हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
जब कोविड-19 के त्रासदी काल को प्राइवेट अस्पतालों ने मुनाफाखोरी और लूट के अनुपम अवसर के रूप में लिया तो देश के ‘मजबूत नेता’ की बोलती बंद है और अमिताभ कांत जैसे लोग परिदृश्य से ओझल हैं.
अब जब अपने देश की हालत यह हो गई है कि राजधानी दिल्ली जैसे शहर में भी लोग अस्पतालों की देहरी से दुत्कार कर भगाए जा रहे हैं, इधर-उधर भटकते न जाने कितने लोग सड़कों पर ही मर जा रहे हैं, इस त्रासद समय में भी प्राइवेट अस्पतालों की लूट की हैरतनाक कहानियां सामने आ रही हैं तो, किसी संगठन या विश्वविद्यालय को चाहिये कि वह एक वेबनार का आयोजन करे और उसमें नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत को भारत के चिकित्सा तंत्र की दशा-दिशा पर बोलने के लिये आमंत्रित करे.
अमिताभ कांत इसलिये, क्योंकि वे उस नीति आयोग के सीईओ हैं जिसे भारत की भावी नीतियों का खाका तैयार करने का जिम्मा दिया गया है. इसलिये भी कि वह अमिताभ कांत ही थे जिन्होंने नीति आयोग का प्रतिनिधित्व करते हुए सार्वजनिक मंचों पर एकाधिक बार ‘एलिमेंटरी एडुकेशन’ और ‘हेल्थ सेक्टर’ के ‘कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन’ की बातें की हैं.
नीतियां किसी सार्वभौमिक फार्मूले पर नहीं बनतीं. इनके निर्माण में देश और काल की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है.
तो, कोविड-19 के इस भयावह दौर में, जब 135 करोड़ की आबादी वाले देश में महज एकाध लाख संक्रमित मरीजों के हास्पिटलाइज़ेशन में ही सरकारी चिकित्सा तंत्र की सांसें फूल चुकी हैं, प्राइवेट तंत्र अपनी मुनाफाखोरी के लिये मानवीय नैतिकता के अंतिम अध्याय का भी परित्याग कर चुका है, अमिताभ कांत को बताना चाहिये कि नीति आयोग देश की भावी चिकित्सा नीतियों को लेकर अब क्या सोच रहा है ?
2014 में सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी ने नीति-निर्धारण के संबंध में सबसे बड़ा कदम यह उठाया कि योजना आयोग को भंग कर दिया. उनके आर्थिक सलाहकार जिस वैचारिक स्कूल के अनुयायी थे, उसके अगुआ विचारकों में से एक फ्रेडरिक वॉन हायेक ने 1944 में ही अपनी किताब ‘द रोड टु सफर्डम’ में योजनाबद्ध विकास को ‘राजनीतिक रूप से खतरनाक’ बताया था, जो ‘केंद्रीकृत आर्थिक नियोजन’ के कारण ‘व्यक्ति और समूह की स्वतंत्रता’ को कम करता है.
अमेरिका की राजनीतिक और आर्थिक छत्रछाया में ऐसे अनेक वैचारिक स्कूल चल रहे थे, जो हर उस आर्थिक सिद्धांत के विरोध में थे, जो सरकार द्वारा बाजार की बेलगाम शक्तियों पर नियंत्रण की बातें करते थे. योजनाबद्ध विकास की प्रक्रिया भी उनमें से एक थी जो बाजार और सरकार के संबंधों को बाजारवादी दृष्टिकोण से इतर तरीके से परिभाषित करती थी.
जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने 1950 में योजना आयोग की स्थापना की. जाहिर है, नेहरू ने सोवियत संघ के योजनाबद्ध विकास से प्रेरणा लेकर इसकी स्थापना की थी और कई दशकों तक भारत की विकास गाथा में इसकी भूमिका उल्लेखनीय रही.
1980 के दशक में रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थैचर ने उस दौर के विख्यात अर्थशास्त्री और 1976 के नोबल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रेडमैन की वैचारिक छत्रछाया में हायेक के ‘द रोड टु सफर्डम’ को व्यावहारिक धरातल पर उतारने में अपनी राजनीतिक शक्तियों का भरपूर इस्तेमाल किया, जिसमें कारपोरेट वर्ल्ड का भरपूर सहयोग उन्हें मिला.
योजनाबद्ध विकास की जगह ‘व्यक्ति और समूह की स्वतंत्रता’ के नाम पर विकास नीति की कुंजी कारपोरेट परस्त वैचारिक शक्तियों के हाथों में थमा दी गई.
हालांकि, 1990 के दशक में भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बावजूद योजना आयोग अपना काम करता रहा. नरसिंह राव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह तक ने इसकी प्रासंगिकता बनाए रखी.
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत में कारपोरेटवाद के नए और आक्रामक दौर की शुरुआत हुई. योजना आयोग के अस्तित्व को अप्रासंगिक ठहरा दिया गया और उसकी जगह ‘नीति आयोग’ का गठन किया गया, जो बाजार की शक्तियों पर सरकार के न्यूनतम प्रभुत्व का हामी है.
जब ‘रीगनोमिक्स’ को अमेरिका में ही और ‘थैचरवाद’ को ब्रिटेन में ही वैचारिक ही नहीं, व्यावहारिक चुनौतियों का सामना है तो भारत में नरेंद्र मोदी देश के आर्थिक विकास के सूत्र उन्हीं संदिग्ध नीतियों में तलाश रहे हैं जो मानवीयता से सामंजस्य स्थापित करने में असफल रहे हैं.
आप बाजार को सब कुछ सौंपने के रास्ते पर चलेंगे, उसे हद से ज्यादा ताकतवर बनाते जाएंगे तो आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि किसी संकट काल में वह मानवता के उद्धारक की भूमिका में आएगा. बाजार मुनाफाखोरी के अपने मूल उद्देश्य का त्याग कर ही नहीं सकता और उसका ताकतवर होना राजनीतिक सत्ता को अपनी ही जनता के हितों की रक्षा में अक्षम बनाता है.
यही कारण है कि जब कोविड-19 के त्रासदी काल को प्राइवेट अस्पतालों ने मुनाफाखोरी और लूट के अनुपम अवसर के रूप में लिया तो देश के ‘मजबूत नेता’ की बोलती बंद है और अमिताभ कांत जैसे लोग परिदृश्य से ओझल हैं.
इस दौरान अमिताभ कांत को हमने सिर्फ तब देखा जब ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में अपने एक लेख में उन्होंने कोरोना संकट को ‘बोल्ड’ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढाने के एक ‘अवसर’ के रूप में परिभाषित किया और कुछ राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानूनों को सस्पेंड किये जाने को ‘बोल्डेस्ट एंड ब्रेवेस्ट’ कदमों की संज्ञा दी. हालांकि, उस लेख में चिकित्सा तंत्र को लेकर उन्होंने कोई बात नहीं की, जो महामारी के इस त्रासद काल में सर्वाधिक प्रासंगिक मुद्दा है. उन्हें बताना चाहिये था कि यह संकट चिकित्सा तंत्र में किस तरह के सुधारों की मांग करता है.
यह अवसर है कि नीति आयोग को सामने आना चाहिये और कोविड-19 संकट के मद्देनजर देश की चिकित्सा नीति पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना चाहिये. अमिताभ कांत जैसे लोगों की वैचारिक असलियत सामने आनी चाहिये कि सरकारी चिकित्सा संस्थानों की कीमत पर प्राइवेट संस्थानों के विकास का उनका तर्क इस संकट काल में कितना प्रासंगिक है ?
आखिर, नीति आयोग 135 करोड़ जनता के जीवन को बनाने-बिगाड़ने की भूमिका में है. उसे ऐसी छूट क्यों मिलनी चाहिये कि कारपोरेटपरस्त लोगों का गिरोह उस पर काबिज़ रहे और जब सवाल सघन होने लगें तो यह गिरोह नेपथ्य में कहीं छुपा रहे.
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