सुकमा एन्काउंटर में 26 सी.आर.पी.एफ. के सिपाहियों के मौत की जांच में गये पत्रकारों के सामने एक जवान ने बातों ही बातों में कहा, ‘‘नक्सली क्या मारेंगे, सरकार ही हमारी सुपारी किलिंग करवा रही है.’’ एक सिपाही के इस उद्गार के गंभीर निहितार्थ हैं. सिपाही भी लड़ना नहीं चाहता, माओवादी भी लड़ना नहीं चाहता, फिर भी लड़ाई हो रही है और दोनों ही तरफ से लोग मारे जा रहे हैं, तो ऐसे भी सवाल उठता है कि ये कौन हैं जो इस हिंसा को जारी रखना चाहता है ? आखिर वह क्यों इंसानी जानों से खिलवाड़ कर रहा है ?
बस्तर का पूरा इलाका 5वीं अनुसूची के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है. इस क्षेत्र की एक इंच जमीन भी न तो राज्य सरकार की है और न हीं केन्द्र सरकार की. इस क्षेत्र में 5वीं अनुसूची के हिसाब से न पंचायत, न नगरपालिका, न विधानसभा और न हीं लोकसभा का चुनाव होना है परन्तु यह सब बेखटके हो रहा है. इस प्रावधान के अनुसार सिर्फ राष्ट्रपति और राज्यपाल के माध्यम से ही कानून व्यवस्था में संशोधन किया जा सकता है. अनुसूचित क्षेत्र पारंपरिक ग्राम सभा से संचालित होता है. ग्राम मुखिया के अनुसार ही वहां का कानून चलता है. वहां सबसे बड़ा ग्राम सभा होता है. ग्राम सभा के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट भी नहीं बदल सकता. परन्तु संविधान प्रदत्त चीजों का पालन कहीं भी नहीं हो रहा है.
दरअसल जितने भी आदिवासी क्षेत्र हैं वे सभी प्राकृतिक संसाधनों से भरे परे हैं. आदिवासी क्षेत्र में जमीन के नीचे कीमती खनिज-संपदा का अम्बार लगा हुआ है. दरअसल सरकार इस खनिज-संपदा और प्राकृतिक संसाधनों को कौड़ी के मोल राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों को दे रखी है और वहां पर खुदाई करने के लिए हजारों की संख्या को गांवों को उखाड़ा जा रहा है. लाखों की तादाद में आदिवासियों को उनकी ही जमीन से विस्थापित पर पलायन करने पर मजबूर किया जा रहा है. जब आदिवासियों ने इसका विरोध करना शुरू किया तब जाकर सरकार की पूंजीपतियों की दलाली का चेहरा साफ सामने आया. सरकार ने आदिवासियों के इस विरोध को कुचलने के लिए पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का इस्तेमाल किया और आतंक की काली चादर फैला दिया. आदिवासियों की बहन-बेटी का इज्जत उतारने लगा. उनके घरों को जला कर खाक किया जाने लगा. उन्हें फर्जी केशों में जेलों की चाहरदिवारी में डाला जाता है. यहां रोज ही फर्जी मुठभेड़ के जरिये आदिवासियों को मारा जाता है, उनकी महिलाओं से बलात्कार किया जाता है, गांव के 300 घरों को माओवादियों को बदनाम करने के लिए ‘‘सुरक्षा बलों’’ ने जला डाले. 5000 से अधिक आदिवासी जेल में बंद हैं. 90 लाख एकड़ जमीन सरकार के कब्जे में है. जमीन से बेदखल किये गये 300 स्कूल घोषित रूप से और 500 से अधिक स्कूल अघोषित रूप से बंद कर दिये गये. कितने ही आदिवासी गांवों को खाली कराया जा चुका है और यह आज भी जारी है. अघोषित रूप से न जाने कितने गांव खाली हो गये हैं. लोग कैंपों में रह रहे हैं. न जाने कितने लोग उड़ीसा और आंध्र प्रदेश की ओर पलायान कर गये हैं.
यहां की दुर्दशा ज्यादा भयानक और रौंगटे खड़ा कर देने वाली है. रायपुर जेल की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे ने अपने सोशल मीडिया पेज पर रौंगटे खड़ा कर देने वाली वारदात शेयर की है. उनके अनुसार, आदिवासियों को ‘‘उनकी जल, जंगल, जमीन से बेदखल करने के लिए गांव का गांव जलावा देना, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार, आदिवासी महिलायें नक्सली हैं या नहीं, इसका प्रमाण-पत्र देने के लिए उनका स्तन निचोड़कर दूध निकालकर देखा जाता है. टाईगर प्रोजेक्ट के नाम पर आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन से बेदखल करने की रणनीति बनती है जबकि संविधान की 5 वीं अनुसूची में शामिल होने के कारण सैनिक सरकार को कोई हक नहीं बनता आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन को हड़पने का.’’ सुरक्षा बलों के द्वारा आदिवासी महिलाओं के साथ किये जा रहे भयानक कृत्य को उजागर करते हुए वर्षा डोंगरे आगे लिखती है, ‘‘मैंने स्वयं बस्तर में 14 से 16 वर्ष की मुड़िया माड़िया आदिवासी बच्चियों को देखा था, जिनको थाने में महिला पुलिस को बाहर कर पूरा नग्न कर प्रताड़ित किया गया था. उनके दोनों हाथों की कलाईयों और स्तनों पर करेंट लगाया गया था, जिसके निशान मैंने स्वयं देखे. मैं भीतर तक सिहर उठी थी … कि इन छोटी-छोटी आदिवासी बच्चियों पर थर्ड डिग्री टार्चर किसलिए ?’’
आखिर यह सबकुछ क्यों हो रहा है के जवाब में वर्षा डोंगरे साफ तौर पर कहती है, ‘‘सारे प्राकृतिक खनिज संसाधन इन्हीं जंगलों में है, जिसे उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को बेचने के लिए खाली’’ करवाया जा रहा है. और इस लूट के खिलाफ जो भी सामाजिक जनवादी कार्यकत्र्ता, पत्रकार, आमजन, मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी इन आदिवासियों के हित में आवाज उठाता है उसे या तो माओवादी समर्थक कहकर जेलों में डाल दिया जाता है अथवा फर्जी मुठभेड़ों में मार गिराया जाता है ताकि यहां की दुर्दशा की जानकारी बाहर के लोगों तक न पहंुच सके. अगर सरकार आदिवासी क्षेत्र में सब कुछ ठीक मान रही है तो फिर वह इतना डरती क्यों है ? क्या कारण है कि वहां की सच्चाई जानने के लिए किसी को वहां जाने नहीं दिया जाता ?
वहीं दूसरी ओर इसके उलट जिस सुरक्षा बलों को सरकार आदिवासियों पर जुल्म ढाने को भेजती है यह सरकार उसकी भी इज्जत नहीं करती. बस्तर में मारे जाने वाले जवानों को शहीद का दर्जा और उसके परिवार वालों को शहीद की तरह क्षतिपूर्ति नहीं दी जाती. अखबारों जिसकी विश्वसनीयता शून्य पर पहुंच चुकी है, शहीद-शहीद कहकर ढ़ोल पीटती है, पर उसके लिए भी सरकार कुछ नहीं करती. यहां तक कि उसके शव को दफनाने के लिए दो गज जमीन तक देने को तैयार नहीं होती. ऐसी स्थिति में एक ही वर्ग से आने वाले और दोनों को ही मुर्गे की तरह लड़ाने वाले काॅरपोरेट घरानों और उसकी दलाली में दण्डवत् इस सरकार से सैन्य बलों के द्वारा यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि आखिर हम तुम्हारे और काॅरपोरेट घरानों के हित के लिए खुद की और आदिवासियों की बलि क्यों चढ़ायें ?
Sumit yadav
April 30, 2017 at 7:28 am
Shi baat hai…yeh sarkare sirf punjipatiyo ke talwe chaatti hai or garib aadiwasiyo ke upper julm dhaati hai….