देशद्रोह और राजद्रोह का फ़र्क समझना ज़रूरी है. गुर्जर आरक्षण आन्दोलन में भाग लेने वालों के विरुद्ध धारा 124-A के अन्तर्गत चार प्राथमिकी (F.I.R.) दर्ज हुई थीं. FIR-191/24/5/2015 क्या इसे एक लोकतान्त्रिक देश में न्याय कहा जा सकता है ? इसी तरह गुजरात पाटीदार आरक्षण आन्दोलन के नेता हार्दिक पटेल सहित नौ आन्दोलनकारी नेताओं के विरुद्ध इन्हीं धाराओं में मुक़दमे दर्ज हुए. कांग्रेस पार्टी ने इस प्रकार के ग़लत क़ानून की समीक्षा करने व समाप्त करने का वायदा घोषणा-पत्र में कर दिया तो इस पर साम्प्रदायिक मानसिकता के झूठ के प्रचारकों का इतना बवाल क्यों ? ग़ौरतलब है कि भाजपा शासन काल में ही इस क़ानून का दुरूप्रयोग हुआ था.
क्या है धारा 124-A ?
आई.पी.सी. की धारा 124-A कहती है कि अगर कोई भी व्यक्ति भारत सरकार के विरोध में सार्वजनिक रूप से ऐसी किसी गतिविधि को अंजाम देता है, जिससे देश के सामने सुरक्षा का संकट पैदा हो सकता है, तो उसे आजीवन कारावास तक की दण्ड दिया जा सकता है. इन गतिविधियों का समर्थन करने या प्रचार-प्रसार करने पर भी किसी को राजद्रोह का आरोपी मान लिया जाएगा. इन गतिविधियों में लेख लिखना, पोस्टर बनाना और कार्टून बनाना जैसे वे रचनात्मक कार्य सम्मिलित हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल आधार हैं. लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि इन गतिविधियों से पैदा होने वाले ख़तरे को कैसे मापा जाएगा, इसको लेकर धारा 124-A स्पष्ट तौर पर कुछ भी नहीं बताती. इसकी परिभाषा के इस क़दर अस्पष्ट होने के कारण यह धारा संविधान की उस भावना के ख़िलाफ़ भी खड़ी नज़र आती है, जिसके अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को अपनी असहमति जताने का अधिकार प्राप्त है.
इसके बावजूद यह धारा आज भी आई.पी.सी. की मोटी किताब में उसी अकड़ के साथ मौजूद है जो इसमें 135 साल पहले तब थी जब अंग्रेज़ी शासन के प्रतिनिधियों ने इसे आई.पी.सी. में शामिल किया था. हालांकि 1962 में आया सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला धारा 124-A के दायरे को लेकर कई बातें स्पष्ट कर चुका है, लेकिन तब भी इस धारा को लेकर अंग्रेज़ों वाली रीत का ही पालन किया जा रहा है. माना जाता है कि तब आई.पी.सी. में राजद्रोह की सज़ा को शामिल करने का उद्देश्य ही सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वालों को सबक़ सिखाना था. 1870 में अस्तित्व में आयी यह धारा सबसे पहले तब चर्चा का विषय बनी जब 1908 में बाल गंगाधर तिलक को अपने एक लेख के लिए इस धारा के अन्तर्गत छह वर्षों के कारावास का दण्ड सुनाया गया. तिलक ने अपने समाचार पत्र ‘केसरी’ में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था- ‘देश का दुर्भाग्य’.
1922 में अंग्रेज़ सरकार ने गांधी जी को भी धारा 124-A के अन्तर्गत राजद्रोह का आरोपी बनाया था. उनका अपराध यह था कि उन्होंने अंग्रेज़ी राज के विरोध में एक अख़बार में तीन लेख लिखे थे. तब गांधी जी ने भी इस धारा की आलोचना करते हुए इसे भारतीयों का दमन करने के लिए बनायी गयी धारा कहा था. आज़ादी के बाद पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी कहा था कि अगर उनकी चले तो वह इस धारा को ख़त्म कर दें.
इस धारा को समाप्त करना क्यों ज़रूरी है ?
धारा 124-A का विरोध करने वाले लोग मानते हैं कि ऐसी कई वजहें हैं जिनके चलते इस धारा को ख़त्म कर देना चाहिए. सबसे बड़ी वजह तो यही है कि यह धारा संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए अभिव्यक्ति के अधिकार का दमन करती है. जानकारों का तर्क है कि जब संविधान की धारा 19 (1) A में पहले से ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीमित प्रतिबन्ध लगे हुए हैं तब 124-A की ज़रूरत ही नहीं होनी चाहिए. इसके अलावा धार्मिक उन्माद फैलाने, सामाजिक द्वेष पैदा करने, शांति व्यवस्था बिगाड़ने और किसी की प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुंचाने जैसे ग़लत कामों के लिए आई.पी.सी. में पहले से ही अलग-अलग धाराओं में सज़ा निश्चित की गयी है. माना जाता है कि इसके बावजूद धारा 124-A को सिर्फ़ इसलिए बरक़रार रखा गया है ताकि इसकी आड़ में उन लोगों पर नकेल लगाई जा सके जो सरकार के ख़िलाफ़ अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं.
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी का मामला इसका सटीक उदाहरण माना जा सकता है. संसद भवन का कार्टून बनाने के चलते महाराष्ट्र की सरकार ने उन्हें 2012 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया था. तब सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज और प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने भी उनकी गिरफ़्तारी को ग़लत बताया था। उनका कहना था कि असीम त्रिवेदी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी ही थी तो वह ‘इंसल्टिंग ऑफ़ नेशनल ऑनर एक्ट’ के तहत की जा सकती थी. इस एक्ट के तहत देश के सम्मान सूचक चिन्हों को अपमानित करने सम्बन्धी गतिविधि के लिए सज़ा दिए जाने का प्रावधान है. चौतरफा आलोचना झेलने के बाद दबाव में आयी सरकार ने बाद में ऐसा किया भी.
जे.एन.यू. प्रकरण में कन्हैया कुमार पर मुक़दमा दर्ज किया गया राजद्रोह के तहत, मगर दलाल मीडिया और झूठ के नागपुरिया प्रचारकों और गोबर भक्तों द्वारा प्रचारित किया गया देशद्रोही ! इस धारा का विरोध करने वाले लोग एक और तर्क देते हैं. कहा जाता है कि किसी भी लोकतंत्र में नागरिकों को मिलने वाला सबसे बड़ा अधिकार ही असहमति का अधिकार होता है. यानी अगर किसी को लगता है कि उसके देश की व्यवस्था में कुछ ख़ामियां हैं तो वह उनका विरोध कर सकता है. लेकिन इस विरोध को देशभक्ति की कसौटी पर तौलते हुए लोगों पर राजद्रोह का आरोप मढ़ने के मामले देखे जाते रहे हैं.
समाजशास्त्री आशीष नंदी का ही उदाहरण ले लीजिए. गुजरात में मुस्लिम नरसंहार पर गुजरात सरकार की आलोचना करते एक लेख के लिए तत्कालीन राज्य सरकार ने 2008 में नंदी के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मामला दर्ज किया था. इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने इस पर सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए उसके इस फैसले को हास्यास्पद बताया था.
छत्तीसगढ़ में सामाजिक कार्यकर्ता बिनायक सेन और उत्तर प्रदेश में पत्रकार सीमा आज़ाद के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ. 2012 में हरियाणा के हिसार में कुछ दलितों पर भी राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया था. उनका दोष यह था कि वे दबंगों के ज़ुल्म की शिकायत करते हुए डी.एम. दफ़्तर के बाहर धरने पर बैठे थे. 22 दिन के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हुई तो उन्होंने मुख्यमंत्री का पुतला जलाया था. इसके बाद उन पर 124-A लगा दी गयी. सवाल यह भी है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाले देश में ‘राजद्रोह’ जैसे शब्द को जगह क्यों मिलनी चाहिए ? इस तर्क में इसलिए भी दम है कि इस धारा को बनाने वाले देश इंग्लैण्ड में भी इसे ख़त्म किया जा चुका है.
धारा 124-A को लेकर अब तक क्या कुछ हुआ है ?
धारा 124-A के अस्पष्ट प्रावधानों को दूर करने की मांग बहुत लम्बे समय से की जाती रही है. इसको लेकर साठ के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने भी एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था. यह फ़ैसला 1992 में ‘केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार’ नामक बहुचर्चित मामले में दिया गया था. शीर्ष अदालत ने इस मामले की सुनवाई करते हुए आई.पी.सी. की धारा 124-A की जांच की थी. ऐसा करते हुए उसने इस धारा को संविधान सम्मत तो बताया था, लेकिन इसका दायरा सीमित कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि किसी भी व्यक्ति को राजद्रोही तभी माना जा सकता है जब उसके काम से व्यापक हिंसा भड़क उठी हो. यानी जब तक सुरक्षा का संकट साबित नहीं हो जाता तब तक किसी भी काम को राजद्रोह की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए. 2011 में भी एक फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि बाक़ी सभी धाराओ की तरह धारा 124-A को भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ अनुकूलता में देखा जाना चाहिए.
इस तरह देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट की वह टिप्पणी धारा 124-A में एक तरह का संशोधन ही थी. इसके बावजूद राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किए गए अधिकतर लोगों के मामलों में इस टिप्पणी का कहीं से भी पालन होता नहीं दिखता. ऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं कि एक बार फिर से इस धारा के दायरे को लेकर एक साफ़ लकीर खींची जाए ?
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