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अमित शाह जी, इससे अच्छा तो आप इमरजेंसी ही लगा दो

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अमित शाह जी, इससे अच्छा तो आप इमरजेंसी ही लगा दो

अमित शाह की खुली गुंडागर्दी

अमित शाह जी, इससे अच्छा तो आप इमरजेंसी ही लगा दोराजेन्द्र शर्मा

पिछले ही दिनों, कश्मीर के सभी प्रमुख सियासी नेताओं की गिरफ्तारी के पांच महीने पूरे होने पर, मोदी सरकार और सत्ताधारी भाजपा के महत्त्वपूर्ण प्रवक्ताओं से बार-बार सुनने को मिला था कि इमरजेंसी में तो नेताओं को उन्नीस महीने जेल में बंद रखा गया था. यह एक प्रकार से इसका इशारा था कि इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के दमन को मोदी – शाह की सरकार वह मानक मानकर चल रही है, जहां तक जाने में उसे हिचक नहीं होगी लेकिन सीएए के विरोध को दबाने के लिए मुख्यतः भाजपा – शासित प्रदेशों और उसमें भी खास तौर पर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पिछले लगभग तीन हफ्तों में जो कुछ हुआ है, उससे लगता है कि मौजूदा शासकों ने इमरजेंसी को भी पीछे छोड़ दिया है. सिलसिले की शुरुआत जामिया और अलीगढ़ विवि से हुई थी और जेएनयू पर 5 जनवरी को दोपहर बाद से देर शाम तक चले धावे के बाद तो बेहिचक कहा जा सकता है कि इमरजेंसी इस राज से बेहतर थी.

इन पंक्तियों का लेखक, जिसने जेएनयू में ही इमरजेंसी न सिर्फ देखी थी बल्कि उसके प्रतिरोध में एक कार्यकर्ता की हैसियत से सक्रिय रूप से हिस्सा भी लिया था, पूरी बौद्धिक जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता है कि इमरजेंसी मौजदा निजाम से बेहतर थी. यह कहने के तीन बड़े आधार हैं –

पहला तो यही कि 2020 की जनवरी की शुरुआत में जेएनयू समुदाय, जिसमें छात्र , शिक्षक तथा कुछ सुरक्षा – कर्मचारी भी शामिल हैं, पर जैसा भयानक कातिलाना हमला हुआ है, उसके सामने 1975 के जून से 1977 के आरंभ के बीच की पुलिस – प्रशासन की सारी कार्रवाइयां, हल्की सी चपक से ज्यादा नहीं लगती. यह तब था जब जेएनयू समुदाय और खास तौर पर छात्र आंदोलन इंदिरा गांधी के निजाम की आंख की वैसी ही किरकिरी था, जैसा आज के मोदी – शाह निजाम के लिए हो सकता है. बेशक, इमरजेंसी में जेएनयू में भी गिरफ्तारियां हुई थीं और एक विश्वविद्यालय के लिहाज से शायद दूसरे विश्वविद्यालयों से ज्यादा ही हुई थीं. इमरजेंसी के लगभग शुरुआती दौर में पुलिस ने एक रात को छात्रावासों को घेरकर कमरे – कमरे जाकर छात्र नेताओं की तलाशी भी ली थी और अपनी सूची के हिसाब से कई गिरफ्तारियां भी की थी. इमरजेंसी के दौरान ही छात्रों की तीन दिन की हड़ताल के दौरान संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी को कक्षा में जाने से छात्रों द्वारा रोके जाने के बाद बड़ी संख्या में परिसर में सादी वर्दी में घुसी पुलिस की मदद से पुलिस अधिकारियों द्वारा एक छात्र का दिनदहाड़े एक तरह से अपहरण ही कर लिए जाने जैसी अकल्पनीय घटना भी हुई थी और उस छात्र को इमरजेंसी की शेष पूरी अवधि मीसा में बंद रहना पड़ा था.

बेशक, जेएनयू के छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष देवी प्रसाद त्रिपाठी ( जिनका हाल में निधन हो गया ) को भी गिरफ्तार किया गया था और डीआईआर में महीनों जेल में रखा गया था. लेकिन जैसा बाद में खुद त्रिपाठी, जो अपनी कमजोर कार्यों में ओजपूर्ण वाणी के लिए विख्यात थे, ने बताया था कि गिरफ्तारी के बाद जब उन्होंने अपने पकड़ने वालों से पूछा था कि क्या उन्हें ‘ थर्ड डिग्री ‘ की यातना के लिए तैयार रहना चाहिए.’ दूसरी ओर से हंसी के साथ जवाब मिला था कि ‘हम अपने सिर हत्या का पाप क्यों लेना चाहेंगे ?’ जरा इसकी तुलना 5 जनवरी, 2020 को जेएनयू परिसर में शासन – विश्वविद्यालय प्रशासन – संघ परिवार की तिकड़ी ने जो किया और कराया, से कर के देख लें. सौ से ज्यादा, कुछ अनुमानों के अनुसार डेढ़ सौ तक. नकाबपोश हमलावरों के हथियारबंद गिराहों ने शुरू से पुलिस की मौजूदगी में बल्कि वास्तव में उसकी मदद से जो घातक हिंसा की, जिसकी तस्वीरें टेलीविजन चैनलों से लेकर, सोशल मीडिया तक में छायी हुई हैं, उसमें न सिर्फ प्रोफेसरों समेत दो – दर्जन से ज्यादा छात्र बुरी तरह से घायल हुए हैं, बल्कि छात्र संघ की अध्यक्षा, आइसी को छांट कर लोहे की रॉड से प्राणघातक हमले का निशाना बनाया गया. उनके सिर पर सोलह टांके आए हैं. डॉक्टरों के अनुसार, सरिए की चोट में जरा-सा और जोर होता तो उनका सिर फट गया होता और कुछ भी हो सकता था. इमरजेंसी में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष त्रिपाठी को पकड़ने वालों को इसका ख्याल था कि उन्हें सरक्षित रखना है. मोदी – शाह निजाम में त्रिपाठी जैसी ही कद – काठी की आइसी को निशाना बनाने वालों की कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाना है.

इसी से हम इसके दूसरे कारण पर आ जाते हैं कि मौजूदा हालात कैसे इमरजेंसी से बदतर हैं. इमरजेंसी में भी संजय गांधी और उनकी यूथ ब्रिगेड थी. यूथ कांग्रेस की गुंडागर्दी के तब काफी चर्चे थे. एनएसयूआई की तब जेएनयू के छात्रों के बीच उतनी भी हैसियत नहीं थी, जितनी आज एबीवीपी की है. फिर भी, कम से कम जेएनयू पर इमरजेंसी के हिस्से के तौर पर हए किसी भी हमले में न वैसी नकाबपोश पलटन थी, जैसी पलटन को 5 जनवरी, 2020 को परिसर में उतारा गया, न पुलिस तथा विश्वविद्यालय प्रशासन की वैसी भूमिका थी, जिन्होंने हथियारों से लैस सौ से ज्यादा बाहरी लोगों को परिसर में घुसाया, और न ‘गोली मारो सालों को’ के नारे लगाती वैसी कोई कानूनी हमलावर भीड़ थी, जैसी भीड़ ने पुलिस के साथ परिसर का मुख्य गेट घेर रखा था, ताकि भीतर उनके नकाबपोश साथी आराम से अपना ‘काम’ कर सकें और उन्होंने सचमुच आराम से ही अपना काम किया. तीन – चार घंटे तक और फिर उतने ही आराम से निकल भी गए. उनको समर्थक भीड ने घायलों की मदद के लिए पहुंची एंबुलेंसों को भी हमले का निशाना बनाया.

इमरजेंसी में प्रशासन के दमनकारी बाजू यानी पुलिस का इस्तेमाल था, तो आज उसके साथ संगठित भीड़ की हिंसा का हथियार और जोड़ दिया गया है. इस हिंसा का यही फासीवादी चरित्र है, जो मौजूदा हालात को इमरजेंसी से गुणात्मक रूप से बदतर बनाता है.

तीसरा और आखिरी अंतर. वैसे तो जेएनयू, मोदी राज के कायम होने के बाद से ही भीषण, वैचारिक या कानूनी ही नहीं, नहीं बल्कि भगवा भीड़ – हमलों के भी निशाने पर रहा है, लेकिन हमलों के मौजूदा चक्र की शुरुआत, होस्टल फीस में मनमाने तरीके से बढ़ोतरी के खिलाफ, छात्रों के सफल आंदोलन को तोड़ने की, सत्ताधारी संघ परिवार के छात्र संगठन और विश्वविद्यालय प्रशासन व सरकार की कोशिशों से हुई है. यह दमन सिर्फ राजनीतिक विरोध की आवाज को नहीं , बल्कि आम आदमी के हित की हरेक आवाज को कुचलने के लिए है. अमित शाह जी, इससे अच्छा तो आप इमरजेंसी ही लगा दो.

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