आप बर्बरों और अपराधियों के धुमगज्जर और उत्पात के लिए ज़मीन तैयार करते हैं और फिर बर्बर आपको सत्ता से धकियाकर लतियाते हैं तो आपसे भला किसी की हमदर्दी क्योंकर होनी चाहिए ?
हिन्दुत्ववादी फासिस्ट आज जो भी कुछ कर रहे हैं, क्या उसकी ज़मीन कांग्रेस ने ही नहीं तैयार की है ? नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को 1991 में यही कांग्रेस लेकर आयी थी, जिन्हें आज मोदी उनकी तार्किक निष्पत्तियों तक पहुंंचा रहा है ! इन नीतियों को लागू करने वाले यही मनमोहन सिंह थे, जो उस समय नरसिंह राव की सरकार में वित्त मंत्री हुआ करते थे. आज अगर कांग्रेस सत्ता में होती, तो भी कम या ज्यादा स्पीड से, देर या सबेर इन नीतियों के ऐसे ही विनाशकारी नतीजे सामने आने थे.
क्या यह सच नहीं है कि कांग्रेस नेहरू ब्रांड अधकचरे-अधूरे सेकुलरिज्म से भी कभी का पल्ला झाड़ चुकी थी और नरम केसरिया लाइन अपनाकर ही वह हिन्दुत्ववादियों से चुनावी जंग जीतने की कोशिश करती रही है ? रामजन्मभूमि का ताला खुलवाना, नरसिंह राव के दबे-ढंके समर्थन की बाबरी मस्जिद ध्वंस में भूमिका से लेकर राहुल के मंदिर-मंदिर घूमने और जनेऊ दिखाने की घटिया राजनीति को किस रूप में देखा जाना चाहिए ?
क्या कांग्रेस में आज़ादी के पहले से ही एक धुर-दक्षिणपंथी धड़ा सक्रिय नहीं रहा है जिसकी अंदरूनी सहानुभूति हिंदुत्व की राजनीति से रही है ?
जिस ई.वी.एम. को लेकर कांग्रेस के नेता भी आज विरोध के सुर उठा रहे हैं, उसे लाने वाली कांग्रेस ही है. अब जब उसका बेजा इस्तेमाल भाजपा वाले कर रहे हैं तो इन्हें मिर्ची काहे को लग रही है ?
कश्मीर पर भी एक शब्द बोलने का अधिकार कांग्रेस को नहीं है. कश्मीरियों को अलगाव में डालने और उनके साथ किये गए वायदों के साथ विश्वासघात की शुरुआत तो उसी समय हो चुकी थी, जब नेहरू ने 1953 में शेख अब्दुल्ला की चुनी हुई सरकार को निहायत असंवैधानिक ढंग से बर्खास्त करके उन्हें जेल में डाल दिया था.
जनमत-संग्रह की मांंग को नकारने और धारा-370 को व्यवहारतः निष्प्रभावी बनाते जाने का काम कांग्रेस ने ही किया था. कश्मीर को फौजी बूटों के हवाले करने और बर्बर दमन की शुरुआत कांग्रेस ने की थी, जिसकी अति-प्रतिक्रिया के चलते कश्मीरी अवाम में भी धार्मिक कट्टरपंथ की राजनीति की ज़मीन तैयार हुई, सेकुलरिज्म की पुरानी ज़मीन कमजोर हुई और इस स्थिति का भरपूर लाभ पाकिस्तान-परस्त ताक़तों और आतंकवाद की राजनीति ने उठाया. कश्मीरी अवाम के साथ किये गए ऐतिहासिक अपराध में अपनी भूमिका से कांग्रेस मुंंह नहीं चुरा सकती.
असम में एन.आर.सी. को लेकर भी कांग्रेसी भला किस मुंंह से बोल रहे हैं. भाजपा असम में 40 लाख अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों के होने के दावे कर रही थी. अब पता चला कि अवैध आप्रवासियों की संख्या मात्र 19 लाख से कुछ अधिक है और उनमें से भी 13 लाख हिन्दू हैं.
लेकिन कांग्रेसी सरकार के गृहमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो जुलाई, 2004 में लोकसभा को लिखित बयान में बताया था कि 31 दिसंबर, 2001 को भारत में 1 करोड़ 20 लाख बांग्लादेशी थे, जिसमें से 50 लाख असम में थे. 2005 में एन.आर.सी. के दबे हुए मुद्दे को फिर से उठाने का काम मनमोहन सिंह की सरकार ने ही किया था.
हमें भूलना नहीं चाहिए कि छत्तीसगढ में अर्द्धसैनिक बलों के बर्बर दमन और ‘सलवा जुडूम’ की शुरुआत कांग्रेसियों ने ही की थी. दामोदर घाटी से लेकर टिहरी, नर्मदा आदि बांधों और परियोजनाओं के लिए लाखों को दरबदर करने का काम कांग्रेस ने ही किया था. पूंंजीपतियों को कौड़ियों के मोल जल-जंगल-ज़मीन बेचने के लिए लोगों को बन्दूक की नोक पर उजाड़ने में कांग्रेसी, भाजपाइयों से पीछे नहीं रहे हैं.
धन्य हैं इस देश के लिबरल और चोचलें डेमोक्रेट जो कांग्रेस से सेकुलरिज्म और जनवाद की लड़ाई में नेतृत्व देने की उम्मीद इन सबके बावजूद पाले रहते हैं और दांत चियारे उसकी दर पर बार-बार हाजिरी बजाते रहते हैं. यही वह पार्टी है जिसने दशकों तक भारतीय पूंंजीपति वर्ग की मुख्य प्रतिनिधि पार्टी की भूमिका निभाई है. अब अर्थ-व्यवस्था ने वह भौतिक आधार तैयार किया है कि पूंंजीपतियों ने अपने हितों की चौकीदारी और प्रबंधन का काम फासिस्टों को सौंप दिया है.
इन फासिस्टों को न तो चुनाव के द्वारा परास्त किया जा सकता है, न ही बड़े पूंंजीपतियों की पुरानी पार्टी कांग्रेस, क्षेत्रीय पूंंजीपतियों और कुलकों-फार्मरों की क्षेत्रीय पार्टियों और सामाजिक जनवादियों का कोई मोर्चा बनाकर इनसे पार पाया जा सकता है. फासिज्म को सडकों के आर-पार के संघर्ष में, संगठित मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम ही शिकस्त दे सकता है. इतिहास के इस सबक को कत्तई भूला नहीं जाना चाहिए.
– कविता कृष्णापल्लवी
Read Also –
कौम के नाम सन्देश – भगतसिंह (1931)
कश्मीर : सत्ता की चाटूकारिता करता न्यायपालिका
हाथ से फिसलता यह मुखौटा लोकतंत्र भी
‘मैं देश नहीं बिकने दूंगा’
आम लोगों को इन लुटेरों की असलियत बताना ही इस समय का सबसे बड़ा धर्म है
लुम्पेन की सत्ता का ऑक्टोपस
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]