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आम जनता की तरफ से जनता के प्रतिनिधि को एक पत्र

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सेवा में,

श्रीमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
(भारत सरकार)
7 RCR रोड
नई दिल्ली
पिन कोड – पता नहीं

विषय – सरकारी उपक्रमों को निजीकरण की दिशा में किये जा रहे फैसलों के विरोध बाबत (आम जनता की राय).

महाशय !

चूंंकि आपके राग-दरबारी जनता की समस्यायें आप तक पहुंंचने नहीं देते और न ही जनता के द्वारा लिखे गये आलोचनात्मक-पत्र ही आप तक पहुंचाते हैं. अतः ये सार्वजनिक पत्र मीडिया के माध्यम से आप तक भेज रहा हूंं.

चूंंकि आपने एक बार कहा था कि आप गुजराती हैं और आपके खून में व्यापार है लेकिन मैं आपको बता दूं कि हम मारवाड़ी गुजरात में खाली हाथ जाकर भी आप जैसे खून वाले व्यापारियों से ही धन कमाकर वहां पर बस जाते हैं, अर्थात आपको ये तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि व्यापारिक समझ में मारवाड़ी, गुजरातियों से ज्यादा समझदार होते हैं. अतः हम आपको सूचित कर रहे हैं कि आपने जो सरकार-1 में गलत फैसले लिये उसका असर अब बाजार पर दिखायी पड़ने लगा है, लेकिन उन गलत फैसलों में सुधार करने के बजाय आप सरकार-2 में भी फिर से वही गलती दोहरा रहे हैं और भारत को दिवालिया होने की कगार पर पहुंचा रहे हैं.

व्यापार का एक जरूरी उसूल यह कि घर की रकम (आपके लिये सरकारी उपक्रम) जो व्यापार में लगाई जाती है, वो कभी नहीं निकाली जाती और न ही उसे वसूला जाता है बल्कि उस रकम के इन्वेस्ट से जो फायदा होता है, उसका एक बड़ा हिस्सा वापस उसी व्यापार में लगा दिया जाता है ताकि व्यापार में प्रगति हो, लेकिन आपने सरकार-2 में ये जो सरकारी उपक्रमों को बेचना शुरू कर दिया है, उसे व्यापारिक नियमावली में दिवालियेपन की तरफ बढ़ना कहा जाता है.

अगर कोई व्यापारी अपने शौक या मजबूरी के लिये भी व्यापार से रकम निकालता है तो ऐसा होने पर उस व्यापार का भट्टा बैठ जाता है और थोड़े ही समय में व्यापार ठप्प हो जाता है. अतः हम व्यापारिक समझ वाले मारवाड़ी आपसे बहुत ही शालीनता के साथ अनुरोध कर रहे हैं कि आप सरकारी उपक्रमों को बेचने के बजाय बचाने का प्रयास करें और सरकारी खर्च कम करने के लिये आप अपने और अपने राग-दरबारियों के शौक और सुविधाओं में कटौती करें, न कि आम जनता का भविष्य अन्धकार में डाले.

देश में सबसे ज्यादा महंगाई और बेरोजगारी आपके कार्यकाल के दौरान ही बढ़ी है. बेरोजगारी की बात अगर जाने भी दे तो मैं आपको इस पत्र के माध्यम से बताना चाहता हूंं कि रोजगार देने वाले व्यापारियों की हालत तो बेरोजगारों से भी खराब है क्योंकि अब ये बात किसी से छुपी नहीं है कि देश की अर्थ-व्यवस्था पूर्णतः कमजोर हो चुकी है (तभी तो आपको सरकारी उपक्रम बेचने की नौबत आ रही है) और इसका सीधा असर सबसे पहले व्यापारियों पर ही आता है व्यापारियों की हालत तो अब अपने घर के बर्तन भांडे बेचने तक की आ गयी है !

महानुभाव ! जैसे आप भारत की आम जनता की संपत्ति को बेचकर सरकार चलाने की कोशिश कर रहे हैं, क्या हम व्यापारी भी अब घर चलाने के लिये अपने शरीर के अंग बेचे ? आपने एक बार कहा था कि मोदी की किस्मत से जनता को फायदा हुआ लेकिन अब क्या इसे हम मोदी की बदकिस्मती मान ले ?

जिस-जिस आलू, प्याज, टमाटर, दाल, रसोई गैस, डीजल, पेट्रोल की बढ़ी कीमतों पर राजनीति करके और मुद्दे बनाकर 2014 में प्रधानमंत्री बने, आज उसी चीज़ोंं के दाम बेतहाशा बढ़ते ही जा रहे हैं (निजी तो निजी, सरकारी दामों में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है).

एक तो पहले से ही महंगाई कमर तोड़ रही थी, ऊपर से आपने जीएसटी का फंदा और गले में डाल दिया है. बेचारा व्यापारी महंगाई की वजह से भी थोड़ा झुकता है तो गले में पड़ा फंदा कसने लग जाता है अर्थात व्यापारी की हालत ये हो गयी है कि न तो उसे खाया जा रहा है, और न ही निकाला जा रहा है !

या तो आप साफ़-साफ़ कह दीजिये कि व्यापारी भी किसानों की तरह आत्महत्या करके मर जाये ताकि कोई टंटा ही न रहे या फिर आप ये कह दीजिये कि गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगोंं की कोई जगह अब भारत में नहीं है, और आप सब को देश-निकाला दिया जाता है. अतः निम्न और मध्यम वर्ग देश छोड़कर चले जाये (ऐसा कह भी देते हैं तो ये कोई नया कदम नहीं होगा. अंग्रेज अपने शासन के दौरान ऐसा कर चुके हैं और वैसे भी आप तो हमेशा से ही कॉपी-कैट ही हैं और दूसरे की ही नक़ल करते हैंं).

किसी देश की सरकार के लिये इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति और कोई नहीं होती कि उसे जनता अपने शासक/प्रशासक वर्ग को ये कहे, लेकिन हम आपको कह रहे हैंं कि आपकी नीतियांं हमारा सिर्फ शोषण और दोहन ही नहीं कर रही बल्कि हमेंं बर्बाद कर रही है. अंग्रेजोंं के समय 1847 में ऐसी ही सरकारी नीतियों के कारण भारत से एक बड़ा निम्न और मध्यम वर्ग का पलायन हुआ और फिजी जाकर बसा. उसी पलायन की वजह से ही आज फिजी की राष्ट्रभाषा तक हिंदी हो गयी है जबकि भारत में ये आज भी सिर्फ राजभाषा ही है. हालांंकि बाद में इसे जस्टिफॉय करने के लिये अंग्रेजों ने इसे गन्ने की खेती करने के लिये भारतीय उपनिवेश से मजदूरों को फिजी ले जाना लिखवा दिया लेकिन सत्य यह था कि फिजी भी ब्रिटिशर्स का ही उपनिवेश था और अंग्रेजों की वजह से उन भारतीयों को फिजी से भी फिर पलायन करना पड़ा और वे कहांं-कहांं किन-किन देशों में शरणार्थी बने, वो एक अलग विषय है. खैर, आप तो इस विषय में जानते ही होंगे न ? अगर न भी जानते होंगे तो आपके पास तो अपनी टीम है ही, जो ऐतिहासिक और अतीत के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर आपको बताने में माहिर है. उन्हीं से कहकर सारी जानकारी निकलवा लीजियेगा !

साहेब, आप कौन-सा अंग्रेजों के शासन काल (200 साल) जितना जीने वाले हो ? 70 के पेटे में तो पहुंंच ही चुके हो और ज्यादा से ज्यादा 10-15 साल और जी लोगे…?
चलो मान लिया कि आप काजू की रोटियां और मंहगे विदेशी मशरूम की सब्जी खाते हैं तो 30 साल और जी लोगे (हालांंकि काजू और मशरूम खाने से उम्र नहीं बढ़ती, फिर भी आपकी ख़ुशी के लिये ऐसा लिख दिया है), लेकिन 100 साल के होकर तो मरोगे ही न ? तो क्या आप चाहोगे कि आपके मरने के बाद भी लोग आपको बुरे शासक के रूप में याद रखे, जैसे हिटलर या तुगलक को याद रखती है अथवा क्या आप ये चाहोगे कि लोग आपको सावरकर और गोलवरकर की तरह याद रखे ?

आप खुद इतने चुनाव लड़ चुके हैं, मगर क्या आपको याद है कि आपने किसी चुनाव में हेडगेवार से लेकर वर्तमान में भागवत तक के नाम पर कभी वोट मांंगा हो ? या मांगने का सोचा भी हो ? मेरा विचार है आपने ऐसा नहीं किया होगा क्योंकि आप जानते ही हैं कि इनके नाम पर वोट नहीं मिलने वाले क्योंकि गांंधी और नेहरू की वैचारिक क्रांति का देश है और यहांं वोट गांंधी और नेहरू के नाम पर मिलते हैं क्योंकि वे इस देश के रियल हीरो थे (भले ही ये आप सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करे लेकिन इस सच से आप वाकिफ तो हैं ही). उनके नाम पर वोट इसीलिये मिलते हैं क्योंकि वे जनता के शासक थे और जनहित में काम किये थे. क्या आप नहीं चाहेंगे कि आपके मरने के बाद लोग आपको भी गांंधी और नेहरू की रियल हीरो के रूप में याद रखे ?

मैं आपके शासन में हुए घोटालों का जिक्र इस पत्र में नहीं करूंंगा हालांंकि आपकी संलिप्तता भी कई ऐसी बातों में वांछित तौर पर उजागर हो चुकी है, जिसमें आपने जनता के हित के बजाय अपने और अपने कॉरर्पोरेट दोस्तों के निजी हित में काम किये, मगर खुद को जनता का मसीहा साबित करने की कोशिश करते रहे. बहरहाल, ये जरूर कहूंगा कि आपकी सरकार ने तो गरीबोंं और मध्यमवर्गीय लोगोंं को कहीं का नहीं छोड़ा और हम नौजवानों की तो आपकी बेलगाम नीतियों ने दिल से वाट लगा रखी है. लेकिन फिर भी फ़ांंसी नहीं लगा सकते. इसकी वजह डर नहीं है. हमें फांसी से डर नहीं लगता साहब लेकिन सही बात तो ये है कि अब रस्सी खरीदने तक की औकात नहीं बची !

आपकी बेलगाम नीतियों से उत्पन्न हुई महंगाई और बेरोजगारी से लोग आपको दिन में दस बार हाय देते हैं. मगर मैं जानता हूंं कि अब इस उमर में गरीबों की हाय लग भी जाये तो आपका कुछ नहीं होना है और शर्म से तो आपका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है. फंसी तो बेचारी आम जनता है !

जिसने आपको वोट नहीं किया वो तो आपको कोस कर अपना गुब्बार निकाल लेते हैं लेकिन जिसने आपको वोट किया वो तो बेचारे अंदर-अंदर खून के आंसू पी रहे हैं क्योंकि वो तो हमारी तरह आपको कोस भी नहीं पाते !

थोड़ी बहुत भी नैतिकता अगर बची हो तो पत्र पढ़ने के बाद सुधारवादी कदम उठाकर जनहित में कार्य करने की कोशिश कीजिये और जनता को बेरोजगारी, मंदी, महंगाई से निजात दिलवाइये और सरकारी उपक्रमों को भी बचाइये क्योंकि ये भले ही सरकार की आय के साधन हैं मगर जनहित के साधन हैं, जो सरकार फायदे के लिये नहीं बल्कि जनता की सुविधाओं के लिये संचालित करती है !

भारत की आम जनता की तरफ से एक आम भारतीय नागरिक

पं. किशन गोलछा जैन

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ROHIT SHARMA

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