सुब्रतो चटर्जी
लॉकडाउन के पहले हफ़्ते में इस लेख की पहली कड़ी मैंने लिखा था. बंद हुए शहर गांंव, उजड़ते लोग, करोड़ों की संख्या में मज़दूरों का रिवर्स मार्च और इन सबके बीच सदी के सबसे बड़े नरपिशाच की चुप्पी और अकर्मण्यता का दौर था वह.
अब जबकि पिछली तिमाही की जीडीपी की रिपोर्ट आ गई है, और आंंकड़ों की लाख बाज़ीगरी के वावजूद, यह माइनस 24% है, तब भी प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और सरकार एक शर्मनाक चुप्पी की आड़ में अपना निर्लज्ज चेहरा छुपा बैठे हैं.
कृषि को छोड़ हर क्षेत्र में ऋणात्मक गिरावट इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि भारत को एक कृषि प्रधान देश क्यों कहा जाता है. मौसम, सरकारी उपेक्षा, ग़रीबी और अशिक्षा का मार सहते हुए भी, आज भी हमारे देश का किसान हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बना हुआ है. ऐसे में सहज कल्पना की जा सकती है कि अगर इस देश में भूमि सुधार, सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण जैसी मूलभूत बातों पर अगर ध्यान दिया गया होता, तो आज देश की तस्वीर कुछ अलग होती.
पहले दौर में मैंने लिखा था कि लॉकडाउन के बाद विनिर्माण और छोटे उद्योग से जुड़े करोड़ों मज़दूरों का भविष्य अनिश्चित लग रहा है. एक तरफ़ रेरा से बचने के लिए जहांं गृह निर्माण से जुड़े मज़दूरों की मोल तोल की शक्ति बढ़ेगी, दूसरी तरफ़, उद्योग से जुड़े मज़दूर और स्वनिर्भर लोगों की हालत असहनीय रूप से ख़राब होगी.
यह सच साबित हुआ है. कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू के दक्षिण भारतीय राज्यों में, जहांं उन्नत शहरी सभ्यताएंं लॉकडाउन से अपेक्षाकृत कम प्रभावित आईटी सेक्टर पर निर्भर हैं, वहांं गृह निर्माण की गतिविधियों को राज्य सरकारों ने जारी रखने का फ़ैसला लिया. बैंगलोर मेट्रो जैसी परियोजनाओं पर समय सीमा के अंदर पूरा करने का भी दवाब था. नतीजतन, इन क्षेत्रों से जुड़े बिहार, झारखंड, बंगाल और उत्तर प्रदेश के मज़दूरों को न सिर्फ बेहतर मज़दूरी और सुविधाओं के साथ वापिस बुलाने की होड़ दिखी, वरन उनके परिवार को अंतरिम सहायता के रूप में पचास हज़ार से एक लाख रुपए तक उनके मालिकों द्वारा दिया गया. यह मेरी आंंखों देखी है, इसलिए इसपर किसी बहस की गुंजाईश नहीं है.
अब दूसरी तरफ़ रुख़ करते हैं. कल गौतमबुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा की ख़बर है कि वहांं क़रीब आठ हज़ार मिलों में कार्यरत दस लाख मज़दूर बेकार हो गए हैं. इसी तरह, देश के हरेक कोने में छोटे उद्योगों में लगे करोड़ों मज़दूर सड़क पर आ गए हैं, और उनके मालिक भी कंगाल हो गए हैं.
बंबई जैसे महानगर से क़रीब बीस से पच्चीस लाख लोगों का पलायन हुआ है, जिसमें नौकर, दाई से लेकर ऑटो टैक्सी चालक और बंद पड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से ले कर फ़िल्म जगत से जुड़े लोग भी हैं.
छोटे शहरों, क़स्बों और गांंव में भी खनन से लेकर हजाम के काम में लगे हर क्षेत्र के कामगार बेकार हो गए हैं, इनमें अगर रेहड़ीवालों, सब्ज़ी विक्रेताओं, छोटे दुकानदारों और उनमें काम करने वालों की संख्या जोड़ दी जाए, तो यह संख्या क़रीब चालीस करोड़ तक होती है. अप्रत्यक्ष रूप से देश की तीन चौथाई जनता के सामने भयंकर बेरोज़गारी और भुखमरी की समस्या विकट रूप से है.
इन हालातों से उभरने का कोई रास्ता सरकार के पास नहीं दिखता. हकीकत ये है कि मोदी सरकार ने योजनाबद्ध तरीक़े से देश को इस स्थिति में पहुंंचाया है, जिसकी शुरुआत नोटबंदी से हुई थी. नोटबंदी ग़रीबों और निम्न मध्यम वर्ग को ख़त्म करने की पूंंजीवादी साज़िश थी, जिसका मुखिया वड़नगर का क्रिमिनल था. ये साज़िश पूरी तरह से कामयाब नहीं हुई क्योंकि भारत की मेहनतकश जनता फिर से उठ खड़ी हुई.
फलतः, क्रिमिनल लोगों के गिरोह ने ग़लत जीएसटी को दूसरी आज़ादी का नाम दे कर, नब्बे प्रतिशत रोज़गार पैदा करने वाले असंगठित क्षेत्र को तबाह करने की कोशिश की, लेकिन 85% नक़दी पर निर्भर बाज़ार पर इसका उतना असर नहीं हुआ, जितना अपेक्षित था. तीसरे चरण में, एक काल्पनिक महामारी की आड़ में इसी क्रिमिनल लोगों के गिरोह ने संपूर्ण लॉकडाउन लगा कर सारी आर्थिक गतिविधियों को रोकने का फ़ैसला लिया. यह ऊंंट की कूबड़ में आख़िरी पुआल था, जो की कफ़न में आख़िरी कील साबित हुई.
किसी भी देश की पहचान उसके आर्थिक मॉडल से होती है आज के समय. सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई मुद्दे द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आती हैं. मोदी सरकार ने भारत को ग़ुलामों का एक विशाल बाज़ार बनाने की क्रिमिनल कोशिश पहले दिन से ही की है, जो अब सफल होता दिख रहा है. एक तरफ़ शिक्षित बेरोज़गारों की करोड़ों की भीड़, दूसरी तरफ़ रोज़गार खो चुके करोड़ों की भीड़, तीसरी तरफ़ रोज़गार खोने के डर में जीते सरकारी और ग़ैर-सरकारी कर्मचारियों की करोड़ों की भीड़, बिना पेंशन के जीवन के आख़िरी दिनों की ज़िल्लत झेलते करोड़ों की भीड़.
सवाल ये है कि अब यहांं से कहांं जाएंं हम ? क्या दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक होने का दंभ भरने वाला हमारा देश मुठ्ठी भर क्रिमिनल लोगों की साज़िश का शिकार बन कर चुप चाप मुंंह पर पट्टी बांंधे बैठा रहेगा ? या, इस नाकारा सरकार के तथाकथित आर्थिक सलाहकार की बात मानकर अगली तिमाही के भरोसे बैठे और अधिक मरने का इंतज़ार करेगा ?
याद रखिए, हमारी वित्त मंत्री इसे एक्ट ऑफ़ गॉड कह कर जब ‘होईं वही जो राम रचि राखा’ की बात करती है, तब राम मंदिर का एक लक्ष्य तो पूरा होता है. सरकार के किसी भी नीतिगत फ़ैसले से यह कहीं नहीं दिखता कि वह देश को सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है. आर्थिक संसाधनों की खुली लूट, अंबानी-अदानी के हाथों बिका हुआ ज़मीर, अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में मज़ाक़ बना हुआ हमारा कंगाल देश किसी भी उपलब्धि पर गर्व करने लायक नहीं बचा. यह सब हमारे हिंदुत्व के नाम पर ताकतवर नेता ढूंढ़ने के चक्कर में एक क्रिमिनल लोगों के गिरोह को चुनने का नतीजा है.
सवाल ये है कि दलाल न्यायपालिका, बेईमान नौकरशाही, क्रिमिनल विधायका और गोदी (गिद्ध) मीडिया, लोकतंत्र के इन चार जर्जर खंभों पर कब तक भरोसा बना रखना उचित या संभव है ?
जहांं तक मेरा सवाल है, मुझे तो ज़मीन के सतह के नीचे गर्म लावे का हिंद महासागर उबलता दिख रहा है. इस बार पानी की तलाश में निकला ये नजूमी बहुत ख़ौफ़ज़दा है; जिस तरफ़ लाठी गिरती है, सिर्फ़ लावा ही लावा.
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