बर्नी सैंडर्स, राहुल गांधी, जेरेमी कोर्बिन
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
बीते महीनों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दो बड़े नाम, जो उन मुद्दों और उम्मीदों की बातें कर रहे थे, जिनकी बातें आजकल कोई नहीं करता, अपने-अपने देशों की राजनीति के हाशिये पर चले गए.
इनमें पहला नाम है ब्रिटेन के लेबर नेता जेरेमी कोर्बिन का, जिनके नेतृत्व में उनकी पार्टी संसदीय चुनावों में इतनी बुरी तरह पराजित हुई कि कहा जा रहा है कि 1935 के बाद ब्रिटिश लेबर पार्टी की यह सबसे बड़ी हार है.
दूसरा नाम है अमेरिका के डेमोक्रेटिक नेता बर्नी सैंडर्स का, जो आगामी राष्ट्रपति चुनावों में अपनी उम्मीदवारी हासिल नहीं कर सके और इस दौड़ में जो बिडेन से पीछे रह गए.
ऐसा नहीं है कि जेरेमी कोर्बिन या बर्नी सैंडर्स वैचारिक स्तरों पर किसी बड़े परिवर्त्तन की बातें कर रहे थे या व्यवस्था में बदलावों के लिये किसी सुविचारित क्रांति का आह्वान कर रहे थे. लेकिन, वे जो कह रहे थे उसे पूरी दुनिया में ध्यान से सुना जा रहा था.
बहुत सारे लोग उम्मीदें लगाए थे कि इन नेताओं का अपने-अपने देशों में सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना उन वैचारिक संघर्षों को नई ऊर्जा दे सकता है, जिनमें बाजार बनाम आम आदमी के सवालों को जगह मिलती है.
इस अंधेरे समय में, जब राजनीति ने आम लोगों के वास्तविक सवालों और उनके जीवन की चुनौतियों के बारे में सोचना बंद कर दिया है, कोर्बिन और सैंडर्स उम्मीदों की लौ की तरह थे. वे आम लोगों की शिक्षा, उनके स्वास्थ्य और उनकी सामाजिक सुरक्षा के सवालों को राजनीतिक विमर्शों के केंद्र में लाने का निरंतर प्रयास करते रहे थे.
बाजार बनाम आम आदमी के विमर्श में सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य का सवाल सबसे महत्वपूर्ण है. सोवियत पराभव के बाद यूरोप और अमेरिका में सत्ता-संरचना का बचा-खुचा डर और लिहाज भी खत्म हो गया और उन्होंने आम आदमी के सवालों को हाशिये पर डालने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.
अग्रणी देशों की राजनीति में उभरती इन प्रवृत्तियों का असर दुनिया के कई अन्य देशों पर भी पड़ा और प्रायः पूरी दुनिया के आम लोग इन अंधेरों के शिकार होने लगे.
बाजार की सर्वग्रासी लहरों पर सवार कारपोरेट शक्तियां पूरी व्यवस्था को अपनी मुट्ठियों में कैद करने लगीं, जिसका असर तब अधिक नजर आने लगा जब दुनिया ने नई शताब्दी में प्रवेश किया.
भारत जैसे जनसंख्या बहुल, निर्धन और समस्याग्रस्त देश में भी पूरी निर्लज्जता से स्वास्थ्य और शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की कवायदें नीतिगत स्तरों पर परवान चढ़ती रहीं.
आम आदमी निरस्त्र और निराश्रित होता गया, उसके अधिकार छिनते गए. ध्रुवीकरण की राजनीति और नेताओं के वैचारिक खोखलेपन ने जनता के सवालों को नेपथ्य में धकेल कर ऐसे सवालों और बहसों को जन्म दिया, जो आम लोगों के जीवन से जुड़े जरूरी सवालों को कहीं से एड्रेस नहीं करते थे.
नई सदी की राजनीति अपने वोटरों के जीवन की मूलभूत समस्याओं से ही कट गई और कारपोरेट की गोद में जा कर बैठ गई.
मांग के संकट से जूझते बाजार को पता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य, दो ऐसे पहलू हैं जिन्हें अगर व्यापार की मंडी में खींच लिया जाये तो इनमें मांग का संकट कभी उत्पन्न नहीं होगा. लोग पेट काट कर भी अपने बच्चों को पढ़ाएंगे ही, ऊंची फीस देंगे ही, निजी तंत्र के लटकों-झटकों को विवश भाव से झेलेंगे ही.
उसी तरह, बीमार पड़ने पर लोग जमा-पूंजी खर्च कर भी, यहां तक कि घर और जमीनें बेच कर भी इलाज करवाएंगे ही. तो, तमाम वैचारिक संघषों की हदों को पार करते हुए कारपोरेट हितैषी व्यवस्थाएं शिक्षा और स्वास्थ्य को निजी हाथों में सौंपती गई.
बर्नी सैंडर्स और कोर्बिन शिक्षा और स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च को बढ़ा कर इसे जन सुलभ व्यवस्था बनाने के हिमायती थे. वे बार-बार जोर देते थे कि सरकारों को सार्वजनिक सुविधाओं पर निवेश में वृद्धि करनी चाहिये क्योंकि, ‘सब कुछ बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता.’
इन दोनों की बातें अक्सर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जगह बनाती रहीं, क्योंकि ये ब्रिटेन और अमेरिका की राजनीति में सक्रिय थे. कुछ लोग उम्मीदें लगाए थे कि कोर्बिन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनेंगे और सैंडर्स अमेरिकी राष्ट्रपति बन सकते हैं.
अगर ऐसा हो पाता तो हम वैश्विक राजनीति और अर्थनीति पर इनके सकारात्मक प्रभावों की उम्मीदें कर सकते थे. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ.
कोर्बिन, जो ध्रुवीकरण की राजनीति के सतत विरोधी थे, अंततः इसी के शिकार हुए जब ब्रेक्जिट के मसले पर ब्रिटिश जनता ने बोरिस जॉनसन की कंजरवेटिव पार्टी को प्रचंड बहुमत से जिताया और कोर्बिन के नेतृत्व में लेबर पार्टी ने इतिहास की बड़ी हारों में एक का सामना किया.
ऐसा नहीं है कि जनता के बीच कोर्बिन लोकप्रिय नहीं थे. जनता उन्हें बहुत गंभीरता से सुनती थी, लेकिन, जैसा कि राजनीति में अक्सर होता है, ध्रुवीकरण जरूरी सवालों को नेपथ्य में धकेल देता है. खुद कोर्बिन ने भी इसे स्वीकार किया कि ब्रेक्जित पर जनता के ध्रुवीकरण ने जीवन के मूलभूत सवालों को पीछे कर दिया.
बर्नी सैंडर्स अमेरिका की राजनीति के ऐसे चेहरे थे जिन्हें कारपोरेट शक्तियों ने कभी पसंद नहीं किया. इन शक्तियों की अप्रत्यक्ष दखल राजनीति पर कितनी प्रभावी है, यह एक खुला सत्य है.
राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने के लिये डेमोक्रेटिक पार्टी के आंतरिक चुनाव में सैंडर्स जो बिडेन से पिछड़ गए, वे पिछली बार हिलेरी क्लिंटन से भी पीछे रह गए थे. लेकिन, तब उम्मीदें ज़िन्दा थीं. अब, वे राजनीति की मुख्य धारा से बाहर हैं.
इन दोनों के नेपथ्य में जाने के बाद ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो जनता के सवालों को राजनीति के केंद्र में लाने की बातें करता हो और जिसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान भी हो.
भारत में राहुल गांधी ने ऐसी राजनीति के सिरे को छूने की कोशिश जरूर की है. उनके वक्तव्य अक्सर ऐसे संकेत देते हैं लेकिन, कांग्रेस में कारपोरेट के एजेंटों की कोई कमी नहीं है. कुछ तो बेहद ताकतवर भी हैं जो राहुल के वैचारिक विमर्शों को पलीता लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे.
2019 के आम चुनाव के दौरान रवीश कुमार को दिए एक इंटरव्यू में राहुल गांधी ने कहा था, ‘सरकारी संस्थाओं को प्रतिमान बनना होगा और निजी संस्थाएं उनका अनुकरण करें, ऐसी व्यवस्था बननी चाहिये.’ यह कोई साधारण वक्तव्य नहीं था. खुद कांग्रेस के लिये भी यह वैचारिक झटका है जो इस देश में नवउदारवाद की राजनीति की सूत्रधार रही है.
जाहिर है, अगर इन स्पष्ट विचारों के साथ राहुल गांधी आगे बढ़ते रहे तो उनके सामने भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अवरोधों की कोई कमी नहीं रहेगी.
ऐसे दौर में, जब राजनीति में जनता के सवाल गौण हों और प्रायोजित विमर्शों का कोलाहल माहौल पर हावी हो, न बर्नी सैंडर्स बनना आसान है, न जेरेमी कोर्बिन और शायद, राहुल गांधी का भी राहुल गांधी बना रह पाना इतना आसान नहीं.
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