने के लिए हिंसा के इस्तेमाल के पक्षधर थे. चाहे वे अपने जीवनकाल में उनकी राष्ट्रवादी विचारधारा के मुखर विरोधी ही क्यों न रहे हों.
यह सब इसलिए किया गया ताकि सत्ता पाने की राह में रोड़ा बनने वालों की आवाजों को हिंसा से दबाने की आवश्यकता को सामाजिक और नैतिक स्वीकार्यता दिलाई जा सके. इस लक्ष्य को इसी संविधान की छत्र-छाया में हासिल किया गया और पूरे देश की राजनीति खीसें निपोरती रही.
पूरे देश की राजनीति खीसें इसलिए निपोरती रही कि आज तक किसी राजनैतिक दल ने किसी उद्देश्य को लेकर किसी ‘सामाजिक आंदोलन’ को खड़ा करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की. यह कहना अतिश्योक्ति इसलिए लगेगा कि आंदोलन शब्द की परिभाषा ही राजनीति के शब्दकोष में अपना सही अर्थ खो चुकी है.
इस लेख का उद्देश्य ‘सामाजिक आंदोलन’ शब्द को सही अर्थ में व्याख्यायित करने के लिए समाजशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, विश्लेषकों आदि का ध्यान आकर्षित करना है कि देश के विकास के साथ आई आर्थिक सम्पन्नता का बंटवारा सामाजिक न्याय की कसौटियों पर खरा नहीं उतरता. आर्थिक रूप से शक्तिशाली सम्पन्न वर्ग विपन्नों की तुलना में ज्यादा सम्पन्न होता जा रहा है. ये बंटवारा न्यायपूर्ण हो, इसके लिए वर्तमान में एक ‘सामजिक आंदोलन’ को खड़ा करने की बड़ी आवश्यकता महसूस कर रहा हूं, जो संविधान की और उसके अधीन स्थापित लोकतांत्रिक मूल्यों को नष्ट करने पर आमादा संस्थाओं के मंसूबों को परास्त कर सके.
मैं इसकी शुरुआत अपनी तरफ से ‘सामाजिक आंदोलन’ को परिभाषित करके करना चाहता हूं..
मेरे हिसाब से किसी भी आन्दोलन में दो आवश्यक तत्वों का होना अनिवार्य है, पहला, उद्देश्य और दूसरा, उस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक कारक, जिसे उस समाज में जिसके बीच आंदोलन को ले जाना है, के दुश्मन के रूप में खड़ा किया जा सके तथा समाज को इस बात को समझ सके उस दुश्मन को परास्त कर वास्तव में वे सुखी बन सकते हैं.
चूंकि आंदोलन देश में विकास के साथ आई आर्थिक सम्पन्नता के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए किया जाना है, इसलिए उस समाज में पैंठ बनानी होगी, जो इस सामाजिक अन्याय का वास्तविक शिकार बन गए है. यानी गरीब, दबे-कुचले, पिछड़े और निम्न मध्य वर्ग को उसकी ‘न्यायोचित हिस्सेदारी दिलाने’ को आंदोलन का उद्देश्य बनाना होगा.
विशेष ध्यान इस बात का रखना होगा कि इस आंदोलन का आधार जातीय न हो. वरना जाति के नाम पर दलित और पिछड़े के रूप में चिन्हित जातियों का आर्थिक रूप से सम्पन्न बन चुका वर्ग इस आंदोलन को हड़प लेगा और सम्पन्न लोगों के साथ मिलकर सत्ता की राजनीति करने लगेगा. आंदोलन समाज से कट कर किसी शमशान में राख बन उड़ रहा होगा या कब्रिस्तान में अपने दफनाने लिए दो गज जगह तलाश कर रहा होगा. हमारे संविधान निर्माताओं ने विकास के लाभों का समाज में न्यायोचित बंटवारे की कल्पना की थी, जो भटक गई और सत्ता के बंटवारे पर आकर अटक गई. आज यही तो हो रहा है.
(क्रमशः)
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