जिस समय देश भयानक आर्थिक भंवर में डूबता जा रहा है और पूरे देश में बलात्कार की एक कुत्सित संस्कृति स्थापित होती जा रही है, ठीक उसी समय नागरिकों की नागरिकता पर ही विवाद उत्पन्न करने वाला कानून लाने की क्या जरूरत आ पड़ी ? और, जिस समय पूरा देश इस कानून आने के बाद लगी आग में जल रहा है, ठीक उसी के बीच गृहमंत्री के द्वारा चार महीने में अयोध्या में मंदिर बना देने की घोषणा का क्या तुक है ?
कायदे से होना तो यह चाहिए था कि सरकार का पूरा ध्यान अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने पर होता और समाज में महिलाओं का विश्वास जीतने की कोशिश होती. लेकिन ऐसा नहीं करके इस कानून को लाकर एक विवाद उत्पन्न करने की जानबूझकर कोशिश की गई है.
किसी भी देश की सुव्यवस्था और उन्नति के लिए सुदृढ अर्थव्यवस्था की केंद्रीय भूमिका होती है इसीलिए कोई भी सरकार अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए जितनी ऊर्जा लगाती है, उतनी अन्य क्षेत्रों में नहीं. यह जब मजबूत हो जाती है तो अन्य क्षेत्रों में भी सहजता से उन्नति होती है या उन्नति की जा सकती है लेकिन वर्तमान सरकार ने अपने मूर्खतापूर्ण बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते हुए नोटबन्दी और जीएसटी लागू करके तथा चहेते उद्योगपतियों के बीच देश की जमापूंंजी को खैरात की तरह वितरित करके अब देश को कंगाली के कुंंए में डूबा दिया है.
इसी कंगाली के कारण बैंकों को विलयित किया गया, क्योंकि अब वे बैंक अलग-अलग चल पाने की स्थिति में नहीं रह गए थे. इसी कंगाली के कारण रिज़र्व बैंक की जमा-पूंंजी झटक ली गई और उसे भी पता नहीं कहांं खर्च कर दिया गया. इसी कारण से नवरत्न सार्वजानिक उपक्रमों को लगभग बेचकर धन जुटाने का उपक्रम करती रही लेकिन तमाम चीजों को बेचने और लूटने के बाद भी सरकार अर्थव्यवस्था की गिरावट रोकने में असमर्थ रही. और, अब अर्थव्यवस्था गिरते-गिरते 4 प्रतिशत के आसपास पहुंंच गई. उसमें असंगठित क्षेत्र की जीडीपी को भी जोड़ दें तो यह आंंकड़ा लगभग, सरकार के ही गणित के हिसाब से, 2 प्रतिशत के आसपास होती है. अर्थशास्त्री तो इसे शून्य से 1 प्रतिशत के बीच बताते हैं. अर्थात अर्थव्यवस्था पूरी तरह औंधे मुंंह गिर पड़ी है और इसे फिर से पटरी पर लाने की न तो प्रतिबद्धता इस सरकार में है और न ही क्षमता है.
संसार और देश में आंदोलनों और क्रांतियों के इतिहास को उठाकर देखें कि वे किस पृष्ठभूमि में प्रकट हुईं. फ्रांस की क्रांति के पहले वहांं की आर्थिक स्थिति, एक द्वीप में बेइंतहा इन्वेस्टमेंट के बाद, आज के भारत की तरह ही, बैठ गई थी. सोवियत संघ में भी क्रांति के पूर्व यही स्थिति थी कि बेरोजगार भूखे-नंगे लोग सड़कों पर कुहराम मचाने लगे. अपने यहांं भी 1974 के आंदोलन के पूर्व देश की आर्थिक स्थिति बैठ गई थी.
राज्य जब स्थिति को बेहतर नहीं बना पाती है तो अवाम असंतुष्ट होता है. ऐसे में कुछ दिनों तक राज्य कुछ-न-कुछ फरेब रचकर अवाम को व्यस्त रखता है. यह तरकीब कुछ दिनों तक कामयाबी दिलाती है मगर अंततोगत्वा जनता की भूख और बेचारगी सर पर चढ़कर बोलने लगती है. हर बार यह जरूरी नहीं होता कि मूल आर्थिक कारणों से ही आंदोलन फूट पड़े. वह किसी अन्य तात्कालिक कारणों से भी फूटता है लेकिन उसके मूल कारण के रूप में आर्थिक बदहाली ही रहती है.
आज यह देश फिर से एक आंदोलन के दरवाजे पर खड़ा हो गया है. इसके मूल में भी आर्थिक बदहाली मूल कारण है. इसी मूल बीमारी को दूर करने में असमर्थ सरकार कभी तीन तलाक, कभी 370, कभी NRC और CAA, कभी मंदिर, कभी पाकिस्तान और आतंकवाद के मुद्दे परोसती रही है. अभी तक ऐसा होता भी रहा है कि लोग सत्ता के ही परोसे गए मुद्दे पर उलझते भी रहे हैं.
इस NRC/CAA का मुद्दा भी अन्य पुराने परोसे गए मुद्दों की तरह सत्ता के द्वारा ही परोसा गया है और पहले की तरह ही लोग इसमें भी उलझे हैं लेकिन एक अंतर है पुराने से इस नए विवाद में. पुराने मुद्दे सत्ता के नियंत्रण में रहते आये थे, लेकिन पहली बार यह मुद्दा सत्ता के नियंत्रण से निकलकर जनता की मुट्ठी में चला गया है इसलिए सत्ता यदि इसे बहशियाने ढंग से निपटने का प्रयास करेगी, जैसा कि उत्तरप्रदेश और कुछ अन्य जगहों में किया जा रहा है, तो आग और भड़केगी ही.
इसलिए आज के आंदोलन की जड़ें आर्थिक कारणों की मिट्टी में दबी हैं लेकिन बीमारी के उन मूल कारणों को दूर करने की कोई चेष्टा नहीं है. जब तक उस मूल कारण को दूर नहीं किया जाएगा, तब तक किसी-न-किसी कारण से आंदोलन होता रहेगा. पुलिस और कोर्ट का भय दिखाकर उसे अधिक देर तक नहीं रोका जा सकेगा.
आज का यह आंदोलन भले ही नियंत्रित कर लिया जाय, लेकिन जब तक आर्थिक स्थिति संभाल नहीं ली जाती, तब तक जनता को नहीं संभाला जा सकेगा. पुलिस और कोर्ट से नेता को नियंत्रित किया जा सकता है, हिंदुस्तान को नहीं और मीडिया के द्वारा पाकिस्तान-मुसलमान- आतंकवाद की लोरी सुनवाकर थोड़ी देर के लिए बहलाया जा सकता है, भूख नहीं मिटाई जा सकती है.
लोग डर से निकलकर जीत की ओर बढ़ रहे हैं यह परिचायक है कि हिंदुस्तान जिंदा है.
- अनिल कुमार राय
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